Showing posts with label ध्यान. Show all posts
Showing posts with label ध्यान. Show all posts

18 May 2015

मौन, ध्यान है।

जब आप अपना सिर क्षितिज को देखते हुए, एक से दूजी ओर घुमाते हैं तो आप की आंखें एक वृहत आकाश देखती हैं, जिसमें धरती और आसमान की सारी चीजें नज़र आती हैं। लेकिन यह रिक्त आकाश वहां बहुत ही सीमित हो जाता है जहां धरती, आकाश से मिलती है। हमारे मन का आकाश बहुत ही छोटा है। इस छोटी सी जगह में हमारी सारी गतिविधियां घटित होती हैं: हमारी दिनचर्या और विरोधाभासी इच्छाओं और लक्ष्यों सहित हमारे दबे छुपे संघर्ष। इसी सीमित आकाश में मन स्वतंत्रता ढूंढता है, और हमेशा अपना ही बंदी बना रहता है। ध्यान है इस सीमित, छोटे से आकाश का अंत करना। हमारे लिए कर्म का आशय है मन के इस छोटे से अवकाश में व्यवस्था लाना। लेकिन इसके अतिरिक्त भी हमारे कई कर्म ऐसे हैं जो इस छोटी सी जगह को व्यवस्थित नहीं रहने देते। ध्यान वह कर्म है जो तब घटित होता है जब मन अपना छोटा सा आकाश, सीमित दायरा खो देता है। वह वृहत आकाश जिसमें मन, ‘मैं‘ या अहं सहित नहीं पहुंच पाता वह है मौन। मन स्वयं में, कभी भी मौन में नहीं रह सकता; यह मौन में तभी होता है, जब यह उस वृहत आकाश में पहुंच जाता है, जिसे विचार स्पर्श नहीं कर पाता। इसी मौन से वह कर्म उपजता है, जो विचार की पृष्ठभूमि से नहीं आता। ध्यान ही मौन है या मौन, ध्यान है।

When you turn your head from horizon to horizon your eyes see a vast space in which all the things of the earth and of the sky appear. But this space is always limited where the earth meets the sky. The space in the mind is so small. In this little space all our activities seem to take place: the daily living and the hidden struggles with contradictory desires and motives. In this little space the mind seeks freedom, and so it is always a prisoner of itself. Meditation is the ending of this little space. To us, action is bringing about order in this little space of the mind. But there is another action which is not putting order in this little space. Meditation is action which comes when the mind has lost its little space. This vast space which the mind, the I, cannot reach, is silence. The mind can never be silent within itself; it is silent only within the vast space which thought cannot touch. Out of this silence there is action which is not of thought. Meditation is this silence.

J. Krishnamurti
Meditations 1969 Part 3

10 Sept 2010

ध्यान वही ‘अवकाश’ है।

ध्यान कुछ ऐसा है... जिसका कि उस तरह से अभ्यास नहीं किया जा सकता, जिस तरह आप वायलिन या पियानो बजाने का अभ्यास करते हैं। आप अभ्यास करते हैं अर्थात् आप पूर्णता के किसी खास स्तर पर पहुंचना चाहते हैं। पर ध्यान में कोई स्तर नहीं है, कुछ पाना नहीं है। इसलिए ध्यान कोई चेतन या जान-बूझकर किया जानेवाला कर्म नहीं है। ध्यान वह है जो पूरी तरह से बिना किसी दिशा निर्देशन के है, अगर मैं चाहूं तो अचेतन शब्द का प्रयोग कर सकता हूं। यह जानबूझकर की गयी प्रक्रिया नहीं है। अब इसे यहीं छोड़ें। हम इस पर बहुत समय एक घण्टा, एक पूरा दिन बल्कि पूरा जीवन लगा सकते हैं। आइये, अब अवकाश स्पेस के बारे में बात करें क्योंकि ध्यान वही ‘अवकाश’ है।

हमारी बुद्धि में अवकाश नहीं है। दो प्रयासों के बीच, दो विचारों के बीच अवकाश है, लेकिन यह अब भी विचार की परिधि में है। इसलिए अवकाश क्या है? क्या अवकाश में समय भी रहता है? अथवा क्या समय में सारा अवकाश शामिल है? हमने समय के बारे में बातचीत की। यदि अवकाश में समय है तब तो यह अवकाश नहीं है? यह तो घिरा हुआ और सीमित है। अतः क्या बुद्धि समय से मुक्त हो सकती है? श्रीमन, यह महत्वपूर्ण व्यापक प्रश्न है। यदि जीवन, सारा जीवन ‘अब’ मैं समाया है तो आप देख पा रहे हैं कि इसका आशय क्या है? सारी मानवता आप हैं। सारी मानवता -क्योंकि दुखी हैं, वह दुखी है। उसकी चेतना आप हैं, आपकी चेतना, आपका होना.. वह है। यहां ‘आप’ या ‘मैं’ जैसा कुछ नहीं है जो कि अवकाश को सीमित करे। अतः क्या समय का कोई अन्त है? घड़ी का समय नहीं, जिसकी चाभी आप भरा करते हैं और जो बन्द हो सकती है बल्कि समय की समग्र गति। 

समय गति है, घटनाओं का एक समूह है। विचार भी गतियों का समूह हैं। इस तरह समय विचार है अतः हम कह रहे हैं.... क्या विचार का अन्त है? जिसका आशय है: क्या ज्ञान का अन्त है? क्या अनुभव का अन्त है? जो कि पूर्ण मुक्ति है। और यही है ध्यान। न कि कहीं जाकर बैठना और देखना- ये बचकाना है। ध्यान के लिए बुद्धि की ही नहीं बल्कि गहरी अर्न्‍तदृष्‍टि‍ की भी आवश्यकता होती है। भौतिकविद्, कलाकार, चित्रकार, कवि आदि सीमित अन्तदृष्टि रखते हैं - सीमित और छोटी। हम समयातीत अन्तर्दृष्टि की बात कर रहे हैं। यही है ध्यान, यही है धर्म और यदि आप चाहें तो शेष दिनों के लिए यही है जीने का मार्ग।

9 Mar 2010

ध्यान का अनूठापन


ध्यान, निस्तब्ध और सुनसान मार्ग पर इस तरह उतरता है जैसे पहाड़ियों पर सौम्य वर्षा। यह इसी तरह सहज और प्राकृतिक रूप से आता है जैसे रात। वहां किसी तरह का प्रयास या केन्द्रीकरण या विक्षेप विकर्षण पर किसी भी तरह का नियंत्रण नहीं होता। वहां पर कोई भी आज्ञा या नकल नहीं होती। ना किसी तरह का नकार होता है ना स्वीकार। ना ही ध्यान में स्मृति की निरंतरता होती है। मस्तिष्क अपने परिवेश के प्रति जागरूक रहता है पर बिना किसी प्रतिक्रिया के शांत रहता है, बिना किसी दखलंदाजी के, वह जागता तो है पर प्रतिक्रियाहीन होता है।
वहां नितांत शांति स्तब्धता होती है पर शब्द विचारों के साथ धंुधले पड़ जाते हैं। वहां अनूठी और निराली ऊर्जा होती है, उसे कोई भी नाम दें, वह जो भी हो उसका महत्व नहीं है, वह गहनतापूर्वक सक्रिय होती है बिना किसी लक्ष्य और उद्देश्य के। वह सृजित होता है बिना कैनवास और संगमरमर के... बिना कुछ तराशे या तोड़े। वह मानव मस्तिष्क की चीज नहीं होती, ना अभिव्यक्ति की.. कि अभिव्यक्त हो और उसका क्षरण हो जाये। उस तक नहीं पहुंचा जा सकता, उसका वर्गीकरण या विश्लेषण नहीं किया जा सकता। विचार और भाव या अहसास उसको जानने समझने के साधन नहीं हो सकते। वह किसी भी चीज से पूर्णतया असम्बद्ध है और अपने ही असीम विस्तार और अनन्तता में अकेली ही रहती है। उस अंधेरे मार्ग पर चलना, वहां पर असंभवता का आनंद होता है ना कि उपलब्धि का। वहां पहुंच, सफलता और ऐसी ही अन्यान्य बचकानी मांगों और प्रतिक्रियाओं का अभाव होता है। होता है तो बस असंभव असंभवता असंभाव्य का अकेलापन। जो भी संभव है वह यांत्रिक है और असंभव की परिकल्पना की जा सके तो कोशिश करने पर उसे उपलब्ध किये जा सकने के कारण वह भी यांत्रिक हो जायेगा। उस आनन्द का कोई कारण या कारक नहीं होता। वह बस सहजतः होती है, किसी अनुभव की तरह नहीं बस अपितु किसी तथ्य की तरह। किसी के स्वीकारने या नकारने के लिए नहीं, उस पर वार्तालाप या वादविवाद या चीरफाड़-विश्लेषण किये जायें इसके लिए भी नहीं। वह कोई चीज नहीं कि उसे खोजा जाये, उस तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं। सब कुछ उस एक के लिए मरता है; वहां मृत्यु और संहार प्रेम है। क्या आपने भी कभी देखा है - कहीं बाहर, गंदे मैले कुचैले कपड़े पहने एक मजदूर किसान को जो सांझ ढले... अपनी मरियल हड्डियों का ढांचा रह गई गाय के साथ घर लौटता है।

Meditation

Meditation, along that quiet and deserted road came like a soft rain over the hills; it came as easily and naturally as the coming night. There was no effort of any kind and no control with its concentrations and distractions; there was no order and pursuit; no denial or acceptance nor any continuity of memory in meditation. The brain was aware of its environment but quiet without response, uninfluenced but recognizing without responding. It was very quiet and words had faded with thought. There was that strange energy, call it by any other name, it has no importance whatsoever, deeply active, without object and purpose; it was creation, without the canvas and the marble, and destructive; it was not the thing of human brain, of expression and decay. It was not approachable, to be classified and analysed, and thought and feeling are not the instruments of its comprehension. It was completely unrelated to everything and totally alone in its vastness and immensity. And walking along that darkening road, there was the ecstasy of the impossible, not of achievement, arriving, success and all those immature demands and responses, but the aloneness of the impossible. The possible is mechanical and the impossible can be envisaged, tried and perhaps achieved which in turn becomes mechanical. But the ecstasy had no cause, no reason. It was simply there, not as an experience but as a fact, not to be accepted or denied, to be argued over and dissected. It was not a thing to be sought after for there is no path to it. Everything has to die for it to be, death, destruction which is love. A poor, worn-out labourer, in torn dirty clothes, was returning home with his bone-thin cow.

Krishnamurti s Notebook Part 6 Madras 3rd Public Talk 29th December 1979

2 Mar 2010

वि‍चार का अन्‍त - ध्‍यान है

मन और मस्तिष्क की गुणवत्ता, ध्यान में महत्वपूर्ण है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आपने क्या उपलब्ध किया या उपलब्धि के बारे में आप क्या कह रहे हैं, बल्कि मन का वह गुण है जो निर्दोष और अतिसंवेदनशील है। नकार के द्वारा सकारात्मक अवस्था तक पहुंचा जाता है। हम समूह में रहें या अपने में, अनुभव के द्वारा, ध्यान की शुद्धता को नकारते हैं। किसी अन्त पर पहुंचना ध्यान का ध्येय नहीं है। यह ध्येय भी है और साथ ही उसकी समाप्ति भी। अनुभव के द्वारा मन को कदापि निर्दोष या शुद्ध नहीं बनाया जा सकता। अनुभव को नकारने पर ही निर्दोषता की सकारात्मक अवस्था तक पहुंचा जाता है जो कि विचार द्वारा नहीं गढ़ी जा सकती। विचार कभी भी निर्दोष नहीं होता। ध्यान विचार की समाप्ति है, पर ध्यान करने वाले के द्वारा नहीं, ध्यान करने वाले के लिए ध्यान है। यदि ध्यान नहीं है तो प्रकाश और रंगों के अति सुन्दर विश्व में जैसे आप एक अंधे आदमी की तरह हैं। आप कभी सागर किनारे भटकें तो ध्यान के ये गुण आपके पास आते हैं। यदि कभी ऐसा होता है तो उनका पीछा ना करें। यदि आप उनका अनुसरण करते हैं तो यह आपकी स्मृति का सक्रिय होना है जो अतीत होता है और ....जो है उसकी मृत्यु अतीत है। या जब आप जंगलों पहाड़ों में विचरण कर रहे हों तो अपने आस-पास के सम्पूर्ण वातावरण को, सब कुछ को जीवन के सौन्दर्य और पीड़ाओं को आपसे कहने दें ताकि आप भी अपने दुख के प्रति जागरूक हो सकें और ये दुख खत्म हो सकें।
ध्यान जड़ है, ध्यान पौधा है। ध्यान फूल है और ध्यान फल है। यह शब्द ही हैं जो फल, फूल, पौधे और जड़ को अलग अलग कर देते या बांट देते हैं। इस बंटवारे में कोई भी कर्म भलेपन तक नहीं पहुंचता और सद्गुण या भलाई सम्पूर्ण दृष्टि से ही जन्मते हैं।


Meditation in the ending of thought

What is important in meditation is the quality of the mind and the heart. It is not what you achieve, or what you say you attain, but rather the quality of a mind that is innocent and vulnerable. Through negation there is the positive state. Merely to gather, or to live in, experience, denies the purity of meditation. Meditation is not a means to an end. It is both the means and the end. The mind can never be made innocent through experience. It is the negation of experience that brings about that positive state of innocency which cannot be cultivated by thought. Thought is never innocent. Meditation is the ending of thought, not by the meditator, for the meditator is the meditation. If there is no meditation, then you are like a blind man in a world of great beauty, light and colour. Wander by the seashore and let this meditative quality come upon you. If it does, don't pursue it. What you pursue will be the memory of what it was - and what was is the death of what is. Or when you wander among the hills, let everything tell you the beauty and the pain of life, so that you awaken to your own sorrow and to the ending of it. Meditation is the root, the plant, the flower and the fruit. It is words that divide the fruit, the flower, the plant and the root. In this separation action does not bring about goodness: virtue is the total perception.
The Second Penguin Krishnamurti Reader Talks in Europe 1968

13 Feb 2010

विचार, स्मृति की तरह हो तो उसे नकारना अत्यावश्यक है।


कोई कैसे नकार सकता है? क्या कोई ज्ञात को नकार सकता है, किसी महान नाटकीय घटना में नहीं बल्कि छोटे-छोटे वाकयों में? क्या मैं शेव करते समय स्विटजरलैंड में बिताये हसीन वक्त की यादों को नकार सकता हूं? क्या कोई खुशनुमा वक्त की यादों को नकार सकता है? क्या कोई किसी बात के प्रति जागरूक हो सकता है और नकार सकता है? यह नाटकीय नहीं है, यह चमत्कारपूर्ण या असाधारण नहीं है, लेकिन कोई भी इस बारे में नहीं जानता।
फिर भी अनवरत इन छोटी-छोटी चीजों को नकारना, छोटी छोटी सफाईयों से, छोटे छोटे दागों को घिसने और पोंछने से क्या एक बहुत ही बड़ी सफाई नहीं हो जायेगी - यह बहुत ही आवश्यक है, अपरिहार्य है। यह बहुत ही जरूरी है कि विचार को याद के रूप में नकारा जाये वो चाहे खुशनुमा हो या दर्दनाक। दिन भर प्रत्येक मिनट जब भी विचार याद की तरह आये उसे निकारना। किसी भी व्यक्ति को ऐसा किसी उद्देश्य से नहीं करना है, ना ही अज्ञात की किसी असाधारण अपूर्व अवस्था में उतरने के अनुसरण स्वरूप। आप ऋषि वैली में रहते हैं और मुम्बई और रोम के बारे में सोचते हैं। यह एक संघर्ष एवं वैमनस्य पदा करता है, और संघर्ष मस्तिष्क को कुंद बनाता है, खंडि‍त चीज बनाता है। क्या आप इस चीज को देखते हैं और इसे पोंछकर हटा सकते हैं? क्या आप यह सफाई जारी रखते हैं क्योंकि आप अज्ञात में प्रवेश करना चाहते हैं? इससे आप अज्ञात को नहीं जान सकेंगे क्योंकि जिस क्षण आप इसे अज्ञात के रूप में पहचानते हैं वह वापस ज्ञात की परिधि में आ जाता है। पहचानने या मान्यता देने की प्रक्रिया, ज्ञात में निरन्तर रहने कि प्रक्रिया है। जबकि हम नहीं जानते कि अज्ञात क्या है हम यही एक चीज कर सकते हैं, हम विचारों कों पोंछते जायें जैसे ही यह उगें। आप फूल देखें, उसे महसूस करें, सौन्दर्य देखें, उसका प्रभाव उसकी असाधारण दीप्ति देखें। फिर आप अपने उस कमरें में चले आये जिसमें आप रहते हैं, जो कि उचित अनुपात में नहीं बना है, जो कि कुरूप है। आप कमरे में रहते हैं लेकिन आपके पास कुछ सौन्दर्य बोध होता है और आप फूल के बारे में सोचना शुरू कर देते हैं और विचार की पकड़ में आ जाते हैं, तो जैसे ही विचार उगे, आपको दिखे उसे पोंछ दें, हटा दें। तो अब जिस गहराई से यह पोंछना या सफाईकर्म या हटाना करते हैं, आप जिस गहराई से फूल, अपनी पत्नी, अपने देवता, अपने आर्थिक जीवन को नकारते हैं यह देखना है? आपको अपनी पत्नी, बच्चों और कुरूप दानवीय समाज के साथ जीना ही है। आप जीवन से पलायन नहीं कर सकते। लेकिन जब अब पूर्णतः नकारना शुरू करते हैं तो विचार, शोक, खुशी से आपके रिश्ते भी अलग होंगे, तो यहां पर अपरिहार्य अत्यावश्यक रूप से पूर्ण रूपेण नकारना होना चाहिये, आंशिक रूप से नकारना नहीं चलेगा, उन चीजों को बचाना भी नहीं चलेगा जिन्हें आप चाहते हैं ओर केवल उन चीजों को नकारने से भी नहीं चलेगा जो आप नहीं चाहते।

8 Feb 2010

सृजन के द्वार खोलना


सच्चे शाब्दिक मायनों में सीखना केवल जागरूकता अवधानपूर्ण अवस्था में ही संभव है, जिसमें आन्तरिक या बाहृय विवशता न हो। उपयुक्त चिंतन-मनन केवल तब हो सकता है, जब मन परंपरा और स्मृति की दासता में न हो। अवधानपूर्ण होना ही मन में शांति को आंमत्रित करता है, जो कि सृजन का द्वार है। यही वजह है कि अवधान या जागरूकता सर्वोच्च रूप से महत्वपूर्ण हैं। मन की उर्वरता के लिए क्रियात्मक स्तर पर ज्ञान की आवश्यकता होती है, न कि ज्ञान पर ही रूक जाने की। हमारा सरोकार छात्र के मानव के रूप में सम्पूर्ण विकास पर होना चाहिए ना कि गणित, या वैज्ञानिक या संगीत जैसे किसी एक क्षेत्र में उसकी क्षमता बढ़ाने से। हमारा सरोकार छात्र के सम्पूर्ण मानवीय विकास से होना चाहिए। अवधान की अवस्था किस प्रकार उपलब्ध की जा सकती है? यह अनुनय-विनय-मनाने, तुलना करने, पुरस्कार अथवा दंड जैसे दबाव के तरीकों से नहीं उपजायी जा सकती। भय का निर्मूलन अवधानपूर्ण होने की शुरूआत है। जब तक कुछ होने, कुछ हो जाने कि जिद या अपेक्षा जो कि सफलता का पीछा करने जैसा है, जब तक हैं - ....अपनी सम्पूर्ण निराशा, अवसाद और कुटिल विसंगतियों के साथ... भय बना रहता है। आप ध्यान केन्द्रित करना सिखा सकते हैं, लेकिन अवधानपूर्ण होना नहीं सिखा सकते वैसे ही जैसे कि भय से स्वाधीन रहना नहीं सिखा सकते। लेकिन हम शुरूआत कर सकते हैं - भय को पैदा करने वाले कारणों को खोजकर.... उन कारणों को समझना भय के निर्मूलन में सहायक हो सकता है। तो जब छात्र के आसपास अच्छाई का वातावरण बनता है, जब वह अपने आपको सुरक्षित और सहज महसूसत करता है तो जागरूकता या अवधान तुरन्त ही उदित हो जाता है। जागरूकता या अवधान सप्रेम निष्काम कर्म की तरह उसमें चले आते हैं। प्रेम तुलना नहीं है इसलिए कुछ होने की ईष्र्या और दमन भी अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं।

Opening the door to creation

Learning in the true sense of the word is possible only in that state of attention, in which there is no outer or inner compulsion. Right thinking can come about only when the mind is not enslaved by tradition and memory. It is attention that allows silence to come upon the mind, which is the opening of the door to creation. That is why attention is of the highest importance. Knowledge is necessary at the functional level as a means of cultivating the mind, and not as an end in itself. We are concerned, not with the development of just one capacity, such as that of a mathematician, or a scientist, or a musician, but with the total development of the student as a human being.
How is the state of attention to be brought about? It cannot be cultivated through persuasion, comparison, reward or punishment, all of which are forms of coercion. The elimination of fear is the beginning of attention. Fear must exist as long as there is an urge to be or to become, which is the pursuit of success, with all its frustrations and tortuous contradictions. You can teach concentration, but attention cannot be taught just as you cannot possibly teach freedom from fear; but we can begin to discover the causes that produce fear, and in understanding these causes there is the elimination of fear. So attention arises spontaneously when around the student there is an atmosphere of well-being, when he has the feeling of being secure, of being at ease, and is aware of the disinterested action that comes with love. Love does not compare, and so the envy and torture of `becoming' cease.
J. Krishnamurti Life Ahead Saanen 4th Public Dialogue 3rd August 1974. 

27 Jan 2010

भ्रम को भ्रम सा देख लेने पर सब स्‍पष्‍ट हो जाता है



जीवन में प्रतिपल हो रहे परिवर्तनों के, निरन्तर स्पर्श में रहने को देखना* ध्यान है। एक व्यक्ति जो एक पापी से संत होने की विकासयात्रा में है वह एक संभ्रम से अन्य भ्रम में यात्रा कर रहा है। यह सारी गति भ्रम में ही है।  जब मन, यह भ्रम ही देख लेता है... तब वह पुनः भ्रम नहीं पैदा करता, ना ही किसी तरह की नापजोख या मापने को जारी रखता है। अंततः इसलिए बेहतर होते-होते, विचार का अंत आ जाता है। इन सबके साथ ही मुक्ति की अवस्था उदित होती है और यही पवित्र पावन है। केवल यहीं वह उपलब्ध होता है जो निरंतर है।


Meditation
Meditation is seeing the constant touching the ever-changing movement of life. The man who has progressed through being a sinner to being a saint has progressed from one illusion to another. This whole movement is an illusion. When the mind sees this illusion it is no longer creating any illusion, it is no longer measuring. Therefore thought has come to an end with regard to becoming better. Out of this comes a state of liberation - and this is sacred. This alone can, perhaps, receive the constant.
J. Krishnamurti, Krishnamurti Foundation Trust, Bulletin 22, 1974

11 Jan 2010

झूठ के सच को देखना



अनुभव की भूख या तृष्णा ही भ्रम का, माया का आरंभ है। जैसा कि अब आप जानते हैं, आपकी दृष्टि- आपकी पृष्ठभूमि या अतीत का प्रेक्षण या अनुमान है, या परिस्थितियों द्वारा संभावनाओं को देखना है, और यह ही वह अनुमान या संभावनाएं हें जो आपने अनुभव किये हैं। निश्चित ही यह ध्यान नहीं हैं। ध्यान का आरंभ वहां से होता है जब आप अपनी पृष्ठभूमि , अपने आपको समझना शुरू करते हैं। बिना अपनी पृष्ठभूमि को, बिना अपने आप को समझे आप जिसे ध्यान कहते हैं वो चाहे कितना ही आनंददायक या दुखदायक हो वो आत्म सम्मोहन है। आप आत्मनियंत्रण का अभ्यास करते हैं, विचारों में महारत हासिल करते हैं और अनुभवों में आगे बढ़ने के लिए ध्यान केन्द्रित करते हैं। यह आत्म स्व केन्द्रित धंधा है, यह ध्यान नहीं है और यह देखना जानना कि क्या ध्यान नहीं है यह ही ध्यान का आरंभ है। झूठ के सच को देख लेने पर ही मन असत्य से मुक्त होता है। झूठ से मुक्त होने की आकांक्षा से ही झूठ से आजादी नहीं मिल जाती, यह मुक्ति तब आती है जब हमें किसी सफलता, किसी निर्णय, परिणाम या अंत को उपलब्ध हो जाने से सरोकर नहीं होता। सारी खोजों पर विराम होने पर ही वह संभावना होती है... कि वो अस्तित्व में आये जो अनाम है।

25 Nov 2009

Meditation and control ध्यान और नियंत्रण



In classical, ordinary meditation, the gurus who propagate it are concerned with the controller and the controlled. They say to control your thoughts because thereby you will end thought, or have only one thought. But we are inquiring into who the controller is. You might say, “It is the higher self”, “It is the witness”, “It is something that is not thought”, but the controller is part of thought. Obviously. So the controller is the controlled. Thought has divided itself as the controller and that which it is going to control, but it is still the activity of thought…
So when one understands that the whole movement of the controller is the controlled, then there is no control at all. This is a dangerous thing to say to people who have not understood it. We are not advocating no control. We are saying that where there is the observation that the controller is the controlled, that the thinker is the thought, and if you remain with that whole truth, with that reality, without any further interference of thought, then you have a totally different kind of energy.


This Light in Oneself, p 32

हि‍न्‍दी  : 
पारंपरिक शास्त्रीय, सामान्य ध्यान में किसी गुरू द्वारा उपजायी प्रक्रिया और जिसमें नियंत्रक और नियंत्रित से सरोकार होता है। गुरू कहता आपको अपने विचारों पर नियंत्रण करने को कहता है कि जिससे आप विचार को खत्म कर सकें या आखिरकार कोई एक विचार रह जाये। लेकिन हम इस बारे में पूछताछ गवेषणा कर रहे हैं कि नियंत्रक आखिरकार है कौन? आप कह सकते हैं, कि यह उच्चतम स्व या आत्म है, यह प्रत्यक्षदर्शी है, या यह विचार से इतर कोई चीज है। लेकिन जाहिर है नियंत्रक विचार का ही एक हिस्सा है। नियंत्रक ही नियंत्रित है। विचार ही खुद को नियंत्रक और नियंत्रित किये जाने वाले में बांट लेता है, लेकिन अंततः यह गतिविधि भी विचार की ही है।
तो जब कोई यह समझ जाता है कि नियंत्रक का ही सम्पूर्ण कार्यव्यवहार निंयत्रित भी है, तब वहां पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं रह जाता। यह सब उन लोगों से कहना जो कि इसे नहीं समझते, एक बहुत ही खतरनाक चीज है।  हम नियंत्रण न करने की वकालत नहीं कर रहे हैं। हम यह कह रहे हैं कि जहां भी यह दिख रहा हो कि नियंत्रक ही नियंत्रित भी है, सोचने वाला ही विचार भी है.. और यदि आप इस सम्पूर्ण सत्य, इस वास्तविकता के साथ ही शेष रह सकते हैं, बिना अन्य किसी विचार के हस्तक्षेप के, तो आपके पास एक भिन्न प्रकार की ऊर्जा है।

24 Nov 2009

ध्यान कोई पद्धति नहीं है



ध्यान, सचेतन ध्यान नहीं है। क्या आप इसे समझ रहे हैं? यह किसी पद्धति का अनुसरण करता हुआ, किसी गुरू सामूहिक ध्यान, एकल ध्यान, या जेन या किसी अन्य पद्धति का अनुसरण करता हुआ सचेतन ध्यान नहीं है। यह पद्धति नहीं हो सकता क्योंकि तब आप अभ्यास , अभ्यास... अभ्यास करेंगे और आपका मस्तिष्क अधिकाधिक मंद होता जायेगा, अधिकाधिक मशीनी होता जायेगा। तो क्या कोई ऐसा ध्यान है जिसकी कोई दिशा नहीं है, जो सचेतन नहीं है.... ये ऐसा नहीं हो जो सुचिन्तित, इच्छित, सोचा-समझा, भली भांति विचार किया गया हो? तो इसे खोजिये।

21 Nov 2009

ध्यान जीवन से अभिन्न है



ध्यान जीवन से अलग नहीं है। ऐसा नहीं करना है कि कमरे के किसी कोने में जाकर बैठ जाना है, 10 मिनट ध्यान लगाना है और उसके बाद वापस अपनी कसाईपने वाले ढर्रे पर लौट आना है। कसाई की... ये उपमा नहीं हकीकत है। ध्यान सर्वाधिक गंभीर चीजों में से एक है। इसे आप सारा दिन, दफ्तर में, परिवार में, किसी से यह कहते हुए कि ’’मुझे तुमसे प्यार है’’, या फिर अपने बच्चों के बारे में सोचते हुए.. इसे सारा दिन ध्यान में रखना है। क्या आपने ध्यान से देखा है कि आप अपने बच्चों को किसी की हत्या...सैनिक बनने की शिक्षा देते हैं, आप उसमें राष्ट्रीयता की भावना कूट-कूट कर भरते हैं, झण्डे का सम्मान करना सिखाते हैं, और आधुनिक युग की अंधी दौड़ में दौड़ना सिखाते हैं।
इन सब बातों को देखना, इनमें अपनी भूमिका की वास्तविकता पहचानना, ये सब ध्यान का ही हिस्सा है। जब आप ध्यानपूर्ण होते हैं तो आप इसकी अत्यंतिक सुन्दरता को पहचान पाते हैं, तब आप अपने आप ही सही काम करने लगते हैं या गलती होती भी है तो आप खेद या क्षमा में समय गंवाये बगैर इसे तुरन्त ही सुधार देते हैं। ध्यान जीवन का एक अंग है, जीवन से इतर कुछ नहीं।

16 Nov 2009

ध्‍यान न प्रार्थना, है न समर्पण



प्रार्थना शायद परिणाम देती हो अन्यथा करोड़ों लोग प्रार्थना नहीं करते। और शायद प्रार्थना मन को शांत भी बनाती है, किन्हीं विशेष शब्दों को दोहराते रहने से मन शांत हो जाता है। और इस शांति में कुछ पूर्वाभास, कुछ नजर आना, कुछ जवाब मिलना जैसा भी होता होगा। लेकिन ये सब मन की ही चालाकियाँ और कारगुजारियाँ हैं, क्योंकि इस सब के बावजूद इस प्रकार की तंद्रावस्था को गढ़ने वाले आप ही हैं, जिसके द्वारा आपने मन को शांत किया गया है। इस शांत अवस्था में कुछ छिपी हुई प्रतिक्रियाऐं आपके अचेतन और चेतना के बाहर से उठती हैं। लेकिन इस सब के बावजूद भी ये एक वैसी ही अवस्था है जिसमें समझबूझ नहीं होती।
न ही ध्यान समर्पण है - किसी सिद्धांत के प्रति समर्पण, किसी छवि, किसी विचार के प्रति समर्पण क्योंकि मन की बातें वही आदर्शवादी, मूर्ति-चिन्ह-विचार पूजक, दोहराव-पूजक होती हैं।
कोई मूर्ति की पूजा नहीं करता ये सोचते हुए कि वो मूर्तिपूजा कर रहा है और ये मूर्खता है, अंधविश्वास है अपितु बहुत से लोगों की तरह हर व्यक्ति अपने मन में पैठी बातों, आदर्शों की पूजा करता है वो भी आदर्शपूजन ही है न। यह एक छवि, एक विचार, एक सिद्धांत के प्रति समर्पण है यह ध्यान नहीं है। जाहिर है कि ये अपने आप से ही पलायन का एक तरीका है, यह बहुत ही सुविधाजनक पलायन है, लेकिन अंततः पलायन ही है न।

6 Nov 2009

अनवधान के प्रति जागरूक होना



हमारा देखना और सुनना, अवधान... ध्यान का ही एक प्रकार है और ध्यान की कोई सीमा नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं इसलिए यह असीम है। ध्यान के लिए अथाह ऊर्जा लगती है जो एक ही बिन्दु पर टिकी न हो। इस अवधान में पुनरावृत्ति करने वाले कोई भी क्षण नहीं, यह यांत्रिक नहीं। इसलिए इस प्रकार का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि अवधान या ध्यान को कैसे संभाला या जारी रखा जाये, और जब कोई देखने और सुनने के कला सीख लेता है यह ध्यान या अवधान स्वतः ही अपने को किसी पेज पर, किसी भी शब्द पर फोकस करने में समर्थ होता है। इसमें किसी प्रकार का प्रतिरोध नहीं होता जो कि एकाग्रता की गतिविधि में होता है। अनवधान को परिष्कृत करके अवधान में नहीं बदला जा सकता। अनवधान के प्रति जागरूकता यानि अनवधान का अंत न कि अनवधान, अवधान हो जायेगा। इस समाप्ति में ही निरंतरता नहीं रहती। अतीत अपने आपको भविष्य में बदल लेता है - कुछ हो जाने की निरंतरता में, और हम निरंतरता में ही सुरक्षितता ढूंढते हैं, समाप्ति में नहीं। तो ध्यान या अवधान में निरंतरता का गुण नहीं होता। जो भी निरंतर चलता रहता है वह यांत्रिक है। यह होना यांत्रिक है और इसमें समय लागू होता है। ध्यान में समय का गुण भी नहीं है। यह सब एक अत्यंत जटिल विषय है। कोई भी इसमें बड़े होले-होले, धीरे-धीरे ही गहराई तक जा सकता है।

4 Nov 2009

एकाग्रता और ध्यान में अन्तर

अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को किसी विशेष बिन्दु पर फोकस करना एकाग्रता है। ध्यान में कोई बिन्दु विशेष नहीं होता जिस पर फोकस किया जाये। हम एकाग्रता से भलीभांति परिचित हैं पर हमें ध्यान की खबर नहीं। जब हम अपनी देह पर ध्यान देते हैं तब देह पूर्णतः शांत हो जाती है, जो कि उसका अपना अनुशासन है; तब देह विश्राम अवस्था में होती है लेकिन निष्क्रिय नहीं तब वहां पर समरसता की ऊर्जा होती है। जहाँ ध्यान होता है वहाँ विरोधाभास नहीं होता इसलिए कोई संघर्ष नहीं होता। जब आप कुछ पढ़ें तो ध्यान दें कि आप कैसे बैठे हैं, किस तरह सुन रहे हैं, कोई कुछ कह रहा है तो आप उसे कैसे ग्रहण करते हैं, कोई कुछ कहता है तो आप किस तरह प्रतिक्रिया देते हैं और यह कि आप ध्यान क्यों नहीं दे पाते हैं?
आपको यह सीखना नहीं है कि ध्यान कैसे देना है? कयोंकि यदि आप सीख रहे हैं तो आप एक व्यवस्था बना रहे हैं, अपने दिमाग में एक कार्यक्रम भर रहे हैं जिसके अनुसार चलना है तो आपका यह ध्यान यांत्रिक, एक तरह का दोहराव और स्वचालित हो जायेगा जबकि वास्तव में ध्यान ऐसा कुछ भी नहीं है।
ध्यान अपने सारे जीवन को देखने का तरीका है, बिना स्वरूचि के किसी केन्द्र के।

2 Nov 2009

ज्ञान के परदे की ओट के बिना देखना



अवलोकन में किसी तरह के संचित ज्ञान की जरूरत नहीं, हालांकि ज्ञान एक स्तर विशेष तक सहजतः आवश्यक है जैसे चिकित्सीय ज्ञान, वैज्ञानिक ज्ञान, इतिहास का ज्ञान और अन्य सारी चीजों का जो हैं। क्योंकि अंततः वो सब चीजें जो हो चुकी हैं, हैं -उनके बारे में सूचना, ज्ञान है। लेकिन भविष्य का कोई ज्ञान नहीं है, बस जो हो चुका है उसके ज्ञान के आधार पर लिए अंदाजे ही हमें भविष्य के साथ जोड़ने वाली कड़ी हैं। एक ऐसा मन जो ज्ञान के झीने परदे की ओट से देख रहा है वह विचार की तीव्र धारा का अनुगमन करने में सक्षम नहीं हो सकता। यदि आप अपनी ही सम्पूर्ण वैचारिक संरचना को देखना चाहते हैं तो आपको अपने ज्ञान के झीने परदे को हटाकर, अपनी सम्पूर्ण वैचारिक संरचना को सीधे देखना होगा।
जब आप सामान्य सहज रूप से, बिना आलोचना या स्वीकारने के, केवल अवलोकन मात्र करते हैं तब आप देखेंगे कि विचार का अंत भी है। यूं ही सामान्य तौर पर विचार आपको कहीं नहीं ले जाते। लेकिन यदि आप विचार की प्रक्रिया का अवलोकन, अवलोकनकर्ता और अवलोक्य के भेद के बिना कर पाते हैं, यदि आप विचार की सम्पूर्ण गति देख पाते हैं (बिना आलोचना या स्वीकार्य के) तो आपका यह अवलोकन, विचार का तुरन्त ही अंत पा जाता है - और इसलिए इस स्थिति में मन करूणापूर्ण होता है, वह निरंतर उत्परिवर्तन (सनातन) अवस्था में होता है।

27 Oct 2009

आलोचना के बिना, जागरूक भर रहना

ध्यान ऐसी चीज नहीं है कि उसे करने के बारे में सोचा जाये या नियत समय सारणी बनायी जाये या मुहूर्त निकाला जाये। यह तंत्र-मंत्र-यंत्र जैसा नहीं कि जप-तप के लिए फलां-फलां जगह हो, कम्बल या किसी विशेष तरह का आसन हो, दिशा विशेष की ओर मुंह हो, ध्यान के सबंध में ये सारी बातें फालतू हैं। यह ऐसा ही है कि तुरंत अभी शुरू करना चाहिए। आसपास के वृक्षों को देखें, आसमान देखें, गिलहरी, चिड़िया, मछली को देखें, पत्ते पर पड़ते प्रकाश को देखें, किसी के परिधान के रंगों को, किसी का चेहरा,,, इसके बाद ही बात गहराई की ओर चलती है। धीरे-धीरे हम अन्दर की ओर खिसकते हैं। हम बाहरी चीजों को देखते हुए बिना पसंद-नापसंद के जागरूक हो सकते हैं, यह बहुत ही सरल है। लेकिन जब हम अन्दर, अपने भीतर की ओर जाते हैं तो बिना किसी आलोचना, बिना किसी निर्णय, बिना तुलना किये रहना ज्यादा मुश्किल हो जाता है। लेकिन हमें बस यह करना है कि हम अपने विश्वासों, डरों, झूठी मान्यताओं, भ्रमों , आशाओं, अवसादों, आकांक्षाओं और इसी तरह की अन्य सारी बातों के प्रति जागरूक रहें। इसी तरह हम परत-दर-परत अपने मन की ऊपरी सतहों और फिर गहरे तलों की यात्रा की शुरूआत कर सकते हैं।

26 Oct 2009

जो मन असाधारणरूप से शांत है, स्पष्टदृष्टा है उसे सीखने को शेष है भी क्या?

केवल देखने, सुनने के अतिरिक्त, सीखना क्या है?
सीखें पर किसी मनोवैज्ञानिक या विशेषज्ञ के कहे अनुसार नहीं। आप अपने आप को ही लें, अपने आप को ही देखें - बिना किसी आलोचना या प्रशंसा, निर्णय लेने के उद्देश्य से, या तुच्छता से अलग थलग पटक देने जैसे नहीं....बस.... मात्र देखें। उदाहरण के लिए देखें कि ”मैं घमंड करता हूं“ पर अब यह नहीं करना कि घमंड बुरी चीज है, या अच्छी, या गंदी चीज है... नजरिया बनाकर नहीं देखना है... बस केवल देखें। जैसे-जैसे हम निरपेक्ष, बिना किसी विक्षेप के यथावस्तु देखते हैं, हम सीखते हैं। देखना, मतलब सीखना कि अहं या घमंड में क्या-क्या शामिल है, यह जन्म कैसे लेता है, कैसे यह हमारे मन में गहरे कोनों में पैठा रहता है या सामने ही सामने फूलता-फलता है, और हमें ही इसकी फसल काटनी पड़ती है। जैसे हम अपने आप को ध्यानपूर्वक देखते हैं, तुरंत सीखते हैं। अब इसमें याद रखने और अनुभव करने जैसी कोई बात नहीं कि बाद में उससे सबक लेंगें।
तो यह बहुत कठिन है पर, यह केवल कुछ क्षणों 2-5 मिनट का काम है। ध्यानपूर्वक, जागरूक या सावधान-अवधानपूर्ण रहना बहुत कठिन है। हमारा मन बार-बार असावधान होता है तो उन क्षणों में जब आप असावधान हैं यह देखें-जाने कि असावधानता क्या है? हमें सावधान होने की कोशिश नहीं करनी, खुद से ही संघर्ष या लड़ना नहीं है पर यह देखना है कि यह असावधानता क्या है? ऐसा क्यों हो रहा है? इस असावधानता के प्रति पूरी तरह होशवान, सावधान रहें। यहीं ठहरें। यह ना कहें कि मैं अपना पूरा समय सावधान, होशपूर्ण रहने में ही लगाऊंगा। इससे ज्यादा गहराई में जाना जटिलता पैदा करेगा। यह हमारे मन का एक गुण है कि वह हर समय जागता है और देखता रहता है, और सीखना इसके अलावा कुछ है भी नहीं। जो मन असाधारणरूप से शांत है, स्पष्टदृष्टा है उसे सीखने को शेष है भी क्या?

20 Jul 2009

यदि आप बाहरी चीजों के प्रति होशवान हैं

कृपया इसे ध्यानपूर्वक सुनें। हम में से बहुत से लोग सोचते हैं कि सजगता, ध्यान कुछ रहस्यमयी चीज है जिसका अभ्यास करना चाहिए और जिसके लिए बार-बार हम इकट्ठे होते और, बातें करते हैं। लेकिन इस तरीके से कभी होशवान नहीं हुआ जाता। लेकिन यदि आप बाहरी चीजों के प्रति होशवान हैं - दूर तक चली गई सड़क के सर्पीले घुमावदार लहराव, वृक्ष का आकार, किसी के पहनावे का रंग, नीले आसमान की पृष्ठ भूमि में किसी पर्वत का रेखाचित्र, किसी फूल का सौन्दर्य, किसी पास से गुजरते व्यक्ति के चेहरे पर दुःखदर्द के चिन्ह, किसी का हमारी परवाह न करना, दूसरों की ईष्र्या, पृथ्वी की सुंदरता..... तब इन सब बाहरी चीजों को बिना किसी आलोचना के, बिना पसंद नापसंद किये, देखना...... इससे आप आंतरिक अंर्तमुखी सजगता की लहर पर भी सवार हो जाते हैं। तब आप अपनी ही प्रतिक्रियाओं, अपनी ही क्षुद्रता, अपने ईष्र्यालुपन के प्रति भी होशवान हो सकते हैं । बाहरी सजगता से आप आंतरिक सजगता की ओर आते हैं। लेकिन यदि आप बाह्य बाहरी के प्रति सजग नहीं होते हैं तो आपका अंातरिक अंर्तमुखी सजगता पर आना असंभवप्राय है।

2 Jan 2009

ध्यान जीवन के लिए अनिवार्य है

वास्तव में क्या सच है और क्या झूठ इसके लिए, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रभावांे की सभी समस्याओं को समझने के लिए हमें, आंतरिक और बाह्य उद्देश्यों के प्रभावों - अनुभवों के प्रभाव, ज्ञान के प्रभाव को समझना होगा। हमें अत्यांतिक अंर्तदृष्टि, एक गहरी सूझ-बूझ चाहिए जो है उसे वैसा ही (बिना किसी बात से प्रभावित हुए) देखने के लिए और इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ही ध्यान कहते हैं। ध्यान उसी तरह अनिवार्य है जैसे हमारा जीवन, दिनचर्या, और जीवन मंे खूबसूरती। खूबसूरती को खूबसूरती और कुरूप को कुरूप की देख सकने वाली चेतना चाहिए वर्ना आप खूबसूरत वृक्षों, शाम के सिन्दूरी आसमान और अनन्त विस्तार तक फैले क्षितिज में बादलों के झुरमुट में बैठे सूरज की खूबसूरती कैसे जान पाएंगे। सारी खूबसूरती और कुरूपता को जैसी वो है, वैसा ही देखने के लिए ध्यान की आंख चाहिए। हमारी सारी दिनचर्या में ध्यान चाहिए - सुबह जब हम दफ्तर या काम पर निकलते हैं, लड़ाई झगड़े करते हैं, तनाव, क्रोध, क्षोभ और गहरे डर को, प्रेम को, वासना को - इन सब बातों को समझने के लिए ध्यान अनिवार्य मूलभूत आवश्यकता है। हमारे अस्तित्व की संपूर्ण प्रक्रिया को - कौन सी बातें हमें प्रभावित करती हैं, किन बातों से हम तनाव में घिर जाते हैं, किन बातों को सुनसमझ महसूस कर हम फूल कर कुप्पा हो जाते हैं, किनसे दुख किनसे सुख मिलता साा लगता है इन सब बातों को जानने समझने का माध्यम है ध्यान। यह सम्पूर्ण देखना, जानना, बूझना समझना हमें समस्याओं से असत्य से मुक्त करता है और यथार्थ में प्रवृत्त यही ध्यान है।

31 Dec 2008

ध्यान शुभता के पुष्प का खिलना ही है।

एक निःश्छल, निस्वार्थ दिल का होना ध्यान का आरंभ है। जब हम उस के बारे में बात करना चाहते हैं तो मन मस्तिष्क के अंतस्तल की कोशिशों की आवश्यकता होगी। हमें पहला कदम उसके सबसे निकट के बिंदु से उठाना होगा। ध्यान का फल है शुभता और निश्छल ह्दय ध्यान का आरंभ है। हम जीवन की बहुत सी चीजों के बारे में बात करते हैं। प्रभुता, महत्वाकांक्षा, भय, लोभ, ईष्र्या, मृत्यु के संबंध में बहुत सी बातें करते हैं। अगर आप देखें तो, अगर आप इनके भीतर तक जाएं तो, यदि आप ध्यानपूर्वक सुने तो ये सारी बातें एक ऐसे मन को खड़ा करने का आधार हैं जो ध्यान में सक्षम हो। आप ध्यान के शब्द से खेल सकते हैं - ध्यान नहीं कर सकते यदि आप महत्वाकांक्षी हों। यदि आपका मन प्रभुत्व का आकांक्षी है, संस्कारों में बंधा है, स्वीकार और अनुसरण में लगा है तो आप ध्यान की खूबसूरती का अतिरेक नहीं देख सकतेे।
समयबद्ध रूप से इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिशें, मन की निश्छलता को, निस्वार्थ भाव को खत्म करती हैं। और आपको चाहिए एक निश्छल मन - एक खुला ह्दय, जो आकाश की तरह खाली हो। एक दिल जो बिना विचारे, निरूद्देश्य देना चाहता हो बिना किसी प्रतिफल की आशा के। क्षुद्रतम से लेकर जितना भी उसके पास हो उसे देने की त्वरितता, बिना किसी असमंजस, भले बुरे की परवाह बगैर, मानरहित..... किसी ऊंचाईयां की तलाश की कोशिश बगैर, बिना प्रसिद्धि की लालसा में। ऐसे उर्वर मन की भूमि पर ही शुभता फूलती फलती है। और ध्यान शुभता के पुष्प का खिलना ही है।