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10 Jan 2016

सब आप पर निर्भर है

हालांकि कम से कम कुछ लोग तो हमेशा ही होते हैं, जो मशाल जलाये रखते हैं. इतना ही काफी सबकुछ है.
हो सकता है, आप ही वो हों. सब आप पर निर्भर है.
At least there can be few who will keep the light burning. That is all. But that is up to you, Sirs.
~K 1.2.1968

19 Apr 2014

एक अलग तरह का मन

हर आदमी कश्मकश और बखेड़ों से भरी जिंदगी.. निरंतर भागदौड़ हड़बड़ी और संघर्ष में फंसा है. इस जिंदगी का मतलब समझने के लिए किसी को भी पहले तो इस पर बौद्धिक रूप से पकड़ बनानी होगी और उसके बाद इससे उपजी समझ को व्यवहार में लाना होगा. चूंकि विचार पहले आता है यह बहुत जरूरी है कि वह सत्य या मौलिक, हमारा जाना—समझा विचार हो.. इसलिए आपको किसी समस्या का सामना स्पष्ट विश्लेषित मन के साथ करना होगा, पूर्वाग्रह से रहित, दिखावटी कोशिश और अंधविश्वास से मुक्त होकर... एक ऐसे मन सहित जो जांच परख कर, चीजों की जड़ तक जाने की सुदृढ़ इच्छा रखता हो ना कि सतह पर ही झाग या फेन की तरह फैले रहने की....

A different mind
In the confusion and turmoil of life, in its continual bustle and conflict, every individual is caught. To understand the meaning of it, o
ne must first grapple with it intellectually and afterwards put one's intellectual theories into practice... And since thought comes first, it very necessary that it should be true thought. Therefore you must approach the problem with a clear synthetic mind, free from prejudice, vanity and superstition - a mind that is willing to probe to the real root of things and not merely to skim the surface.

J. Krishnamurti Early Works, circa 1930

12 Jul 2011

मानव का अस्तित्व क्यों हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है?


इमेज से http://www.google.co.in/imgres?imgurl=http://api.ning.com/files/J2e साभार 

मानव का अस्तित्व क्यों हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है?
आप इसलिए है क्योंकि आपके माता-पिता ने आपको जन्म दिया है, और आप भारत के ही नहीं, विश्व की सम्पूर्ण मानवता के शताब्दियों के विकास का परिणाम हैं। आप किसी असाधारण अनूठेपन से नहीं जनमें हैं बल्कि आपके साथ पंरपरा की पूरी पृष्ठभूमि है। आप हिन्दू या मुस्लिम हैं। आप पर्यावरण-वातावरण, खानपान, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेशों और आर्थिक दबावों से उपजे हैं। आप अनेकों शताब्दियों का, समय का, द्वंद्वों का, दर्दों का, खुशियों का और लगाव चाव का परिणाम हैं। आपमें से हर कोई जब यह कहता है कि वह एक आत्मा है, जब आप कहते हैं कि आप शुद्ध ब्राहम्ण हैं, तो आप केवल परंपरा का, किसी संकल्पना का, किसी संस्कृति, भारत की विरासत, भारत की सदियों से चली आ रही विरासत का ही अनुकरण कर रहे होते हैं।
प्रश्न है कि जीवन में आपका ध्येय क्या हो? तो पहले तो आपको अपनी पृष्ठभूमि को समझना होगा। यदि आप पंरपरा, संस्कृति को, समूचे परिदृश्य को नहीं समझते, तो आप अपनी पृष्ठभूमि से उपजे किसी आईडिये, मिथ्या अर्थ को मान लेंगें और उसे ही अपने जीवन का ध्येय कहने लगेंगे। माना कि आप हिन्दू हैं और हिन्दू संस्कृति में पले बढ़े हैं। तो आप हिन्दूवाद से उपजे किसी सिद्धांत या भावना को चुन लेंगे और उसे अपने जीवन का ध्येय बना लेंगे। लेकिन क्या आप किसी अन्य हिन्दू से अलग, पूरी तरह अलग तरह से सोच सकते हैं? यह जानने के लिए कि हमारे अंतर्तम की क्या संभावनाएं या हमारा अंतर्तम क्या गुहार लगा रहा है, क्या कह रहा है? यह जानने के लिए किसी व्यक्ति को इन सभी बाहरी दबावों से, बाहरी दशाओं से मुक्त होना ही होगा। यदि मैं किसी चीज की जड़ तक जाना चाहता हूं तो मुझे यह सब खरपतवार या व्यर्थ की चीजें हटानी होंगी जिसका मतलब है मुझे हिन्दू मुसलमान होने से हटना होगा और यहां भय भी नहीं होना चाहिए, ना ही कोई महत्वाकांक्षा, ना ही कोई चाह। तब मैं कहीं गहरे तक पैठ सकता हूं, और जान सकता हूं कि हकीकत में यथार्थ संभावनाजनक, या सार्थक क्या है। लेकिन इन सबको हटाये बिना मैं जीवन में सार्थक क्या है इसका अंदाजा नहीं लगा सकता। ऐसा करना मुझे केवल भ्रम और दार्शनिक अटकलबाजियों में ही ले जायेगा।

तो यह सब कैसे होगा?
पहले तो हमें सदियों से जमी धूल को हटाना होगा, जो कि बहुत आसान नहीं है। इसके लिए गहरी अन्र्तदृष्टि की जरूरत है। इसमें आपकी गहरी रूचि होनी चाहिए। संस्कारों का निर्मूलन, परंपराओं, अंधविश्वासों, सांस्कृतिक प्रभावों की धूल को हटाने के लिए खुद को... अपने आपको समझने की आवश्यकता होती है ना कि किताबों से या किसी शिक्षक से सीखने की... यही ध्यान है।
जब मन अपने आपको सारे अतीत की धूल से साफ कर लेता है, मुक्त कर लेता है.. तब आप अपने अस्तित्व की सार्थकता के बारे में बात कर सकते हैं। आपने यह प्रश्न किया है, तो अब इस पर आगे बढ़ें, तब तक लगे रहें जब कि यह ना जान लें -कि क्या कोई ऐसी किसी वास्तविक, मौलिक, अभ्रष्ट चीज है भी? यह ना कहें कि ”हां, वाकई ऐस कुछ है“ या ”ऐसा कुछ नहीं होता“। बस इस पर काम करना जारी रखें, तलाशने, पाने, जानने की कोशिश ना करें क्योंकि आप जान नहीं पायेंगे। एक ऐसा मन जो भ्रष्ट है वो उस चीज को कैसे जान सकता है जो कि शुद्ध है, भ्रष्ट नहीं है। क्या मन खुद को साफ शुद्ध कर सकता है? हां कर सकता है। और यदि मन अपने आपको शुद्ध साफ कर सकता है, तब आप देख सकते हैं, तब आप जान सकते हैं, पता लगा सकते हैं। मन का परिष्करण, शुद्धिकरण ध्यान है।

6 Jul 2010

मौत को महसूस कि‍ये बि‍ना, जि‍न्‍दगी क्‍या है ? इस सवाल का जवाब नही मि‍ल सकता



काम करने के दिन यहाँ पर इतने लोगों को देखना, कुछ अद्भुत सा लगता है। नहीं? पहली बार जब आप यहाँ मिले थे - शनिवार था- हमने चर्चा की थी कि प्रेम क्या है। यदि आप यहाँ थे तो शायद आपको याद होगा। हम सब लोग मिलकर-मेरा अभिप्राय है साथ साथ - इस पूरे मसले के संबंध में खोजबीन कर रहे हैं; यह अत्यंत जटिल है। यदि आप बुरा न मानें, तो आपको विचार करना है- केवल सहमत नहीं हो जाना है। इसे विचारने में आपको अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल पूरी ताकत से करना होगा। तो हम लोग एक साथ इस प्रश्न की छानबीन करने जा रहे हैं कि प्रेम क्या है - साथ-साथ आप और हम एक ही मार्ग पर साथ चल रहे हैं; आप वक्ता का केवल अनुमोदन नहीं कर रहे हैं और यह नहीं कह रहे हैं, ‘‘हाँ, सुनने में अच्छा लग रहा है’’ - उपनिषद का, गीता का भी यही कहना है इत्यादि, यह सब बकवास है।

सर्वप्रथम, अपने अनुभवों, निष्कर्षों, विचारों के सम्बंध में किसी बात को स्वीकार न करें - मेरी भी नहीं। मैं तो एक पथिक हँू, मेरा महत्व नहीं है। हम आप और मैं, मिलकर पता लगाने जा रहे हैं कि क्या स्पष्ट है, क्या स्पष्ट नहीं है। हम लोग मिलकर जाँच कर रहे हैं, सन्देह कर रहे हैं, वक्ता का क्या कहना है... उसे हम कतई भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। यह मार्गदर्शन, निर्देश या सहायता के लिए कोई भाषण नहीं है; यह तो अत्यधिक नादानी की बात होगी। उस तरह की सहायता तो हमें पीढ़ी दर पीढ़ी मिलती रही है और इसके बावजूद हम जहां थे, वहीं हैं। हम जैसे अभी हैं वहीं से आरंभ करना है, अतीत में हम कहां थे अथवा भविष्य में हम क्या होंगे उससे नहीं। अभी हम जैसे हैं भविष्य में भी वैसे ही होंगे। हमारा लोभ, हमारा द्वेष हमारी ईष्र्या, हमारा प्रबल अंधविश्वास, किसी को पूजने की हमारी कामना - अभी तो हम यही हैं।

इस प्रकार हम मिलकर एक बहुत लंबे पथ पर चल रहे हैं। इसके लिए ऊर्जा चाहिये और हम इस मसले पर गौर करने जा रहे हैं कि प्रेम क्या है। बहुत गहरी और सूक्ष्म छानबीन हम इस बारे में भी करें कि - ऊर्जा क्या है। आपकी प्रत्येक चेष्टा ऊर्जा पर आधारित है। अभी जब आप वक्ता केा सुन रहे हैं, आप अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। घर के निर्माण में, वृक्ष लगाने में, कोई भी मुद्रा बनाने में, बात करने में, इन सबको लिए ऊर्जा की आवश्यकता है। कौवे की काँव-काँव, सूर्योदय और सूर्यास्त; यह सब कुछ ऊर्जा है। जन्म लेते ही बच्चे का रोना ऊर्जा का ही अंग है। वायलिन बजाना, बोलना, विवाह करना, यौन क्रिया - धरती की हर बात में ऊर्जा आवश्यक है।

अतः हम पूछते हैं: ऊर्जा क्या है? यह है वैज्ञानिक प्रश्नों में से एक। वैज्ञानिक कहते हैं- ऊर्जा पदार्थ है। हो सकता है कि वह पदार्थ हो, पर उसके पहले, मूलभूत ऊर्जा क्या है? उसका उद्गम स्रोत क्या है? किसने इस ऊर्जा का सृजन किया? सावधान, यह नहीं कह दें कि ईश्वर ने.... और ऐसा कह कर चल दीजिए। ईश्वर को मैं नहीं मानता, वक्ता का कोई ईश्वर नहीं है। इतना स्पष्ट है न?
तो, ऊर्जा क्या है? हम पता लगा रहे हैं, वैज्ञानिकों के कथन को, हम स्वीकार नहीं कर रहे हैं। और यदि आप कर सकें तो जो कुछ भी प्राचीन लोगों ने कहा है, हम उस सब को त्याग दें- छोड़ दें उन्हें, राह के किनारे छोड़कर हम साथ-साथ आगे बढ़ें।

आपका मस्तिष्क, जो एक पदार्थ है, दस लाख वर्षों के एकत्रित अनुभवों का भण्डार है, और उस तमाम विकास का अर्थ है ऊर्जा। और मैं स्वयं से पूछ रहा हूं- आप स्वयं से पूछ रहे हैं, क्या कोई ऊर्जा है जो ज्ञान के क्षेत्र में अर्थात् विचार के क्षेत्र में चालित और आबद्ध नहीं है? क्या कोई ऐसी ऊर्जा है जो विचार की गतिविधि से परे है?

विचार आपको प्रबल ऊर्जा देता है-प्रत्येक सुबह नौ बजे आॅफिस जाने के लिए, पैसा अर्जित करने के लिए, ताकि आप बेहतर घर बना लें। अतीत के संबंध में विचार, भविष्य का विचार, वर्तमान की योजना बनाना, इस तरह विचार प्रचण्ड ऊर्जा  देता है। धनी बन जाने के लिए आप प्रबल अग्निशिखा के वेग की भांति कार्य करते हैं। विचार ऊर्जा उत्पन्न करता है। अतः अब हमें विचार के स्वरूप का ही गहराई से पता लगाना है।
विचार ने इस समाज को योजनाबद्ध किया है, इसने इस संसार को विभाजित कर दिया है - साम्यवादी, समाजवादी, जनतंत्रवादी, गणतंत्रवादी, थलसेना, जलसेना, वायुसेना - ना केवल देश से निकाल बाहर करना वरन् वध करना भी शासकों-सैनिकों का कार्य है। इस प्रकार हमारे जीवन में विचार बड़ा ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि विचार के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते। हर चीज विचार की प्रक्रिया में निहित है। तो विचारणा क्या है? आप पता लगाईए, मेरी बात ही नहीं सुनिए। वक्ता ने तो इस पर बहुत चर्चा की है, इसलिए उसकी किताबें नहीं देखिए। यह नहीं कहिए, यह सब मैं पहले सुन चुका हूं। यहां आप समस्त किताबों को, अब तक आपने जितनी सारी चीजें पढ़ी हैं, सबको भुला दीजिए। यह इसलिए कि इस पर प्रत्येक बार बिलकुल नये ढंग से हम गौर करें।

विचारणा या विचारना ज्ञान पर आधारित है। और हमने असीम ज्ञान एकत्र कर लिया हैः कैसे हम एक दूसरे को बेच डालें, एक दूसरे का शोषण किस प्रकार करें, ईश्वरों का और मन्दिरों का निर्माण कैसे करें आदि हम जानते हैं।

बिना अनुभव के ज्ञान नहीं हो सकता है। अनुभव - स्मृति के रूप में मस्तिष्क में संग्रहित ज्ञान - यही विचार का प्रारंभ है। अनुभव सदैव सीमित है, क्योंकि आप इसमें और-और जोड़ रहे हैं। इस प्रकार अनुभव सीमित है, ज्ञान सीमित है, स्मृति सीमित है। अतः विचार सीमित है। ईश्वर, जिन्हें विचारों ने निर्मित किया है- आपके ईश्वर, आपकी विचारणा सदैव सीमित रहेंगें। सीमितता से हम उद्गम की, ऊर्जा की खोज का प्रयास करते हैं - आप समझ रहे हैं न? हम उद्गम, सृष्टि का प्रारंभ खोजने की कोशिश करते हैं।
विचार ने भय का निर्माण किया। ठीक? आगे चलकर क्या होगा, क्या आप इससे भयभीत नहीं हैं? नौकरी कहीं खोे न दें? परीक्षा में असफल ना हो जाएं, सफलता की सीढ़ी पर शायद ऊपर न चढ़ पाएं? और आप भयभीत हैं कि आप अपनी कामनाओं की पूर्ति नहीं कर पाए, अकेले खड़े रह पाने में असमर्थ हैं, आप स्वयं में एक ताकत नहीं बन पाए। आप हमेशा किसी न किसी पर निर्भर रहते हैं, और यह बात प्रचण्ड भय उत्पन्न करती है।

हमारे नित्य जीवन का यही तथ्य है कि हम भयभीत लोग हैं और इसी से सुरक्षा चाहते हैं, इसी से भय उत्पन्न होता है। भय प्रेम को विनष्ट कर देता है। जहां भय है वहां प्रेम का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। भय स्वयं में ही एक प्रबल उर्जा है। प्रेम का भय से कोई संबंध ही नहीं है- वे एक दूसरे से पूर्णतया अलग हैं।
तो भय का उद्गम क्या है? इस सब पर प्रश्न करना ही जीवन्तता है। विचारणा ने भय उत्पन्न किया है। भविष्य, अतीत के संबंध में विचार, वातावरण से शीघ्रतापूर्वक समायोजित नहीं हो पाना, शायद कहीं कुछ हो न जाये, मेरी पत्नी कहीं मेरा परित्याग न कर दे अथवा कहीं उसकी मृत्यु ना हो जाए, तब मैं बिल्कुल अकेला रह जाऊंगा- मैं तब क्या करूंगा? मेरे अनेक बच्चे हैं; इसलिए किसी से पुनर्विवाह कर लेना बेहतर होगा, कम से कम वह मेरे बच्चों की देखभाल तो करेगी- ऐसे ही और विचार। यह है अतीत पर आधारित भविष्य के संबंध में विचारणा। इस प्रकार विचार और समय इसमें निहित है- भविष्य के सबंध में विचार, भविष्य अर्थात् आने वाला कल। वह विचारणा ही भय का कारण है। इस प्रकार समय और विचार भय के केन्द्रीय तत्व हैं।

तो जीवन के प्रधान तत्व हैं, समय और विचार। समय आन्तरिक और बाहरी दोनों है। भीतरी मैं यह हूं, मैं वह बनूंगा और बाहरी। और समय है विचार - ये दोनों ही गतियां हैं।
मृत्यु, पीड़ा, चिन्ता, दुख, एकाकीपन, हताशा - इन तमाम भयावह स्थितियों से मैं गुजरता हूं - क्या स्थान है इनका मेरे जीवन में? तमाम तीव्र पीड़ाओं से अपने जीवन में आदमी गुजरता है, बस यही है हमारी जिन्दगी? मैं पूछ रहा हूं: क्या आपकी जिन्दगी बस इतनी ही है?

यही है आपका जीवन। आपकी चेतना जिन अन्तर्वस्तुओं से निर्मित है, वे हैं आपकी सोच, आपकी परंपरा, आपकी शिक्षा, आपकी जानकारी, आपका भय, आपका अकेलापन। आप सावधानी से गौर करके देख लीजिए। यही हैं आप। आपकी व्यथा, आपका दर्द, आपकी चिन्ता, आपका अकेलापन, आपका ज्ञान- यह सब प्रत्येक मनुष्य की साझा अवस्था है। यह एक तथ्य है। पृथ्वी का हर आदमी, पीड़ा, कष्ट, चिन्ता, झगड़े, प्रलोभन, इसकी कामना, इसकी उपेक्षा आदि से गुजरता है। अतः आप एक व्यक्ति नहीं हैं। आप एक पृथक प्राण, एक प्रथक आत्मा नहीं हैं। आपकी चेतना वही है- शारीरिक रूप में ही नहीं, वरन मनोवैज्ञानिक रूप में - जो संपूर्ण मानवजाति की चेतना है।

हम पता लगाने की, छानबीन करने की कोशिश कर रहे हैं कि जीवन क्या है। हम कह रहे हैं कि जब तक किसी भी प्रकार का भय है, कोई भी दूसरी चीज अस्तित्व में नहीं आयेगी। अगर किसी भी प्रकार की आसक्ति है, दूसरा अस्तित्व में आयेगा ही नहीं और वह दूसरा है प्रेम। यानि किसी भी प्रकार की आसक्ति हो तो प्रेम असंभव है।

अतः हम गौर करने जा रहे हैं कि संसार क्या है, और मृत्यु क्या है। हम इनक पता लगा रहे हैं। हम सभी मृत्यु से इस कदर भयभीत क्यों हैं। आप जानते हैं मरने का क्या अर्थ है। क्या आपने दर्जनों लोगों को मरते, घायल होते नहीं देखा है? क्या कभी आपने गहराई से पता लगाया है कि मृत्यु क्या है? यह प्रश्न बड़ा ही महत्वपूर्ण है, उतना ही महत्वपूर्ण जितना कि यह प्रश्न कि जीवन क्या है? हम लोगों ने कहा कि जीवन है यही सब व्यर्थ की बातें-जानकारी, प्रतिदिन नौ बजे आफिस जाना आदि, विवाद, संघर्ष, इसको नहीं चाहना, उसकी कामना रखना। जीवन क्या है शायद हम जानते हैं, हमने गंभीरतापूर्वक कभी भी यह पता नहीं लगाया कि मरण क्या है?

क्या है मरण? निश्चित ही मृत्यु एक असाधारण चीज होनी चाहिए। प्रत्येक चीज आपसे ले ली जाती है: आपकी आसक्ति, आपका पैसा, आपकी पत्नी, आपके बच्चे, आपका देश, आपके अन्धविश्वास, आपके तमाम गुरू, आपके समस्त भगवान। आपकी यह कामना हो सकती है कि कि आप इन सभी को दूसरी दुनिया में लेते जाएं, पर आप ऐसा कर ही नहीं सकते। अतः मृत्यु कहती है: पूर्णतया अनासक्त हो जाएं। मृत्यु जब आती है तो ठीक यही होता - किसी भी व्यक्ति पर आप निर्भर नहीं रहते - कुछ भी नहीं रह जाता। फिर भी, आप शरीर धारण करेंगे, ऐसा आप विश्वास करते हैं। यह कल्पना बहुत ही आराम पहुंचाने वाली है, पर यह यथार्थ नहीं है।
हम लोग पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं, जीवित रहते हुए मरने का क्या अर्थ है - आत्महत्या कर लेना नहीं; उस तरह की मूर्खता के संबंध में मैं बात नहीं कर रहा। मृत्यु का क्या अर्थ है , मैं खुद ही पता लगाने की कोशिश कर रहा हूं। जिसका आशय है, क्या खुद अपने समेत आदमी ने जो कुछ भी निर्मित किया है - उस सब से आदमी पूरी तरह मुक्त हो सकता है?

मरने का अर्थ क्या है? प्रत्येक चीज का परितयाग। मृत्यु अत्यधिक तेज छुरे से काटकर आपको तमाम आसक्तियों से, आपके ईश्वर से, देवताओं से, अन्धविश्वासों से, आराम की कामना से, अगले जीवन आदि से बिलकुल अलग कर देती है। मैं पता लगाने जा रहा हूं कि मरण का अर्थ क्या है? क्योंकि यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि जीवन। तो हम किस प्रकार पता लगाएंगे, सचमुच में, सैद्धांतिक रूप में नहीं, क्या अर्थ है मरण का? मैं सचमुच पता लगाना चाहता हूं, वैसे ही जैसे आप पता लगाना चाहते हैं कि। मैं आपके लिए बोल रहा हूं, अतः सो मत जाइए। मरण का क्या अर्थ है? यह प्रश्न कीजिए अपने आप से। हम युवा हैं या अधिक वृद्ध यह प्रश्न सदैव कायम है। इसका अर्थ है पूरी तरह से मुक्त हो जाना, आदमी ने जो भी गढ़ा है उन सबों से पूरी तरह अनासक्त हो जाना। कोई आसक्ति नहीं, कोई भविष्य नहीं, कोई अतीत नहीं। जीवित रहते हुए मृत जो जाना - इसके सौन्दर्य को, इसकी श्रेष्ठता को, इसकी असाधारण शक्ति को आप नहीं देख रहे हैं। इसका अर्थ क्या है, आप समझ रहे हैं? आप जीवित हैं, लेकिन प्रत्येक क्षण आपका मरण हो रहा है और इस प्रकार पूरे जीवन में आप किसी भी चीज से आसक्त नहीं।  यही है अर्थ मरण का।
इस प्रकार का मरण है जीवन। आप समझ रहे हैं? जीवित होने का अर्थ है प्रत्येक दिन अपनी आसक्ति की प्रत्येक चीज का परित्याग करते जा रहे हैं। क्या आप यह कर सकते हैं? बड़ा ही स्पष्ट, सरल यथार्थ है, पर विस्मयकारी हैं इसके गूढ़ार्थ। इस प्रकार प्रत्येक दिन नया दिन है। प्रत्येक दिन आपकी मृत्यु हो रही है और आप पुर्नजीवित हो रहे हैं। इसमें विस्मयकारी ओजस्विता है, उर्जा है, क्योंकि आप अब किसी भी चीज से भयभीत नहीं हैं। ऐसी कोई भी चीज नहीं जो आपको आहत कर सके। आहत होने का अस्तित्व ही नहीं ।
आदमी ने जो कुछ भी गढ़ा है, उन सबों का पूर्णतया परित्याग करना होगा। यही है मरण का अर्थ। क्या आप ऐसा कर सकते हैं? क्या आप ऐसा प्रयास करेंगे? क्या आप इसक प्रयोग करेंगे? महज एक दिन नहीं, वरन प्रत्येक दिन। नहीं, श्रीमान, आप ऐसा नहीं कर पाएंगे, इसके लिए आपका मस्तिष्क प्रशिक्षित नहीं है, क्योंकि आपकी शिक्षा, आपकी परंपराओं, आपकी पुस्तकांे और आपके प्रोफेसरों द्वारा आपका मस्तिष्क गहराई से प्रशिक्षित है, गंभीर रूप से संस्कारित है। इसके लिए यह पता लगाना आवश्यक है कि प्रेम क्या हे। प्रेम और मरण बिलकुल साथ साथ कार्यशील हैं। मृत्यु कहती है, मुक्त हो जाओ, मुक्त हो जाओ आसक्ति से, आप अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकते। और प्रेम कहता है, प्रेम कहता है - इसके लिए कोई शब्द नहीं है। प्रेम का अस्तित्व मुक्त अवस्था में ही है। आपको पत्नी से, नयी लड़की से, अथवा नये पति से मुक्ति नहीं वरन विपुल शक्ति, ओजस्विता, पूर्ण मुक्ति की उर्जा की अनुभूति।

जे कृष्णमूर्ति  पुस्तक: अन्तिम वार्ताएं अध्याय: मद्रास वार्ता, 1 जनवरी, 1986 पृष्ठ: 129 से 135

16 Jun 2010

जिन्दगी का मतलब क्या है?


जिन्दगी का मतलब जीने में है। जब हम डरे हुए रहते हैं, या किसी के कहे मुताबिक चलते हैं, या हम किसी की नकल करते हुए जिन्दगी जीते हैं तो क्या इसे जीना कहेंगे? क्या तब जिन्दगी लीने लायक होती है? किसी प्रमाणित व्यक्ति के रूप में स्थापित व्यक्ति का पिछलग्गू बनना, क्या जिन्दगी जीना है? जब हम किसी के पिछलग्गू बने होते हैं, चाहे वे महान संत, राजनेता या विद्वान हो, तब क्या हम जी रहे होते हैं?
यदि आप ध्यानपूर्वक अपने तौर तरीकों को देखें तो आप पाएंगे कि आप किसी ना किसी के पद्चिन्हों पर चलने के अलावा कुछ अन्य नहीं कर रहे हैं। दूसरों के कदमों पर कदम रखते हुए चलने के सिलसिले को हम जीना कह देते हैं और इसके अंत में हम यह सवाल भी करते हैं कि जिन्दगी की अर्थवत्ता क्या है? लेकिन यह सब करते हुए जिन्दगी का कोई मतलब नहीं रह जाता है। जिन्दगी में अर्थवत्ता तब ही हो सकती है जब हम कई तरह की मान्यताओं और प्रमाणिकताओं को एक ओर रख दें, जो कि सरल नहीं है।
कुछ और वि‍स्‍तार से पढ़ें, इन लि‍न्‍क पर:
http://www.jkrishnamurtionline.org/index.php
http://www.jkrishnamurtionline.org/display_excerpts.php?eid=36

20 Feb 2010

कुछ भी समझने के लिए आपको उसके साथ जीना होगा



कुछ भी जानने समझने के लिए आपको उसके साथ जीना होगा, उसका अवलोकन करना ही होगा, आपको उसके सभी पहलू, उसकी सारी अंर्तवस्तु, उसकी प्रकृति, उसकी संरचना, उसकी गतिविधियां जाननी होंगी। क्या आपने कभी अपने ही साथ जीने की कोशिश की है? यदि कि है तो आपने यह देखना भी शुरू किया होगा कि आप एक स्थिर अवस्था में ही नहीं रहते, मानव जीवन एक ताजा और जिन्दा चीज है। और जिन्दा चीज के साथ रहने के लिए आपका मन भी उसी तरह ही ताजा और जिन्दा होना चाहिये। मन कभी भी जिन्दा नहीं रह सकता जब तक कि विचारों, फैसलों और मूल्यों में जकड़ा हुआ हो। अपने मन, दिलदिमाग की गतिविधियों, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के अवलोकन की दिशा में अनिवार्य रूप से आपके पास एक मुक्त मन होना चाहिये। वो मन नहीं - जो सहमत या असहमत होता हो, कोई पक्ष ले लेता हो और उन पर टीका टिप्पणियां या वाद विवाद करता हो, मात्र शब्दों के विवाद में ही उलझा रहता हो। बल्कि एक ऐसा मन हो जिसका ध्येय समझ-बूझ का अनुसरण करना हो क्योंकि हम में से अधिकतर लोग यह जानते ही नहीं कि हम अपने ही अस्तित्व की ओर कैसे देखें, कैसे उसे सुनें.... तो हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि हम किसी बहती नदी के सौन्दर्य को देख पायेंगे या पेड़ों के बीच से गुजरती हवा को सुन पायेंगे।
जब हम आलोचना करते हैं या किसी चीज के बारे में किसी तरह के फैसले करने लगते हैं तो हम उसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, ना ही उस समय जब हमारा दिल दिमाग बिना रूके बक-बक में ही लगा रहता है। तब हम ’‘जो है’’ उसका वास्तविक अवलोकन नहीं कर पाते, हम अपने बारे में अपने पूर्वाभास/पूर्वानुमान ही देख पाते हैं जो अपने बारे में स्वयं हमने ही बनाये हैं। हममें से प्रत्येक ने अपने बारे में एक छवि बना रखी है कि हम क्या सोचते हैं या हमें क्या होना है और यह छवि या चित्र ही हमें हम जो यथार्थ में हैं, हमारी वास्तविकता के दर्शनों से परे रखता है, बचाता है। किसी चीज को सहज रूप से जैसी वो है वैसी ही देखना, यह संसार में सर्वाधिक कठिन चीजों में से एक है। क्योंकि हमारे दिलदिमाग बहुत ही जटिल हैं, हमने सहजता का गुण खो दिया है। यहां मेरा आशय कपड़ों और भोजन, केवल एक लंगोट पहनकर काम चलाने या उपवास व्रतों का रिकार्ड तोड़ने वाले अपरिपक्व कार्यों और मूर्खताओं से नहीं है जिन्हें तथाकथित संतो ने सम्पन्न किया है, मेरा आशय है उस सहजता से जो किसी चीज को सीधे-सीधे वैसा ही देख पाती है बिना किसी भय के। वो सरलता जो हमारी ओर उस तरह देख सके जैसे कि वास्तव में हम हैं बिना किसी विक्षेप के - जब हम झूठे बोलें, तो झूठ कहे... उसे ढंके छुपाये नहीं ना ही उससे दूर भाग जाये। अपने को समझने के अनुक्रम में हमें अत्यंत विनम्रता की आवश्यकता भी है। जब आप यह कहते हुए शुरूआत करते हैं कि ‘मैं खुद को जानता हूं‘ आप अपने बारे में सीखने समझने को तुरन्त ही बन्द कर चुके होते हैं। या यदि आप कहते हैं कि ‘‘मेरे अपने बारे में जानने समझने लायक कुछ नहीं है क्योंकि मैं केवल स्मृतियों,संकल्पनाओं, अनुभवों और परंपराओं का एक गट्ठर मात्र हूं’’ तो भी आप अपने को सीखने समझने की प्रक्रिया को ठप्प कर चुके होते हैं।
उस क्षण जब आप कुछ उपलब्ध करते हैं तो आप अपनी सहजता, सरलता और विनम्रता के गुणों पर विराम लगा देते हैं। उस क्षण जब आप किसी निर्णय पर पहुंचते हैं या ज्ञान से जॉंचपरख की शुरूआत करते हैं तो आप खत्म हो चुके होते हैं, उसके बाद आप हर जिन्दा चीज का पुरानी चीजों के सन्दर्भ अनुवाद करना शुरू कर देते हैं।
जबकि यदि आप पैरों पर खड़े न हों, आपकी जमीन पर पकड़ ना हो, यदि कोई निश्चितता ना हो, कोई उपलब्धि ना हो तो देखने और उपलब्ध करने की आजादी होती है। और जब आप आजाद होकर देखना शुरू करते हैं तो जो भी होता है हमेशा नया होता है। आश्वस्त या आत्मविश्वास से भरा हुआ आदमी, एक मृत मनुष्य होता है।

18 Feb 2010

जीवन का लक्ष्य


अब यह कुछ ऐसी वास्तविकता है जिसे मैं निश्चित होकर कह सकता हूं कि मैंने उपलब्ध किया है। मेरे लिये, यह कोई सैद्धांतिक संकल्पना नहीं है। यह मेरे जीवन का अनुभव है,.... सुनिश्चित, वास्तविक और ठोस। इसलिए मैं इसकी उपलब्धि के लिए क्या आवश्यक है, यह कह सकता हूं। और मैं कहता हूं कि पहली चीज यह है कि हम जो है उसे वैसा का वैसा ही पहचाने यानि अपनी पूर्णता में कोई इच्छा क्या हो जायेगी, और तब प्रत्येक क्षण के अवलोकन में स्वयं को अनुशासित करें, जैसे कोई अपनी इच्छाओं को खुद ही देखे, और उन्हें उस अवैयक्तिक प्रेम की ओर निर्दिष्ट करे, जो कि उसकी स्वयं की निष्पत्ति हो। जब अप निरंतर जागरूकता का अनुशासन स्थापित कर लेते हैं। उन सब चीजों का जो आप सोचते हैं, महसूस करते हैं और करते है (अमल में लाते हैं) का निरंतर अवलोकन हम में से अधिकतर के जीवन में उपस्थित दमन, ऊब, भ्रम से मुक्त कर , अवसरों की श्रंखला ले आता है जो हमें संपूर्णता की ओर प्रशस्त करती है। तो जीवन का लक्ष्य कुछ ऐसा नहीं जो कि बहुत दूर हो, जो कि दूर कहीं भविष्य में उपलब्ध करना है अपितु पल पल की, प्रत्येक क्षण की वास्तविकता, हर पल का यथार्थ जानने में है जो अभी अपनी अनन्तता सहित हमारे सामने साक्षात ही है।

The goal of life

Now this reality is something which I assert that I have attained. For me, it is not a theological concept. It is my own life-experience, definite, real, concrete. I can, therefore, speak of what is necessary for its achievement, and I say that the first thing is the recognizing exactly what desire must become in order to fulfil oneself, and then to discipline oneself so that at every moment, one is watching one's own desires, and guiding them towards that all-inclusiveness of impersonal love which must be their true consummation. When you have established the discipline of this constant awareness, this constant watchfulness upon all that you think and feel and do, then life ceases to be the tyrannical, tedious, confusing thing that it is for most of us, and becomes but a series of opportunities towards that perfect fulfillment. The goal of life is, therefore, not something far off, to be attained in the distant future, but it is to be realised moment by moment in that now which is all eternity.

Early Works, circa 1930

15 Feb 2010

जिन्दगी बचपन, जवानी और बुढ़ापे के बंटवारे को नहीं जानती


उन पलों में, जब आप जिन्दगी को हिस्सों में बांट देते हैं और यह सोचते हैं कि इसका लक्ष्य अंततः कुछ, दूर भविष्य में पाना है, तो आप यथार्थ के मधुर आशय को खो देते हैं क्योंकि जिन्दगी का असली मजा यहीं इन्हीं पलों को जीने, इन्हीं पलों में जो हम कर रहे हैं उसमें है। जिन्दगी जवानी और बुढ़ापे के बंटवारे को नहीं जानती।

Life knows no division

Do not think that what I say applies to the young and not to the old, or vice-versa. I am emphasizing this because a friend of mine said the other day, "Why have you taken up this work? You are too young. You might still fall in love." As though spirituality were reserved for the aged and those with one foot in the grave. The moment you divide up life and think of its goal as something to be attained eventually in some distant future, the sweet purpose of this realisation is lost, because the eventuality of life is in the very movement of action. Life knows no division into young and old.

Early Works, circa 1930 Early Works, circa 1930

27 Jan 2010

आश्रम और समुदाय स्थापित करने का गोरखधंधा



श्रीमन प्रतिभा और गूढ़ता हमेशा ही आवरण में सहेजने चाहिये, क्योंकि इनको ज्यादा उघाड़ना केवल अन्धेपन का कारण ही बनता है। इसलिए मेरा यह मन्तव्य कभी भी नहीं रहता कि मैं लोगों को अन्धा करूं या अपनी प्रवीणता का प्रदर्शन करूं, यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण है। लेकिन जब कोई चीजों को बहुत ही साफ साफ देखता है तो वह उन्हें अपने से परे रखने में सहायता नहीं पाता। इन्हें ही आप प्रतिभा और गूढ़ता के रूप में सोचते हैं।  मेरे लिये, मैं जो भी कह रह हूं, वह प्रतिभापूर्ण नहीं है, ऐसा सहज निश्चित है। यह एक तथ्य है। एक और बात, आप चाहते हैं कि मैं एक आश्रम या समुदाय की स्थापित करूं। अब बतायें, क्यों? आप मुझसे ये क्यों चाहते हैं कि एक समुदाय की स्थापना करूं? आप कह रहे हैं कि वह एक सन्दर्भ या पहचान के रूप में कार्य करेगा, या वो कुछ एक सफल प्रयोग के रूप में रखा या दिखाया जा सकेगा... यही तो है सन्दर्भ या पहचान का तात्पर्य ...क्या ऐसा ही नहीं है? एक समुदाय जहां इसी तरह की सारी चीजें चलायी जायेंगी। यही है जो आप चाहते हैं। मैं नहीं चाहता कि किसी आश्रम या समुदाय की स्थापना हो, आप चाहते हैं। अब, आप क्यों इस तरह के समुदाय की मांग कर रहे हैं? मैं आपको बताता हूं कि क्यों? यह बहुत ही रूचिकर है, नहीं? आप ऐसा इसलिए चाहते हैं कि आप अन्य लोगों के साथ उससे जुड़ना चाहते हैं और एक समुदाय गढ़ना चाहते हैं, लेकिन आप अपने ही साथ एक समुदाय आरंभ करना नहीं चाहते, आप चाहते हैं कि कोई अन्य ऐसा करे, और जब कोई समुदाय की स्थापना कर दे तब आप उसे ज्वाइन कर लें। दूसरे शब्दों में श्रीमन आप अपना ही समुदाय आरंभ करने से घबराते हैं इसलिए एक सन्दर्भ रूप में कोई आश्रम या समुदाय चाहते हैं। यही है, आप चाहते हैं कि कोई आपको किसी तरह की जिम्मेदारी या दायित्व दे, संस्थापित करे और आप उसे प्रभुतापूर्वक सहेजे सम्हालें, चलायें। अन्य शब्दों में आप अपने आप में आत्मविश्वस्त नहीं हैं इसलिए आप चाहते हैं कि किसी समुदाय की स्थापना हो और आप उसे ज्वाइन कर लें। श्रीमन, आप जहां भी हैं आप वहीं एक समुदाय पा सकते हैं, लेकिन वह समुदाय आप तभी पा सकते हैं जब आपमें आत्मविश्वास हो। समस्या यह है कि आपमें आत्मविश्वास ही नहीं है। आपमें आत्मविश्वास क्यों नहीं है? मेरा आत्मविश्वास का अभिप्राय क्या है? एक व्यक्ति जो कोई परिणाम को उपलब्ध करना चाहता है, वह वो सब प्राप्त करता है जो वह पाना चाहता है। एक व्यापारी, एक वकील, एक पुलिसिया, जनरल ये लोग आत्मविश्वास से भरे हैं, आत्मविश्वास से पूर्ण होते हैं। लेकिन यहीं आप में आत्मविश्वास नहीं है क्यों? एक साधारण सा कारण है कि आपने प्रयोग नहीं किया है, आपने जो भी समझा है उसे व्यवहार में नहीं लायें हैं। जब आप इसे प्रयोग में लायेंगे तब आपके पास आत्मविश्वास होगा। दुनिया में कोई भी व्यक्ति आपको आत्मविश्वास नहीं दे सकता, न कोई किताब, ना कोई शिक्षक आपको आत्मविश्वास से नहीं भर सकते। प्रोत्साहन आत्मविश्वास नहीं होता। प्रोत्साहन अत्यंत सतही, बचकाना, अपरिपक्व चीज है। आत्मविश्वास आता है जब आप प्रयोग में उतरते हैं। जब आप राष्ट्रीयता से प्रयोग में उतरते हैं.. तो देखिये। बुद्धि तो बहुत ही छोटी सी चीज है, तो जब भी आप प्रयोग में हो, व्यावहारिक हों .... आपमें आत्मविश्वास होता है क्योंकि आपका मन तेज द्रुतगामी और लचीला होता है तब आप जहां भी होंगे वहीं आश्रम होगा, आप अपनेआप ही एक समुदाय की स्थापना कर सकेंगे। यह स्पष्ट है, क्या नहीं? आप किसी भी समुदाय से अधिक महत्वपूर्ण हैं। यदि आप किसी समुदाय की सदस्यता ग्रहण करें तो आप वही रहेंगे जो कि आप हैं - कोई आपका वरिष्ठ होगा, आपके लिए नियम कायदे कानून होंगे, अनुशासन होंगे, आप उस बेकार के समुदाय में वही कोई श्री राम या श्री राव होंगे। आप किसी समुदाय की आकांक्षा तभी करते हैं जब आप चाहते हैं कि आपको कोई निर्देशित करे, आपको बताये कि आपको क्या करना है। एक आदमी जो अपने आपको निर्देशित हुए देखना चाहता है वह अपनी आत्मविश्वासहीनता को जानता है। आप आत्मविश्वास पा सकते हैं पर आत्म विश्वास संबंधी बातें करके ही नहीं अपितु जब आप प्रयोग में उतरेंगे तब, आप कब कोशिश करेंगे श्रीमन। केवल आप ही हैं जो सन्दर्भ हो सकते हैं ना कि कोई समुदाय या आश्रम। और जब कोई समुदाय या आश्रम आपकी पहचान बने आप अपने आप को खो देते हैं। मुझे आशा करता हूं कि बहुत से लोग आपस में जुड़े और प्रयोग करें, आत्मविश्वास से भरें इसलिए इस कार्य में इकट्ठा आयें लेकिन वे लोग जो बाहर ही रहना चाहते हैं और कहते हैं "मैं सदस्यता ग्रहण करना चाहता हूं इसलिए आप कोई समुदाय क्यों नहीं स्थापित करते," यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण प्रश्न करने वाले हैं।


Why do you want me to found a community?

Question:
Instead of addressing heterogeneous crowds in many places and dazzling and confounding them with your brilliance and subtlety, why do you not start a community or colony and create a reference for your way of thinking? Are you afraid that this could never be done?
Krishnamurti:
Sir brilliance and subtlety should always be kept under cover, because too much exposure of brilliance only blinds. It is not my intention to blind or show cleverness, that is too stupid; but when one sees things very clearly, one cannot help setting them out very clearly. This you may think brilliant and subtle. To me, what I am saying is not brilliant: it is the obvious. That is one fact. The other is, you want me to found an ashram or a community. Now, why? Why do you want me to found a community? You say that it will act as a reference, that is, something which can be pointed out as a successful experiment. That is what a reference implies, does it not? - a community where all these things are being carried out. That is what you want. I do not want to found an ashram or a community, but you want it. Now, why do you want such a community? I will tell you why. It is very interesting, is it not? You want it because you would like to join with others and create a community, but you do not want to start a community with yourself; you want somebody else to do it, and when it is done you will join it. In other words, Sir, you are afraid of starting on your own, therefore you want a reference. That is, you want something which will give you authority of a kind that can be carried out. In other words, you yourself are not confident, and therefore you say, `Found a community and I will join it'. Sir, where you are you can found a community, but you can found that community only when you have confidence. The trouble is that you have no confidence. Why are you not confident? What do I mean by confidence? The man who wants to achieve a result, who gets what he wants, is full of confidence the business man, the lawyer, the policeman, the general, are all full of confidence. Now, here you have no confidence. Why? For the simple reason you have not experimented. The moment you experiment with this, you will have confidence. Nobody else can give you confidence; no book, no teacher can give you confidence. Encouragement is not confidence; encouragement is merely superficial, childish, immature. Confidence comes as you experiment; and when you experiment with nationalism, wit even the smallest thing, then as you experiment you will have confidence, because your mind will be swift, pliable; and then where you are there will be an ashram, you yourself will found the community. That is clear, is it not? You are more important than any community. If you join a community, you will be as you are - you will have somebody to boss you, you will have laws, regulations and discipline, you will be another Mr. Smith or Mr. Rao in that beastly community. You want a community only when you want to be directed, to be told what to do. A man who wants to be directed is aware of his lack of confidence in himself. You can have confidence, not by talking about self-confidence, but only when you experiment, when you try. Sir, the reference is you, so, experiment, wherever you are, a whatever level of thought. You are the only reference, not the community; and when the community becomes the reference, you are lost. I hope there will be lots of people joining together and experimenting, having full confidence and therefore coming together; but for you to sit outside and say, `Why don't you form a community for me to join?', is obviously a foolish question.

J. Krishnamurti The Collected Works, Vol. V
Look at the truth

27 Nov 2009

खोज की समाप्ति End of search



आपको इस नीरवता की अवस्था में आना ही चाहिए अन्यथा आप वास्तव में धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, इसी अमित मौन के पार वह है जो पवित्र पावन है।
धार्मिक मन वह मन है जो अज्ञात में प्रवेश कर चुका है, और आप अज्ञात में छलांग लगाकर नहीं आ सकते, आप सावधानीपूर्वक गणित बैठाकर अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकते...
आप यह जानना ही चाहिये कि सत्य क्या है? क्योंकि यही वह चीज है जो महत्वपूर्ण और अर्थवान है, यह नहीं कि आप अमीर हैं या गरीब, आप खुशहाली शादीशुदा जिन्दगी जी रहे हैं या आपके बच्चे है या नहीं, क्यों वह सब समाप्त हो जायेगा, वहां निश्चित ही मृत्यु है। तो किसी भी विश्वास या मान्यता के किसी भी रूप के बगैर आपको सच खोजना ही पड़ेगा।
धर्म भलमनसाहत का अहसास है, वह प्रेम जो नदी की तरह है, जीवन्त, नित्य प्रवाहमान। इसी अवस्था में एक ऐसा क्षण आता है जिसमें आप पाएंगे कि अब कोई खोज शेष नहीं रही, और इस खोज की समाप्ति में ही उसकी शुरूआत है जो सर्वथा अनूठा है।

उस गड्ढे से निकलिये जो आपने अपने लिये स्वयं खोदा है...

ईश्वर की खोज, सत्य की खोज, सम्पूर्ण रूप से भले हो जाने के अहसास की खोज धर्म है - ना कि अच्छाई, नम्रता आदि गढ़ना विकसित करना धर्म है। मन की खोजों और चालाकियों से परे, किसी अनाम का अहसास, उसमें जीना, वही आपका अस्तित्व होना - यही सच्चा धर्म है। लेकिन आप यह तभी कर सकते हैं जब आप उस गड्ढे से निकले जो आपने अपने लिये खोदा है और जीवन की नदी की तरफ बढ़ें, तब जीवन के पास आपको संभालने का अपना आश्चर्यजनक तरीका है, क्योंकि तब आप खुद की संभाल की जिम्मेदारी अपने पास नहीं रखते। जीवन अपनी इच्छा से आपको जहां चाहे वहां ले जाता है क्योंकि आप उसी का हिस्सा हैं, तब आपको सुरक्षा की समस्या नहीं रहती, तब आपको यह समस्या नहीं रहती कि कौन आपके बारे में क्या कहता है और क्या नहीं कहता, और यही जीवन का सौन्दर्य है।

26 Nov 2009

हमारा जीवन Our Life






प्रश्न # किसी बात की सम्पूर्णता देखने से क्या आशय है? क्या यह कभी संभव है कि हम किसी गतिमान चलायमान चीज की सम्पूर्णता को महसूस कर सकें?


क्या आप इस प्रश्न को समझ रहे हैं? यह एक अच्छा प्रश्न है? तो क्या हम और आप मिलकर इस प्रश्न को बूझने की कोशिश करें?

जैसा कि हमने पहले प्रश्न की खोजबीन में कहा कि हमारी चेतना की सम्पूर्णता, जो चेतना ‘‘मैं’’ के रूप में केन्द्रीकृत है, स्व आत्म के रूप में, अहंवादी गतिविधि में, स्वकेन्द्रित कार्यव्यवहार में चलाय मान है, जो हमारी चेतना की सम्पूर्णता है। ठीक? अब क्या हमे इसे पूरी तरह से देख सकते है? बिल्कुल, हम देख सकते हैं। क्या यह कठिन है? तो बात ये है कि किसी की भी चेतना से ही उसके सभी पक्ष बनते हैं। ठीक? तो यह स्पष्ट हुआ?


तो मेरी ईर्ष्‍या मेरी राष्ट्रीयता, मेरे विश्वास मान्यताएं, मेरे अनुभव और इत्यादि आदि, यही उसके पक्ष या तत्व हैं जिसे चेतना कहते हैं।

इसके मूल में मैं हूं, आत्म हूं। ठीक? तो इस बात को अब पूरी तरह से देखते हैं। क्या आप ऐसा कर सकते हैं? बिल्कुल, आप ऐसा कर सकते हैं। जिसका मतलब है कि उसे पूरी अवधानता या, होश से देखना।


पुनः हम कदाचित ही किसी बात पर पूरा ध्यान देते हैं। तो अब हम एक दूसरे से कह रहे हैं कि: इस पक्षों इन तत्वों पर पूर्ण ध्यान देते हुए देखें। इस आत्म पर, इस स्व या मैं पर जो कि इसका निचोड़ है, मूल है इसे अवधान पूर्वक देखें, तो आप सम्पूर्णत्व देख पायेंगे।

इसके साथ ही प्रश्नकर्ता ने यह भी कहा है कि, जो कि रूचिकर भी है कि क्या यह कभी संभव है कि किसी चलायमान चीज की सम्पूर्णता को जाना समझा, महसूस किया जा सकता है? तो क्या आपकी चेतना के तत्व चलायमान हैं? यह अपनी ही सीमाओं में चल रहे हैं।


देखिये, चेतना में क्या चलायमान है? मोह, जुड़ाव, किसी से न जुड़ने का भय, वह भय कि मैं किसी से न जुड़ा तो कया होगा? जो क्या है? अपनी ही परिधि में गतिविधि, अपने ही सीमित क्षेत्र में गतिमान रहना। जो आप देख ही रहे हैं, जिसका आप निरीक्षण कर रहे हैं। तो आप देख सकते हैं जो सीमित ही है। अगर हम इसमें और जरा गहरे जायें, तो चैंकियेगा मत। तो क्या हमारी चेतना ही अपने तत्वों के साथ जी रही है? क्या आप मेरे प्रश्न को समझे? क्या मेरे विचार, ख्याल ही जिन्दा हैं? आपकी मान्यताएं ही जी रही हैं? तो क्या जी रहा है? क्या आप इस सब को समझ बूझ रहे हैं? किसी ने अनुभव किया, खुशी, दुख, भला, बुरा, तथाकथित बुद्धत्व - आपके पास सत्य का अनुभव या बुद्धत्व का अनुभव नहीं है.... ये अप्रासंगिक है। तो क्या वह अनुभव है जो आप जी रहे हैं? या उस अनुभव की याद है जो आप जी रहे हैं? ठीक? तो याद, न कि तथ्य। तथ्य यथार्थ तो जा चुका है। लेकिन वो जो स्मृति की गतिविधि... यादों का चलना है उसे हम जीना कह रहे हैं। तो अनुभव जो चले गये हैं बीत चुके हैं, निश्चित ही वही याद किये जा रहे होते हैं, और इस याद करने को ही हम जिन्दगी जीना कह रहे हैं। यह आप देख सकते हैं, पर वो नहीं जो बीत ही चुका है। मुझे आश्चर्य होगा यदि आप यह देख पायें?

तो हम जिसे जीना कह रहे हैं वो, वो चीज है जो हो चुका है, जा चुका है। देखिये श्रीमन्, आप क्या कर रहे हैं। जो कि जा चुका है और मृत है, हमारा मन बहुत ही मरा हुआ है, और इस सब की यादों को हम जीवन कह रहे हैं। यह हमारे जीवन की त्रासदी है। मुझे वो दोस्त याद है जो मेरा हुआ करता था, जो चला गया है, भाई, बहन, पत्नी, स्‍वर्गवासी माँ, ये सब याद हैं। तो क्या यह यादें जो उनके चित्रों को देखने से मैं याद कर रहा हूं यही जीना है। क्या आप समझे श्रीमन्? और यही है जिसे हम जीना या जीवन कहते हैं।

QUESTION: What does it mean to see the totality of something?  Is it ever possible to perceive the totality of something which is moving?

You understand the question?  A good question?  Shall we do it together?

As we said in the previous question in going into it, to perceive the totality of our consciousness, that consciousness is centred as the 'me', the self, the egotistic activity, self-centred movement, which is the totality of our consciousness. 

Right?  Now can we see that completely?  Of course we can. Is that difficult?  That is, one's consciousness is made up of all its content.  Right?  Is that clear? 

That is, my jealousy, my nationality, my beliefs, my experiences and so on and so on and so on, that is the content of this thing called consciousness. 
The core of that is me, the self. Right?  To see this thing entirely now. Right, sir?  Can you do it?  Of course you can.  Which means giving complete attention to it. 
Again we rarely give complete attention to anything. Now we are asking each other: give complete attention to this content which is at the very core of the self.  The self, the 'me', is the essence of that, and give attention to it, and you see the whole, don't you?

Now the questioner says also, which is interesting, which is, is it ever possible to perceive the totality of something which is moving?  Is the self moving?  Is the content of your consciousness moving?  It is moving within the limits of itself.  Right sir?  Are you following all this?  Am I talking to myself?

Sir, look, what is moving in consciousness?  Attachment, the fear of not being attached, the fear of what might happen if I am not attached?  Which is what?  Moving within its own radius, within its own limited area.  That you can observe.  So you can observe that which is limited.  I want to go into this a little bit, don't be shocked.  Is our consciousness with its content living?  You understand my question?  Are my ideas living?  Your belief living? So what is living?  Are you following this?  One has an experience, pleasant, unpleasant, noble, ignoble, so-called enlightened - you cannot have experience of truth, of enlightenment - that's irrelevant.  So is the experience that you have had living?  Or the remembrance of that experience is living?  Right?  The remembrance, not the fact.  The fact has gone.  But the movement of remembrance is called what is living.  You follow?  Come on, sirs, move.  So the experience, which has gone, of course, that is remembered, that remembrance is called living.  That you can watch, but not that which is gone.  I wonder if you see this?
So what we call living is that which has happened and gone.  See, sir, what you are doing.  That which has gone and dead, our minds are so dead, and the remembrance of all that is called living.  That is the tragedy of our life.  I remember the friends we have had, they have gone, the brothers, the sisters, the wives that are dead, the mothers, I remember.  The remembrance is identified with the photograph and the constant looking at it, remembering it, is the living.  You understand, sir?  And that is what we call living.