एक धार्मिक व्यक्ति वो व्यक्ति नहीं जो भगवान को ढूंढ रहा है। धार्मिक आदमी समाज के रूपांतरण से संबद्ध है, जो कि वह स्वयं है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं जो असंख्य रीति रिवाजों - परंपराओं को मानता/करता है। अतीत की संस्कृति, मुर्दा चीजों में जिंदा रहता है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं है जो निर्बाध रूप से बिना किसी अंत के गीता या बाईबिल की व्याख्या में लगा हुआ है, या निर्बाध रूप से जप कर रहा है, सन्यास धारण कर रखा है - ये सारे तो वो व्यक्ति हैं जो तथ्य से पलायन कर रहे हैं, भाग रहे हैं। धार्मिक आदमी का संबंध कुल जमा, संपूर्ण रूप से समाज को जो कि वह स्वयं ही है, को समझने वाले व्यक्ति से है। वह समाज से अलग नहीं है। खुद के पूरी तरह, संपूर्ण रूप से रूपांतरण अर्थात् लोभ-अभिलाषाओं, ईष्र्या, महत्वाकांक्षाओं के अवसान द्वारा आमूल-रूपांतरण और इसलिए वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं, यद्यपि वह स्वयं परिस्थितियों का परिणाम है - अर्थात् जो भोजन वह खाता है, जो किताबें वह पढ़ता है, जो फिल्में वह देखने जाता है, जिन धार्मिक प्रपंचों, विश्वासों, रिवाजों और इस तरह के सभी गोरखधंधों में वह लगा है। वह जिम्मेदार है, और क्योंकि वह जिम्मेदार है इसलिए धार्मिक व्यक्ति स्वयं को अनिवार्यतः समझता है, कि वो समाज का उत्पाद है समाज की पैदाईश है जिस समाज को उसने स्वयं बनाया है।इसलिए अगर यथार्थ को खोजना है तो उसे यहीं से शुरू करना होगा। किसी मंदिर में नहीं, किसी छवि से बंधकर नहीं चाहे वो छवि हाथों से गढ़ी हो या दिमाग से। अन्यथा कैसे वह कुछ खोज सकता है जो संूपर्णतः नया है, यथार्थतः एक नयी अवस्था है.
क्या हम खुद में धार्मिक मन की खोज कर सकते हैं। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में वास्तव में वैज्ञानिक होता है। वह अपनी राष्ट्रीयता, अपने भयों डर, अपनी उपलब्धियों से गर्वोन्नत, महत्वाकांक्षाओं और स्थानिक जरूरतों के कारण वैज्ञानिक नहीं होता। प्रयोगशाला में वह केवल खोज कर रहा होता है। पर प्रयोगशाला के बाहर वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही होता है अपनी पूर्वअवधारणाओं, महत्वाकांक्षाओं, राष्ट्रीयता, घमंड, ईष्र्याओं और इसी तरह की अन्य बातों सहित। इस तरह के मन की पहुंच ‘धार्मिक मन’ तक कभी नहीं होती। धार्मिक मन किसी प्रभुत्व केन्द्र से संचालित नहीं होता, चाहे उसने पारंपरिक रूप से ज्ञान संचित कर रखा हो, या वह अनुभव हो (जो कि सच में परंपराओं की निरंतरता, शर्तों की निरंतरता ही है।) पंरपरा यानि शर्त, आदत।
धार्मिक सोच, समय के नियमों के मुताबिक नहीं होती, त्वरित परिणाम, त्वरित दुरूस्ती सुधराव सुधार समाज के ढर्रों के भीतर। धार्मिक मन रीति रिवाजी मन नहीं होता वह किसी चर्च-मंदिर-मस्जिद-गं्रथ, किसी समूह, किसी सोच के ढर्रे का अनुगमन नहीं करता।धार्मिक मन वह मन है जो अज्ञात में प्रवेश करता है और आप अज्ञात में नहीं जा सकते, छलांग लगा कर भी नहीं। आप पूरी तरह हिसाब लगाकर बड़ी सावधानीपूर्वक अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकते। धार्मिक मन ही वास्तव में क्रांतिकारी मन होता है, और क्रांतिकारी मन ‘जो है’ उसकी प्रतिक्रिया नहीं होता। धार्मिक मन वास्तव में विस्फोटक ही है, सृजन है। और यहां शब्द ‘सृजन’ उस सृजन की तरह न लें जिस तरह कविता, सजावट, भवन या वास्तुशिल्प, संगीत, काव्य या इस तरह की चीजें। ये सृजन की एक अवस्था में ही हैं।
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29 Dec 2008
इस दुनियां में क्या हो रहा है? आपका ईश्वर ईसाई है, हिन्दू है, मुसलमान है। सबकी अपनी अपनी कल्पना के हिसाब से ईश्वर है और उसमें भी छोटे से छोटे अन्तर विशेष से सत्य का आग्रह करते हुए। कुछ लोगों के हाथों में ये विशेष सत्य शोषण का माध्यम, धर्म की दुकान बन जाता है। आप बारी बारी से हर दुकान पर जाते हैं, सब जांचते हैं, क्योंकि आप भला-बुरा देखने की समझ खोने के कगार पर हैं। क्योंकि आप बीमार हैं और आप इलाज चाहते हैं और आप किसी भी दुकान द्वारा पेश किये गये इलाज को स्वीकार करने के लिए खुद को मजबूर पा रहे हैं वो हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई या और कोई। तो होता ये है कि आपका भगवान आप लोगों को बांट देता है, आपका ईश्वर में विश्वास आपको इंसानों-इंसानो में बांट दे रहा है कुछ आदमी हिन्दू, कुछ ईसाई, कुछ सिख। इसके बावजूद आप ईश्वर के नाम पर भाईचारे की बात करते हैं मुसलमान मुसलमान एक अल्लाह के बंदे हैं हिन्दुओं, ईसाइयों, पारसियों का क्या? आप जो खोजने चलें हैं आप शुरू में ही उससे इंकार कर देते हैं, क्यांेकि आप अपने विश्वासों से बंधे हुए हैं, विश्वासों की सूली पर टंगे हुए हैं क्योंकि आप मानते हैं कि विश्वास सीमाओं को ढहाने वाला सशक्त जरिया है चाहे वो कहीं भी हो आप उसी पर जोर देते हैं। यही बातें सब तरफ देखी जा रही हैं।
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धर्म, जैसा की हम सामान्य तौर पर जानते हैं या मानते हैं, मतों - मान्यताओं, रीति रिवाजों परंपराओं, अंधविश्वासों, आदर्शों के पूजन की एक श्रंखला है। आपको आपके हिसाब से तय अंतिम सत्य को ले जाने के लिए मार्गदर्शक गुरूओं के आकर्षण। अंतिम सत्य आपका प्रक्षेपण है, जो कि आप चाहते हैं, जो आपको खुश करता है, जो आपको मृत्यु रहित अवस्था की निश्चितता देता है। तो इन सभी में जकड़ा मन एक धर्म को जन्म देता है, मत-सिद्धांतों का धर्म, पुजारियों द्वारा बनाया गया धर्म, अंधविश्वासों और आदर्शों की पूजा। इन सबमें मन जकड़ जाता है, दिमाग जड़ हो जाता है। क्या यही धर्म है? क्या धर्म केवल विश्वासों की बात है, क्या अन्य लोगों के अनुभवों, ज्ञान, निश्चयों का संग्रह धर्म है? या धर्म केवल नैतिकता भलमनसाहत का अनुसरण करना है? आप जानते हैं कि नैतिकता भलमनसाहत, आचरण से तुलनात्मक रूप से सरल है। आचरण में करना आ जाता है ये करें या न करें, चालाकी आ जाती है। क्योंकि आचरण सरल है इसलिए आप आसानी से एक आचरण पद्धति का अनुसरण कर सकते हैं। नैतिकता के पीछे घात लगाये बैठा स्वार्थ अहं पुष्ट होता रहता है, बढ़ता रहता है, खूंखार रूप से दमन करता हुआ, अपना विस्तार करता रहता है। तो क्या यह धर्म है।
आपको ही खोजना होगा कि सत्य क्या है क्योंकि यही बात है जो महत्व की है। आप अमीर हैं या गरीब, आप खुशहाल वैवाहिक जीवन बिता रहें हैं और आपके बच्चे हैं, ये सब बातें अपने अंजाम पर पहुंचती है, जहां हमेशा मृत्यु हैं। तो विश्वास, अपने मत के किसी भी रूप, पूर्वाग्रह रहित होकर आपको सत्य को जानना होगा। आपको खुद अपने लिए ओज और तेज सहित, खुद पर अवलम्बित हो पहल करनी होगी कि सत्य क्या है?, भगवान क्या है?। मत और आपका विश्वास आपको कुछ नहीं देगा, विश्वास केवल भ्रष्ट करता है, जकड़ता है, अंधेरे में ले जाता है। खुद ही ओज और तेज सहित उठ पहल करने पर ही आत्मनिर्भर, मुक्त हुआ जा सकता है।
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धर्म, जैसा की हम सामान्य तौर पर जानते हैं या मानते हैं, मतों - मान्यताओं, रीति रिवाजों परंपराओं, अंधविश्वासों, आदर्शों के पूजन की एक श्रंखला है। आपको आपके हिसाब से तय अंतिम सत्य को ले जाने के लिए मार्गदर्शक गुरूओं के आकर्षण। अंतिम सत्य आपका प्रक्षेपण है, जो कि आप चाहते हैं, जो आपको खुश करता है, जो आपको मृत्यु रहित अवस्था की निश्चितता देता है। तो इन सभी में जकड़ा मन एक धर्म को जन्म देता है, मत-सिद्धांतों का धर्म, पुजारियों द्वारा बनाया गया धर्म, अंधविश्वासों और आदर्शों की पूजा। इन सबमें मन जकड़ जाता है, दिमाग जड़ हो जाता है। क्या यही धर्म है? क्या धर्म केवल विश्वासों की बात है, क्या अन्य लोगों के अनुभवों, ज्ञान, निश्चयों का संग्रह धर्म है? या धर्म केवल नैतिकता भलमनसाहत का अनुसरण करना है? आप जानते हैं कि नैतिकता भलमनसाहत, आचरण से तुलनात्मक रूप से सरल है। आचरण में करना आ जाता है ये करें या न करें, चालाकी आ जाती है। क्योंकि आचरण सरल है इसलिए आप आसानी से एक आचरण पद्धति का अनुसरण कर सकते हैं। नैतिकता के पीछे घात लगाये बैठा स्वार्थ अहं पुष्ट होता रहता है, बढ़ता रहता है, खूंखार रूप से दमन करता हुआ, अपना विस्तार करता रहता है। तो क्या यह धर्म है।
आपको ही खोजना होगा कि सत्य क्या है क्योंकि यही बात है जो महत्व की है। आप अमीर हैं या गरीब, आप खुशहाल वैवाहिक जीवन बिता रहें हैं और आपके बच्चे हैं, ये सब बातें अपने अंजाम पर पहुंचती है, जहां हमेशा मृत्यु हैं। तो विश्वास, अपने मत के किसी भी रूप, पूर्वाग्रह रहित होकर आपको सत्य को जानना होगा। आपको खुद अपने लिए ओज और तेज सहित, खुद पर अवलम्बित हो पहल करनी होगी कि सत्य क्या है?, भगवान क्या है?। मत और आपका विश्वास आपको कुछ नहीं देगा, विश्वास केवल भ्रष्ट करता है, जकड़ता है, अंधेरे में ले जाता है। खुद ही ओज और तेज सहित उठ पहल करने पर ही आत्मनिर्भर, मुक्त हुआ जा सकता है।
क्या आप जानते हैं धर्म क्या है? जप तप में, पूजा में या ऐसे ही अन्य रीति-रिवाजों में धर्म नहीं। यह धातु या पत्थर की मूर्तियों की पूजा में भी नहीं, न ही मंदिरों या मस्जिदों या चर्चों में है। यह बाइबिल या गीता पढ़ने या दिव्य/पवित्र कहे जाने वाले नामों को तकिया कलाम बना लेने में भी नहीं है, यह आदमी के अन्य अंधविश्वासों में भी नहीं है। ये सब धर्म नहीं।
धर्म अच्छाई, भलाई, शुभता का अहसास है। प्रेम है जो जीती जागती, भागती दौड़ती नदी की तरह अनन्त सा बह रहा है। इस अवस्था में आप पातें हैं कि एक क्षण ऐसा है जब कोई किसी तरह की खोज बाकी नहीं रही; और खोज का अन्त ही किसी पूर्णतः समग्रतः भिन्न का आरंभ है। ईश्वर, सत्य की खोज, पूरी तरह अच्छा बनना, दयालु बनने की कोशिश, धर्म नहीं। मन की ढंपी-छुपी कूट चालाकियों से परे - किसी संभावना का अहसास, उस अहसास में जीना, वही हो जाना यह असली धर्म है। पर यही तभी संभव है जब आप उस गड्ढे को पूर दें जिसमें आपका ‘अपनापन, अहंकार, आपका ‘कुछ’ भी होना रहता है। इस गड्ढे से बाहर निकल जिंदगी की नदी में उतर जाना धर्म है। जहां जीवन का आपको संभाल लेने का अपना ही विस्मयकारी अंदाज है, क्योंकि आपकी ओर से, आपके मन की ओर से कोई सुरक्षा या संभाल नहीं रही। जीवन जहां चाहे आपको ले चलता है क्योंकि आप उसका खुद का हिस्सा हैं। तब ही सुरक्षा की समस्या का अंत हो जाता है इस बात का भी कि लोग क्या कहेंगे, क्या नहीं कहेंगे और यह जीवन की खूबसूरती है।
धर्म अच्छाई, भलाई, शुभता का अहसास है। प्रेम है जो जीती जागती, भागती दौड़ती नदी की तरह अनन्त सा बह रहा है। इस अवस्था में आप पातें हैं कि एक क्षण ऐसा है जब कोई किसी तरह की खोज बाकी नहीं रही; और खोज का अन्त ही किसी पूर्णतः समग्रतः भिन्न का आरंभ है। ईश्वर, सत्य की खोज, पूरी तरह अच्छा बनना, दयालु बनने की कोशिश, धर्म नहीं। मन की ढंपी-छुपी कूट चालाकियों से परे - किसी संभावना का अहसास, उस अहसास में जीना, वही हो जाना यह असली धर्म है। पर यही तभी संभव है जब आप उस गड्ढे को पूर दें जिसमें आपका ‘अपनापन, अहंकार, आपका ‘कुछ’ भी होना रहता है। इस गड्ढे से बाहर निकल जिंदगी की नदी में उतर जाना धर्म है। जहां जीवन का आपको संभाल लेने का अपना ही विस्मयकारी अंदाज है, क्योंकि आपकी ओर से, आपके मन की ओर से कोई सुरक्षा या संभाल नहीं रही। जीवन जहां चाहे आपको ले चलता है क्योंकि आप उसका खुद का हिस्सा हैं। तब ही सुरक्षा की समस्या का अंत हो जाता है इस बात का भी कि लोग क्या कहेंगे, क्या नहीं कहेंगे और यह जीवन की खूबसूरती है।
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