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2 Sept 2011

कोई दुख है, यानि‍ अहं भी है।


चेतना की परिधि में की गई कोई भी प्रगति मात्र आत्म विकास है और आत्म विकास का अर्थ है दुख के मार्ग पर ही बढ़ते जाना, उसका अंत करना नहीं। यदि आप इसे ध्यानपूर्वक देखें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी। यदि मन का वास्ता सम्पूर्ण दुख से मुक्त होने से है तो फिर मन को करना क्या होगा? पता नहीं आपने कभी इस समस्या पर विचार किया है या नहीं, परन्तु कृपया इस पर अब विचार कर लें।

हम दुख उठाते हैं, हैं न? हम केवल शारीरिक बीमारियों और अस्वस्थता से ही दुखी नहीं रहते, बल्कि अपने अकेलेपन और आंतरिक गरीबी के कारण भी दुखी रहते हैं। हम दुखी रहते हैं क्योंकि हमें कोई प्रेम नहीं करता। जब हम किसी को प्रेम करते हैं और जवाब में प्रेम नहीं मिलता तो हम दुखी हो जाते हें। हर तरह से, सोचने का अर्थ ही है, दुख से भर जाना। अतः हमें लगता है कि सोचने का क्या लाभ? इसलिए हम किसी विश्वास को थाम लेते हैं, और फिर उसी से बंधकर रह जाते हैं, उसी को हम धर्म कह देते हैं। यदि मन देख पाए कि क्रमशः प्रगति व आत्म-सुधार द्वारा दुख का अंत संभव नहीं है, तो फिर मन करे क्या? क्या मन इस चेतना के पार जा सकता है, तरह तरह की इन व्यग्रताओं और विरोधाभासी इच्छाओं के पार? और क्या उस पार जाने में समय समय लगेगा? कृपया इसे समझिये, केवल शाब्दिक रूप से नहीं, बल्कि वस्तुतः, वास्तविक रूप में। यदि यह समय का मामला है तो आप पुनः उस घेरे में आ जाते हैं जिसे प्रगति कहते हैं। क्या आप यह देख पा रहे हैं? चेतना की परिधि में, किसी भी दिशा में उठाया गया कदम आत्मविकास ही होता है? और इसलिए वहां दुख की निरंतरता बनी रहती है। दुख को नियंत्रित व अनुशासित किया जा सकता है, उसका दमन किया जा सकता है, उसे युक्तिसंगत तथा अत्यंत परिष्कृत बनाया जा सकता है, परन्तु दुख की अन्र्तनिहित प्रबलता तब भी बनी रहती है। और दुख से मुक्त होने के लिए, उसकी इस प्रबलता से, इसके बीज मैं से, अहं से, कुछ बनने होने के इस सम्पूर्ण प्रक्रम से मुक्त होना ही होगा। पार जाने के लिए इस प्रक्रिया पर विराम लगना आवश्यक है।


अभिमान-स्वाभिमान, मैं, अहं, इगो, घमण्ड, होमी, आत्म, स्व आदि शब्द पर्यायवाची हैं। बचपन, जवानी हो या बुढ़ापा, जब कभी भी, जिस भी उम्र में हम अपने बारे में सोचने-समझने लगते हैं, तो उम्र के साथ ही हम चाहे-अनचाहे अपना व्यक्तित्व बनाने लगते हैं। विभिन्न तत्वों को जोड-घटा कर, उनका सामंजस्य कर, हम अपने ”व्यक्ति” को गढ़ने लगते हैं। व्यक्ति अपनी रूचि अरूचि अनुसार, विभिन्न तरह के लक्षण अपना लेता है। व्यक्तित्व के लिए अंग्रेजी में शब्द है ”पर्सोनेलिटी“, इसमें पर्सोना शब्द का हिन्दी अर्थ होता है मुखौटा। हम अपना एक ऐसा मुखौटा गढ़ते हैं, जैसा कि हम समाज को दिखना चाहते हैं। इसी तरह, हम खुद-स्वयं के लिए और विभिन्न संबंधों के लिए भी अलग-अलग या विभिन्न चीजों को जोड़कर मुखौटे बनाते हैं। समाज हमें और हम समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इन्हीं मुखौटों की सच्ची झूठी हकीकतों से पहचानते हैं। समाज में इसे किसी व्यक्ति के लक्षणों के रूप में जाना जाता है और तद्नुसार भला-बुरा, नगण्य, घमंडी-गंदा, बुद्धिजीवी, स्वार्थी आदि की सामान्य प्रतिक्रियाएं देता है, विशिष्ट लक्षणों को विशिष्ट मान्यताएं देता है। लेकिन किसी भी मुखौटे को गढ़ना यानि अहं को गढ़ना है। अपने मूल अस्तित्व से भिन्न एक कृत्रिम चीज गढ़ना है।

आत्म विकास का अर्थ अहं का विकास ही है। हम अपने बारे में जो भी भला-बुरा सोचकर, योजना बनाकर, जानबूझकर जो आदर्शों के लक्ष्य स्थापित कर प्रगति की सीढि़यां बनाते हैं, इनसे हम दुख के मार्ग पर ही चलते हैं। क्योंकि तय करके चलेंगे तो राह में कई रोढ़े आयेंगे, तकलीफें मिलेंगी, दुख होगा

इतना सोच-समझकर चलने पर भी दुख खत्म नहीं होता, तो हम अपनी विवेक-विचार क्षमता को ही निकम्मा जानकर, सोचने-समझने को एक तरफ रख देते हैं और किसी विश्वास को पकड़ लेते हैं। किसी किताब, गुरू या किसी पुरानी से पुरानी सिद्ध चीज के पीछे लग जाते हैं और उसमें लिखे की नकल करने लग जातें हैं, उनकी बातों का अंधानुकरण करने लग जाते हैं। लेकिन यह सब भी हम अपने व्यक्तित्व को, अहं को पुष्ट करने के एक तरीके की ही तरह करते हैं। इसमें भी कोई लक्ष्य या आदर्श और फिर उस पर आगे बढ़ने की रास्ते और सीढि़यां होती हैं, इन पर भी दुख रहता ही है।

कोई दुख है, इसका मतलब है कि हमारे मौलिक वास्तविक अस्तित्व के अतिरिक्त भी, एक इच्छा या चाह है और हम उसे पूरा करना चाह रहे हैं... वह पूरी नहीं होती और दुख होता है। हम अपनी वास्तविकता से इतर विचारों से एक कृत्रिम व्यक्तित्व या आदर्श या लक्ष्य गढ़ते हैं, जो कि असलीयत में अहं होता है। इस लक्ष्य की राह पर चलने से ही दुख होता है। अपने मूल स्वरूप, वास्तविक अस्तित्व के अतिरिक्त खुद को किसी भी अन्य कृत्रिम रूप में जानने, पहचानने, उसके बारे में विचार करने में ही दुख का बीज छिपा है। जब हमारे विचार, अपने बारे में कोई कृत्रिम छवि गढ़ते हैं तो हम दुख का बीज बोते हैं। जब हम अपनी छवि को पालते-पोसते हैं तो दुख को पालते-पोसते हैं, बढ़ा करते हैं।

इसी कुछ होने-बनने की चाह और तद्नुसार कोशिश करने और इसमें होने वाले दुख के कुचक्र से निकलने के लिए, हम क्या कर सकते हैं? अपनी चेतना के इस आयाम से पार होने के लिए, हम क्या कर सकते हैं?
आत्म विकास, अहं का विकास करने, आदर्श, लक्ष्य बनाकर चलने, दुनियां के हिसाब से चलने की कोशिश में हम दुख से निजात नहीं पा सकते... इससे तो किसी ना किसी तरह का दुख मिलेगा ही। हम जैसे कुदरती हैं, मौलिक रूप से हैं...वैसे ही रहें। किसी चीज को कल्पना, विचार, सिद्धांत या शाब्दिक रूप से समझने की बजाय, उसका साक्षात अवलोकन करें तो ही उसका यथार्थ समझ आ सकता है। यदि कोई दुख से मुक्त होना चाहता है, तो उसे अहं को बनाने वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया से वाकिफ होना होगा, इस अहं निर्माण की प्रक्रिया पर रोक लगानी होगी। अपने अस्तित्व की वास्तविकता में रहना होगा।

दुख, अवसाद, अहं, अभि‍मान, स्‍वाभि‍मान, व्‍यक्‍ि‍त, व्‍यक्‍ि‍तत्‍व, घमंड, इगो, Ego, Sorrow, Ending of sorrow, J Krishnamurthy, I, Self, Self Development, Personality, Persona

24 Feb 2011

विकर्षित अवलोकन


जब आप किसी चीज को नाम देते हैं, तो आपके नामकरण की यह क्रिया, यह शब्द आपको अवलोकन से विकर्षित करता है, भटकाता है, आपके अवलोकन को दोषपूर्ण बनाता है। जब आप शब्द ‘बरगद’ का प्रयोग करते हैं, तो आप किसी वृक्ष को उस शब्द के माध्यम से देखते हैं, ना कि उस वृक्ष की वास्तविकता को। आप उस वृक्ष को उस छवि के माध्यम से देखते हैं जो आपने उस वृक्ष के बारे में बनाई हुई है,तो यह छवि, दृष्टि को बाधित करती है। इसी तरह यदि आप अपने को ही देखने की कोशिश करें, बिना अपनी कोई छवि बनाये, तो यह बड़ा ही अजीब और गहरे में विक्षुब्ध करने वाला होता है। जब आप गुस्से में, जब ईष्र्या में हों, तो इन अहसासों को बिना किसी अच्छी या बुरी श्रेणी में रखे, बिना किसी अहसास का नामकरण किये देेखें। क्योंकि जब आप इस अहसास को किसी अच्छी या बुरी श्रेणी में डालते हैं, या इसे नाम देते हैं तो आप आप वर्तमान के किसी क्षण को अतीत की स्मृतियों के माध्यम से देखते हैं। मुझे नहीं पता आपको यह सब समझ में आ रहा है या नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी अहसास के वर्तमान में सामने आने पर, आप यथार्थतः किसी अहसास को ”जैसा वो है वैसा ना देखकर“, जब उसी तरह का कोई अन्य अहसास अतीत में पैदा हुआ था.... उस अहसास के बारे में अपनी इकट्ठा की गई स्मृतियों... उस अहसास के बारे में जो आपने जो कभी पढ़ा, सुना, लिखा, देखा है, उनके माध्यम से देखते हैं। साक्षात अवलोकन तब होता है, जब अवलोकन अतीत के माध्यम से नहीं हो रहा। इसी क्षण को इसी क्षण में देखा जा रहा हो।

Distraction from observation

When you name a thing, the very word acts as a distraction from observation. When you use the word 'cypress', you are looking at that tree through the word; so you are not actually looking at the tree. You are looking at that tree through the image that you have built up, and so the image prevents you from looking. In the same way, if you try to look at yourself without the image this is quite strange and deeply disturbing. To look when you are angry, when you are jealous, to look at that feeling without naming it, without putting it into a category. Because when you put it into a category or name it, you are looking at that present state of feeling through the past memory. I don't know if you are following this. So you are actually not looking at the feeling, but you are looking through the memory which has been accumulated when other similar types of feeling arose.

Talks with American Students, Chapter 4 1st Talk at Morcelo, Puerto Rico 14th September, 1968

23 Sept 2009

कोई अपने ही बारे में, छवि क्यों बनाता है?

किसी भी व्यक्ति की अपने बारे में एक संकल्पना, खुद का ही छविचिन्ह या छवि होती है - कि उसे क्या होना चाहिए, क्या है, या यह कि उसे क्या नहीं होना चाहिए।
आईये जाने कोई भी व्यक्ति अपने बारे में छवि क्यों बनाता है? क्योंकि वो इसका अध्ययन कभी नहीं करता कि वह वास्तव में वो क्या है, यथार्थतः क्या है? हम सोचते हैं कि हमें यह होना चाहिए या वह होना चाहिए, आदर्श, नायकों, या कल्पना या इतिहास के उदाहरण पुरूषों की तरह।

हम जब भी जागरूक होते हैं हमारी अपने ही बारे में कल्पना, आदर्श हम पर हमला करते हैं। हमारा अपने ही बारे में जो खयाल है वह, हम जो तथ्यरूप.. वास्तव में हैं उससे.. पलायन बन जाता है। लेकिन जब आप स्वयं को तथ्य रूप में देखतें हैं जो कि आप वास्तव में हैं, तब कोई भी आपको दुख नहीं पहुंचा सकता। तब यदि कोई व्यक्ति झूठा है और उसे कोई झूठा कहता है तो इसका मतलब यह नहीं कि झूठा कहने वाला उसे दुख पहुंचा रहा है, क्योंकि यह तो तथ्य ही है। लेकिन यदि आपका अपने बारे में यह खयाल है कि आप झूठे व्यक्ति नहीं हैं, और कोई कहता है कि आप झूठें हैं तो आप गुस्सा हो जाते हैं, हिंसक हो जाते हैं।

हम लोग हमेशा एक आदर्शलोक में जीते हैं, कल्पनालोक में जीते हैं... मिथकों में जीते हैं उस जगत में नहीं जो यथार्थतः है। जो वास्तव में है उसे देखने के लिए... उसका जांच पूछ परख, यथार्थ से परिचय के लिये - हमें पूर्वाग्रह, पूर्व में ही निर्णय, मूल्यांकन, उसके बारे में भय आदि बिल्कुल नहीं होना चाहिए।