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11 Aug 2021

प्रेमी होने का मेरे लिए क्या अर्थ है?

जब मैंने अपने बारे में सोचना शुरू किया, तो मैंने खुद मे बागीपन पाया। न तो मैं किन्हीं भी उपदेशों, शिक्षाओं या ज्ञान से संतुष्ट था, न किसी भी तरह की प्रभुता से। मैं अपने लिये जानना चाहता था कि मेरे लिए विश्वगुरू होने का मतलब क्या है, यह विश्वगुरू की पदवी का सृजन करने के पीछे का सच क्या है, किसी को सवार और किसी का वाहक बनने का तात्पर्य क्या है और किसी विधाता के विधान का इस जगत में क्या अर्थ है।


जब मैं छोटा बच्चा था, मैं अक्सर हिन्दुओं में रची गई श्री कृष्ण भगवान की तस्वीर देखता था। मेरी मां बातचीत के दौरान अक्सर कृष्ण भगवान के बारे में बताया करती थीं। तो मेरे मन में बंसीधर बंसी वाले श्री कृष्ण जी की एक छवि बन गई, जिसके प्रति मेरे मन में पूर्ण समर्पण, प्रेम और उससे उपजा आनंद था। बाद में मैं जब मैं थियोसोफिकल सोसायटी के बिशप चार्ल्स लीडबीटर से मिला, तो मैंने के.एच. को उस रूप में देखना शुरू किया जैसा कि मेरे सामने उनका प्रारूप रखा गया, उस यथार्थ को जाना जिस नजरिये से कि गुरू के.एच. ने जाना। बाद में मैंने भगवान मैत्रेय, जो कि भगवान बुद्ध हैं, मैं उनका प्रेमी हो गया।

आप कहेंगे कि प्रेमी होने का मेरे लिए क्या अर्थ है? तो मेरे लिए उसका अर्थ है - सर्वस्व. सब कुछ। मैं उसके प्रेम में हूं जो भगवान कृष्ण है, जो गुरू के.एच. है, जो भगवान मैत्रेय भी है और भगवान बुद्ध भी। जो ये सब होते हुए भी इन रूप आकारों से कहीं परे है। तो मैं उसका प्रेमी हूं वो मेरा आराध्य है - जो खुला आकाश है, एक नन्हा सा फूल है, जो प्रत्येक मनुष्य में है। तो जब तक कि मैं अपने आराध्य प्रेमी प्यारे में ही न समा गया, एकाकार, वही न हो गया, मैं कभी न बोला। हालांकि मैं आम बोलचाल करता रहा, वह सब कहता सुनता रहा जो प्रत्येक आम आदमी कहना सुनना चाहता है। मैंने कभी नहीं कहा कि मैं विश्वगुरू हूं। लेकिन अब जब कि मैं अपने प्रेमी प्यारे से ही एकाकार हूं ... तो मैं ये कह सकता हूं... आपको प्रभावित करने के लिए नहीं, न ही अपनी महानता या विश्वगुरू होने की महानता से आपको फुसलाने के लिए, न ही जीवन के सौन्दर्य को अभिव्यक्त मात्र करने के लिए -- बल्कि बस इसलिए कि आपमें आपके दिलों में - मन में भी अपने ही सत्य को जानने की प्यास जगे, अभीप्सा पैदा हो। अतः मैं कहता हूं कि मैं अपने प्रेमी प्यारे के साथ ही एकाकार हूं - आप उसे बुद्ध हो जाना, बुद्धत्व में हो जाना कहें, भगवान मैत्रेय कहें या श्री कृष्ण कहें या उसे कुछ कोई अन्य नाम दें। 

When I began to think for myself, I found myself in revolt. I was not satisfied by any teachings, by any authority; I wanted to find out for myself what the World-Teacher meant to me and what the Truth was behind the form of the World-Teacher, what was meant by the taking of a vehicle, and what was meant by His manifestation in the world. When I was a small boy, I used to see Shri Krishna as pictured by the Hindus. My mother used to talk to me about Shri Krishna; hence I created an image in my mind of Shri Krishna with the flute, with all the devotion, all the love and delight.

When I met bishop Charles Leadbeater of the Theosophical Society, I began to see the Master K.H.- in the form put before me, reality from their point of view-- hence Master K.H. was the end. Later I began to see the Lord Maitreya. Now it is the Buddha, my Beloved.

 You ask me what I mean by "the Beloved." To me it is all; it is Shri Krishna, it is the Master K.H., it is the Lord Maitreya, it is the Buddha, and yet it is beyond all these forms. My Beloved is the open skies, the flower, every human being.

Till I was one with my Beloved, I never spoke. I talked of vague generalities which everybody wanted. I never said, I am the World-Teacher; but now that I feel I am one with the Beloved, I say it-- not to impress you, to convince you of my greatness, or the greatness of the World-Teacher, nor even of the beauty of life -- but merely to awaken the desire in your own hearts and in your own minds to seek and discover the Truth for yourself. Hence I say that I am one with the Beloved-- whether you interpret it as 
the Buddha, the Lord Maitreya, Shri Krishna, or any other name.

 
J. Krishnamurti, Eerde, 2 August 1927

25 Jan 2016

ईश्वर से प्रेम कैसे करें?


ईश्वर को पाने'तलाशने के लिए आपको जानना ही होगा कि प्रेम कैसे करें. ईश्वर से प्रेम कैसे करें? यह नहीं बल्कि यह भी कि अपने आसपास के इंसानों से प्रेम कैसे करें, पेड़पौधों, फूलों​'पत्तियों, चिड़ियों'तितलियों से प्रेम कैसे करें? जब आप वाकई इन सब से प्यार करना सीख जाएंगे तो आप सचमुच यह भी जान जाएंगे कि ईश्वर से प्यार कैसे किया जाता है. बिना किसी से प्यार किये, बिना यह जाने कि किसी दूसरे के साथ रहने'जुड़ने या साहचर्य का मतलब क्या होता है, आप यह नहीं जान सकते कि सत्य से जुड़ना या योग क्या होता है।

To find God you must know how to love, not God, but the human beings around you, the trees, the flowers, the birds. Then, when you know how to love them, you will really know what it is to love God. Without loving another, without knowing what it means to be completely in communion with one another, you cannot be in communion with truth.
~ Jiddu Krishnamurti

6 Aug 2010

ईश्‍वर शब्‍द को पढ़ना या बोलना जान लेना, ईश्‍वर को जान लेना नहीं है

आप ईश्वर के विषय में बहुत चर्चा करते हैं। आपकी किताबें इससे भरी हुई हैं। आप गिरजे, मन्दिर बनाते हैं। आप त्याग और बलिदान करते हैं, पूजा पाठ करते हैं, अनुष्ठान आयोजित करते हैं और आप ईश्वर विषयक धारणाओं से भरे पड़े हैं, हैं कि नहीं? आप यह शब्द ‘ईश्वर’ तो दोहरा लेते हैं पर आपके कर्म तो ईश्वरीय नहीं हैं। यद्यपि जिसे आप ईश्वर कहते हैं, उसकी आप उपासना करते हैं, आपके तौर-तरीके, आपके विचार, आपका अस्तित्व ईश्वरीय नहीं हैं, क्या हैं? हालांकि आप ईश्वर शब्द दोहराते रहते हैं, तो भी आप दूसरों का शोषण किया करते हैं, क्या आप ऐसा नहीं करते? आपके अपने-अपने ईश्वर हैं - हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और कई अन्य। आप मंदिर बनवाते हैं, आप जितने ज्यादा अमीर होते जाते हैं, उतने ज्यादा मन्दिर बनवाने लगते हैं। हंसिये मत, आप खुद भी यही कर रहे हैं और कुछ लोग धार्मिक रूप से अमीर होने में लगे हैं अन्य लोग नोटों से अमीर होने की कोशिशों में लगे हैं फर्क बस इतना सा ही है।

तो आप ईश्वर से खूब परिचित हैं, कम से कम इस शब्द से तो हैं ही; पर यह शब्द ईश्वर नहीं है, शब्द वह वस्तु नहीं होता है। हम इस मुद्दे पर पूरी से स्पष्ट हो लें। यह शब्द ईश्वर नहीं है। आप ईश्वर शब्द का अथवा किसी अन्य शब्द का प्रयोग कर सकते हैं, किंतु ईश्वर वह शब्द नहीं है जिसका प्रयोग आप कर रहे हैं। चूंकि आप ईश्वर शब्द का प्रयोग कर लेते हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि आप ईश्वर को जानते हैं। मैं इस शब्द का प्रयोग नहीं करता, इसकी बड़ी साफ वजह है कि आप इसे जानते हैं। जो आप जानते हैं, वह यथार्थ नहीं है। इसके अतिरिक्त, यथार्थ का पता लगाने के लिए मन की सारी शाब्दिक बड़बड़ का बंद होना जरूरी है, क्या नहीं? आपके यहां ईश्वर की प्रतिमाएं हैं, किंतु निश्चित वह प्रतिमा ईश्वर नहीं है। आप ईश्वर को कैसे जान पाएंगे? जाहिर है, किसी मूर्ति के, किसी मंदिर के जरिये तो नहीं। ईश्वर को, अज्ञात को ग्रहण करने के लिए मन को भी अज्ञात हो जाना होता है। यदि आप ईश्वर की तलाश में हैं, तो आप ईश्वर को पहले से ही जानते हैं, आप उस लक्ष्य से अवगत हैं। यदि आप ईश्वर को ढूंढ रहे हैं तो आप जानते ही होंगे कि ईश्वर क्या है, नहीं तो आप उसे ढूंढते ही नहीं, या ढंूढते हैं? आप उसे या तो अपनी पुस्तकों के मताबिक ढूंढते हैं, या अपनी भावनाओं के अनुरूप ढूंढते हैं। आपकी भावनाएं आपकी स्मृति की प्रतिक्रियाएं मात्र हैं। इसलिए जिसे आप ढूंढ रहे हैं, वह पहले से ही गढ़ लिया गया है, या तो स्मृति के द्वारा या सुनी सुनाई बातों के द्वारा, और जो पूर्व निर्मित है, वह शाश्वत नहीं है वह तो मन की ही उपज है।

अगर किताबें नहीं होतीं, गुरू नहीं होते, दोहराने के लिए सूत्र नहीं होते, तो आपको पता होता केवल दुख और सुख का। यही होता न? लगातार दुख और परेशानियां एवं प्रसन्नता के कुछ विरले क्षण। और तब आप जानना चाहते कि आपको दुख क्यों होता है। पर आप ईश्वर में पलायन नहीं कर पाते-लेकिन शायद आप दूसरे तरीकों से पलायन करने लगते (रूस में नास्तिकतावादियों के सुख और दुख की पहेलियों, जीवन की नीरसता से पलायन करने के ईश्वर के अलावा भी कई बहाने हैं।), और शीघ्र ही पलायन के रूप में आप देवताओं का आविष्कार कर लेते। किंतु यदि आप दुख की समग्र प्रक्रिया को वस्तुतः समझना चाहते हैं, एक नूतन मानव की तरह, एक नए खिले इंसान की की तरह, पलायन नहीं बल्कि जांच परख करते हुए, तब आप स्वयं को दुख से मुक्त कर लेंगे, तब आप खोज लें कि यथार्थ क्या है ईश्वर क्या है? पर जो मनुष्य दुख से ग्रस्त है, वह ईश्वर अथवा यथार्थ को नहीं खोज पाता; यथार्थ को तभी खोजा या पाया जा सकता है जब दुख का अंत हो जाता है, जब प्रसन्नता विद्यमान होती है, तुलना की जा सकने वाली विषमता के रूप में नहीं, विपरीत के रूप में नहीं, अपितु वह तो एक ऐसी अवस्था है, जिसमें विपरीत है ही नहीं।

अतः अज्ञात, वह जिसकी सृष्टि मन ने नहीं की है, मन द्वारा प्रतिपादित, सूत्रबद्ध नहीं किया जा सकता। वह जो कि अज्ञात है, उसके बारे में सोचा नहीं जा सकता। जिस क्षण आप अज्ञात के विषय में सोचने लगते हैं, यह ज्ञात ही होता है। निश्चित ही आप अज्ञात के विषय में विचार नहीं कर सकते, कर सकते हैं क्या? आप विचार केवल ज्ञात के बारे में ही कर सकते हैं। विचार की गति ज्ञात से ज्ञात की ओर ही होती है और जो ज्ञात है वह यथार्थ नहीं है। तो जब आप सोचते हैं और ध्यान करते हैं, जब आप बैठ जाते हैं और ईश्वर के विषय में विचार करने लगते हैं, तब आप उसी के विषय में विचार कर रहे होते हैं जो ज्ञात है। वह समय में है, वह समय के जाल में आबद्ध है, अतएव यह यथार्थ नहीं है। यथार्थ केवल तभी अस्तित्व में आ सकता है, जब मन समय के जाल से मुक्त हो जाता है। जब मन सर्जन करना बंद कर देता है, तब सर्जन होता है। तात्पर्य यह है कि मन का पूर्णरूपेण स्थिर होना, निश्चल होना जरूरी है, लेकिन वह उकसाई तथा सम्मोहनजन्य स्थिरता नहीं होनी चाहिए, वह तो मात्र एक परिणाम ही होगी। यथार्थ का अनुभव करने के लिए स्थिर बनने की कोशिश करना पलायन का ही एक और रूप है। शांति, स्थिरता तभी होती है, जब सारी समस्याएं समाप्त हो चुकी होती हैं। जैसे हवा के थमने पर सरोवर शांति हो जाता है, वैसे ही मन स्वाभाविक रूप से मौन, शांत हो जाता है, जब बेचैन करने वाला विचारक नहीं रहता। विचार के अंत हेतु, वे सभी विचार जिनका वह निर्माण कर रहा है, सोच लिये जाने जरूरी हैं। विचार का प्रतिरोध करने से, उसके खिलाफ प्रतिरोध खड़े करने से कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि सभी विचारों को अनुभूत कर लेना, महसूस कर लेना आवश्यक है।

जब मन स्थिर प्रशांत होता है, तो यथार्थ, वह अनिर्वचनीय प्रकट होता है। आप इसे निमंत्रित नहीं कर सकते। इसे निमंत्रित करने के लिए तो आपका इसे जानना जरूरी होगा, और जो जाना हुआ है, ज्ञात है, वह यथार्थ नहीं है। अतः यह आवश्यक है कि मन सरल हो, विश्वासों से, कल्पित धारणाओं से लदा हुआ न हो। और जब स्थिरता होती है, जब कोई इच्छा, कोई ललक नहीं रहती, जब ऐसी स्थिरता सहित जिसे प्रवृत्त नहीं किया गया है, लादा नहीं गया है, मन खामोश होता है, तब यथार्थ का आगमन होता है एवं वह सत्य, वह यथार्थ ही एकमात्र रूपांतरकारी तत्व है, केवल यही वह कारक है, जो हमारे अस्तित्व में, हमारे दैनिक जीवन में एक आधारभूत, आमूल क्रांति लाता है। उस यथार्थ को पाने के लिए उसे खोजना नहीं पड़ता, बल्कि उन कारकों को समझ लेना होता है जो मन को उद्वेलित, बेचैन करते रहते हैं। तब मन सरल, मौन, स्थिर होता है। उस स्थिरता में वह अज्ञात, वह अविज्ञेय आविर्भूत होता है। जब ऐसा होता है, तो आशीर्वाद होता है, स्वस्ति होती है।
मुंबई, 8 फरवरी 1948 पुस्तक: ईश्वर क्या है, पृष्ठ क्रमांक 55-57

21 May 2010

ईश्वर की पहचान

आप जानते हैं कि कैसे एक ग्रामीण व्यक्ति या किसान उस प्रतिमा को ईश्वर मान लेता है जिस पर वह कुछ फल फूल आदि चढ़ाता है। आदिम मानव बादलों के गरजने को ईश्वर का इशारा समझता था कुछ अन्य मनुष्य पेड़-पौधों प्रकृति को भगवान मानते हैं। जैसे हमारे देश में पीपल, बरगद का पूजन किया जाता है वैसे ही यूरोप में सेब और जैतून के वृक्षों की पूजा की जाती रही है। ये सब आज भी चला आ रहा है।
बहुत पुराने शहरों से लेकर अभी अभी बने शहरों तक सभी जगह मन्दिर होते हैं। मन्दिरों में मूर्तियां होती हैं जिन पर तेल, फूलों के हार, आभूषण चढ़ाकर पूजा जाता हैं। इसी तरह आप भी कोई नई कल्पना रच सकते हैं, जो कि आपके वंश की परंपरा आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि से उपजी हो और उसे आप ईश्वर कह सकते हैं। शायद आपको मालूम ना हो जिस व्यक्ति ने संसार में पहले पहल परमाणु बम गिराये थे उसने भी सोचा था कि ईश्वर उसके साथ है। हिटलर से लेकर किचनर तक सभी युद्धोन्मादी, सेना में छोटे बड़े ओहदों पर आसीन सभी नायक ईश्वर के नाम पर युद्ध करने में जरा नहीं हिचकते। तो क्या यह सब प्रतिमा, विचार और कर्मकाण्ड ईश्वर हो सकता है? या क्या ईश्वर कोई ऐसी चीज है जिसका आकलन हम अपने मन से नहीं कर सकते जो हमारी कल्पना से परे की चीज है।
ईश्वर की गूढ़ता की थाह ले पाना हमारे लिए असंभव है। ईश्वर के सत्य का अनुभव कभी कभी तब होता है जब हम पूर्णतः मौन में होते हैं, जब हमारा मन प्रक्षेपण में रत नहीं होता, जब हम अन्दर ही अन्दर खुद से ही युद्ध और संघर्ष की स्थिति में नहीं होते। जब मन निश्चल होता है शायद तब हम जान पाते हैं कि ईश्वर क्या है?
इसलिये यह बहुत महत्वपूर्ण है कि कम उम्र से ही हम ईश्वर शब्द में अटकें नहीं, ईश्वर के बारे में हमें दूसरों द्वारा जो कुछ भी बताया समझाया जाता है उसे स्वीकारें नहीं। लाखों लोग हैं जो ईश्वर के संबंध में आपको सिखाने, बताने, समझाने के लिए उत्सुक हैं परन्तु हमें यह करना है कि जो कुछ भी वो कहें हम उस सबकी जांच करें। इसी तरह कुछ ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं ईश्वर वगैरह कुछ नहीं होता - तो हम इन लोगों की भी ना सुनें पर बारीकी और सावधानी से हर बात की जांच पड़ताल करें। ना विश्वास करने वालों पर अंधविश्वास करें ना ईश्वर को नकारने वाले को ही मानें। जब हमारा मन विश्वास और अविश्वास दोनों से ही आजाद होता है तब मन निश्चल होता है, केवल तभी संभावना बनती है कि ईश्वर संबंधित सत्य का बोध हो सके।
इन सब पहलुओं के बारे में खुले मन से सोचने समझने की जरूरत है, इन सब के बारे में किसी व्यक्ति को कहां से शुरूआत करनी है यह सब कोई नहीं बताता।
जब आप किसी महान गुरूनुमा व्यक्ति के पास जाते हैं तो वह आपको सिद्ध करके बताने की कोशिश करेगा कि ईश्वर है, वह कई विधियां बतायेगा कि किस किस तरह से क्या क्या करने पर ... यह मंत्र जपो तो ये होगा, इस प्रकार पूजा करो तो ये होगा, इस व्रत उपवास अनुशासन का पालन करने पर यह परिणाम होगा आदि। यह सब करने के बाद भी आप पायेंगे कि जो प्राप्त होगा वह ईश्वर नहीं। आपको वही प्राप्त होगा जिस चीज को आपका मन प्रक्षेपित कर रहा है, जिस चीज की रचना मन कर रहा है, यह सब आपकी मानसिक इच्छाओं की ही एक छवि होगी पर ईश्वर कदापि नहीं।
तो ईश्वर उसके बारे में जानना समझना इतना भी सरल नहीं है। ईश्वर संबंधित बातों को जानने समझने के लिए बहुत अधिक चिंतन मनन खोजबीन की जरूरत है। पहले तो अपने आपको सारे पूर्वाग्रहों से मुक्त करना होगा। अपने आपको इस योग्य बनाना होगा कि आप स्वयं इसका पता लगा सकें, स्वयं ही इन सब बातों के पीछे के रहस्यों को जान सकें। इस कार्य में कोई दूसरा आपका आधार नहीं बन सकता, आपको अपनी सहायता स्वयं करनी होगी, स्वयं ही ईश्वर को तलाशना होगा।