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13 Oct 2021

सन्यास यानि​ अमरत्व का स्वाद

 


इस मरने वाले शरीर के लिए संस्कृत में शब्द है 'देह'। इसे देह इसलिए कहा जाता है क्योंकि आखिरकार आखिरी सफर में इसे दाह संस्कार द्वारा अग्नि को सौंपा समर्पित किया जाता है.. दाह संस्कार किया जाता है। जिसे दहन किया जाता है वह देह ताकि इससे मुक्त आत्मा अब परमात्मा को प्राप्त हो।

कुछ हिन्दू, अपनी मर्जी से जीवन जीने का एक तरीका चुनते हैं जिसे सन्यास कहा जाता है। इसके तहत भलेचंगे रहते, जीते जी वे अपना दाह संस्कार स्वयं ही संपन्न कर लेते हैं. इस तरह वह अग्नि से अपना नाता तोड़ते हैं।

एक सन्यासी का मतलब ही है, आग से नाता तोड़ चुका व्यक्ति। न तो भोजन के लिए आग का इस्तेमाल करेगा, जलायेगा न अपने देह में आग को पलने बढ़ने का मौका देगा न जीवन में भौतिकता की आग भोग.ऐश्वर्य को हवा देगा। बल्कि बस खाकराख हो रहेगा, धरती माता को समर्पित हो रहेगा, जमीन का आदमी हो रहेगा, जमीन ही हो रहेगा।

जागृत परमतत्व को पहुंची आत्माएं, जिन्होंने इस नश्वर देह के होते हुए ईश्वर का साक्षात्कार किया वो भी धरती को अर्पित की जाती हैं। जो समाधि को प्राप्त हुए, उनकी समाधि बनाई जाती है।

भगवान शिव आराधकों शैवों की समाधि पर शिवलिंग स्थापित किया जाता है इसे 'अधिष्ठानम' कहते हैं। विष्णु भक्त वैष्णवों की समाधि पर तुलसी का पौधाबिरवा रोपा जाता है जिसे ''वृन्दावनम्'' कहते हैं। अधिष्ठानम और वृन्दावनम् दोनों को जीवित गुरू मानकर लोग उनकी पूजाआराधनाप्रार्थना करते हैं। उनसे मार्गदर्शन, आशीष लेते हैं ताकि वो भी इस नश्वर मरणधर्मा शरीर के साथ ही सम्पन्न हो जायें, वो भी अमरत्व का स्वाद चख सकें।

श्री रमण महर्षि की समाधि अधिष्ठानम है। वहीं श्री राघवेन्द्र स्वामी की समाधि ​​बृन्दावनम है। अधिष्ठानम में आत्मा अपने सृजनकर्तासृजक के साथ एकाकार हो जाती है। जबकि बृन्दावनम में आत्मा सृष्टिकर्ता की सृष्टि से ही एकाकार हो जाती है। हालांकि सनातन धर्म में सृजकसृष्टा और सृष्टि भिन्न नहीं विचारे जाते, अद्वैत कहे जाते हैं।

The Sanskrit word for this mortal body is “Deha” and it is called so because at the end of its journey, it is submitted to fire by a process/Sanskara called “Dahana” to enable attainment of ParamAtma for the departed soul.

Some Hindu, may have chosen for themselves a path of Sanyasa(monkhood) wherein they would have conducted their own funeral rites while alive, and hence broken their relationship with fire/agni.

A Sanyasa is by himself, forbidden to use fire to cook food (or) thrive (or) possess any wealth in a material form.

The Sanyasa are not submitted to Fire at the end of their mortal journey, but are surrendered to Earth.

Some enlightened souls, who have attained to God realisation in their mortal lifetime are also surrendered to Earth, and on their Samadhi(tomb) if installed a “Shiva Lingam” it is called as “ADHISTANAM” & if installed a Tulasi/Basil plant is to be called as “BRINDAVANAM”.

The ADHISTANAM is a Shaivite tradition while the BRINDAVANAM is more a VaiShnava tradition.

The beings of the ADHISTANAM & BRINDAVANAM are both considered as living masters and people offer prayers, seek guidance & blessings from these souls who have now transformed from being “Finite to Infinite”

Ex:ADHISTANAM> Sri Ramana Maharshi & BRINDAVANAM>Sri Raghavendra Swamy.

In an ADHISTANAM the soul is identified as being one with the CREATOR, while in the BRINDAVANAM the soul is identified as one with the CREATION.

In Sanatana Dharma, the Creator & Creation are considered not separate & aDwaita.

21 Mar 2014

मरने के भय ?

क्या आप सोचते हैं कि एक चिड़िया मरने के भय में जीती है? क्या आपका यह ख्याल है कि एक पीली पत्ती जो जमीन पर गिरने ही वाली है,मरने से डरती है? हालांकि वो भी जब मौत आती है मरती हैं ... पर मौत आने के तुरंत पहले तक उसका मौत से कोई वास्ता नहीं होता, वह जीने में बेतहाशा संलग्न होती है— कीट—पतंगों के शिकार में, घोंसला बनाने में, चीं चीं चीं चीं मधुर गीत गाने में, और उंची उंची उड़ाने भरने में ... उन उंचाइयों पर उड़ने का आनंद लेती हैं.. जहां केवल, पर फैलाने होते हैं, हवाओं के संग ही बहना होता है...हवाओं की सवारी भर करनी होती है. आखिर तक चिड़िया जीवन के सारे मज़े लेती हैं। वो मौत के बारे में कभी नहीं सोचती. अगर मौत आए, तो ठीक, वह खत्म हो जाती है. तो यहां उस सोच से कोई सरोकार नहीं होता जिसमें 'अब क्या होगा?' का प्रश्न है.... यहां क्षण प्रतिक्षण.. का जीना है. क्या चिड़िया या पेड़ पर लहलहाती एक पत्ती, यही नहीं करते? लेकिन इंसान ही ऐसा है जो हमेशा मौत के बारे में सोचता विचारता है— क्योंकि हम जीते नहीं हैं. यही समस्या है— हम मर रहे हैं प्रतिपल..हम जीते नहीं.

22 Feb 2014

what it means to die? मरना क्या है?


मरने के अर्थ खोजें—दैहिक रूप से नहीं, क्योंकि जिस्म से तो एक दिन विदाई तय है . लेकिन उस सब के प्रति मरना जिसे हम जानते हैं... अपने परिवार के प्रति, अपनी लगावों के प्रति, उन सारी चीजों के प्रति मरना जो अपने जमा कर रखी हैं.. जो जानी गई हैं... जानी गई खुशियां, जाने गये भय. उस हर एक मिनिट के प्रति मरें तो आप जानेंगे कि मरने का अर्थ क्या होता है...ताकि मन त्वरित ताजा हो सके, नित युवा हो सके, निर्दोष मासूम हो सके, ताकि आपका पुर्नजन्म पुर्नअवतार हो सके किसी अगले जन्म में नहीं... बस इसी पल आज ही.

Find out what it means to die - not physically, that's inevitable - but to die to everything that is known, to die to your family, to your attachments, to all the things that you have accumulated, the known, the known pleasures, the known fears. Die to that every minute and you will see what it means to die so that the mind is made fresh, young, and therefore innocent, so that there is incarnation not in a next life, but the next day.

~ Jiddu Krishnamurti

8 Nov 2011

क्या मृत्यु के बाद भी कुछ बचता है?

क्या मृत्यु के बाद भी कुछ बचता है? जब एक आदमी दुख से भरा हुआ, मोहग्रस्त और खेदजनक स्थितियों में मरता है तो क्या बचता है?
क्या असली प्रश्न यह नहीं है कि - क्या मौत के बाद, कुछ बचता है? जब आपका कोई करीबी मर जाता है तो, आप कितना सयापा करते हैं? क्या आपने इस पर कभी गौर किया? सब आपके साथ रोते हैं। जब अपने भारत देश में कोई मर जाता है तो जितना शोक संताप किया जाता है, ऐसा सारी दुनियां में कहीं नहीं होता। आइये इसे गहराई में जाने।
सबसे पहले तो क्या आप देख सकते हैं, क्या आप हकीकतन महसूस कर सकते हैं कि आपकी चेतना ही सारी मानवता की चेतना है? क्या आप ऐसा महसूस कर सकते हैं? क्या यह आपके लिए एक तथ्य की तरह है? क्या यह आपके लिए यह उसी तरह तथ्य है, जैसे कि कोई आप आपके हाथ में सुई चुभोए और आप उसका दर्द महसूस करें? क्या यह इसी तरह वास्तविक है?

मानव मस्तिष्क का विकास समय में हुआ है, और यह करोड़ों वर्षों के विकास का परिणाम है। यह मस्तिष्क एक विशेष ढांचे में बद्ध हो सकता है यदि कोई व्यक्ति दुनियां के किसी विशेष भाग में, एक संस्कृति और परिवेश में रह रहा हो, तो भी यह एक सामान्य आम मानव चेतनायुक्त मस्तिष्क ही होता है। इस बारे में आप पूर्णतः आश्वस्त रहें। यह आपका व्यक्तिगत मस्तिष्क नहीं होता, यह सामान्य चेतना होती है। मस्तिष्क को पैतृक रूप से या विरासत में बहुत सारी प्रतिक्रियाएं मिली होती हैं, और यह दिमाग अपने जीन्स (गुणसूत्रों) सहित - जिनमें कुछ पैतृक होते हैं कुछ समय में विकसित, इसमें मानवीय चेतना सामान्य घटक होती है। इस तरह यह मात्र आपका ही मस्तिष्क नहीं होता, यह सम्पूर्ण मानवीय चेतना भी होता है। विचार यह कह सकता है कि, यह मेरा दिमाग है। विचार यह कह सकता है कि, मैं एक व्यक्ति हूं। यही हमारा ढांचाबद्ध, सांचाबद्ध, या बद्ध होना है। यही बंधन है। क्या आप सारी मानवीय चेतना से हटकर एक व्यक्ति हैं? इसे जरा गहराई में जाकर देखें। आपका एक अलग नाम हो सकता है, एक रूप हो सकता है, एक अलग चेहरा हो सकता है, आप नाटे-लम्बे या गोरे-काले इत्यादि हो सकते हैं। क्या इससे ही आप एक सारी मानवीय चेतना से अलग व्यक्ति हो जाते हैं? क्या यदि आप किसी विशेष प्रकार के समूह या समुदाय या देश के हैं तो इससे आप अलग हो जाते हैं या एक अलग व्यक्ति बन जाते हैं?
तो वैयक्तिक्ता क्या है? एक व्यक्ति वह होता है जो खंडित नहीं है, बंटा हुआ नहीं है, मानवचेतना से विलग नहीं है।
जब तक आप सब खंडित हैं, तक एक व्यक्ति नहीं हो सकते। यह एक तथ्य है। जब तक यह तथ्य आपके खून में नहीं बहने लगता आप एक व्यक्ति नहीं हो सकते। भले ही आप अपने बारे में यह खयाल रखते हों कि आप एक व्यक्ति हैं, तो भी यह महज आपका विचार ही होगा। विचार ही सारी मानवजाति में आम चीज है, जो अनुभव, ज्ञान, स्मृति पर आधारित होती है और दिमाग में स्टोर हुई रहती है। मस्तिष्क या दिमाग सारी संवेदनों का केन्द्र होता है, जो सारी मानवजाति में आम है। यह सब तर्कसंगत है। तो जब आप कहते हैं कि, मेरे साथ क्या होगा, जब मैं मर जाऊंगा? तो इसमें ही आपकी रूचि है, इस ”मैं“ में, जो कि मरने वाला है। मैं क्या है? आपका नाम, आप कैसे दिखते हैं, आपकी शिक्षा-दीक्षा कैसी है, ज्ञान, कैरियर, पारिवारिक पंरपरा और धार्मिक संस्कृति, विश्वास, अंधविश्वास, लोभ, महत्वकांक्षा, वह सारी धोखाधडि़यां जो आप कर रहे हैं, आपके आदर्श - यह सब ही तो आपका ”मैं“ है। यह सब ही आपकी व्यक्तिपरक चेतना है। यही चेतना सारी मनुष्यता में समान है क्योंकि वह भी तो लोभी, ईष्र्यालु, भयभीत, जो सुरक्षा चाहती है, जो अंधविश्वासी है, जो एक तरह के ईश्वर में भरोसा करती है आप अन्य तरह के, इनमें से कुछ कम्युनिस्ट है, कुछ समाजवादी, कुछ पूंजीवादी। यह सब उसी का एक हिस्सा हैं। इन सबमें यह एक सामान्य घटक है कि आप ही सारी शेष मानवता हैं। आप सहमत होते हैं, आप कहते हैं कि ठीक है यह तो पूरी तरह सही है, लेकिन तो भी आप एक व्यक्ति, एक व्यक्तित्व की तरह बर्ताव करते हैं। यही वह बात है जो बहुत ही भद्दी है, बहुत ही पाखंडपूर्ण है।
तो अब, वह क्या है जो मर जाता है? यदि मेरी चेतना ही सारी मानवजाति की चेतना है, यह बदल जाती है, जो कि मैं सोचता हूं कि ”मैं“ हूं तो मेरे मरने पर क्या होगा? मेरी देह का मृत्युसंस्कार कर दिया जायेगा या हो सकता है यह अचानक ही किसी दुर्घटनावश नष्ट हो जाये, तो क्या होगा? यह आम चेतना चली जायेगी। मुझे नहीं मालूम कि आप इसे महसूस कर पा रहे हैं या नहीं ! जब सच को इस तरह देख लिया जाता है तो मृत्यु का बहुत ही तुच्छ अर्थ रह जाता है। तब मृत्यु का भय नहीं रहता। मृत्यु का भय तब तक ही रहता है जब तक कि हम खुद को मानवता से अलग व्यक्ति या व्यक्तित्व मानते हैं, जो कि परंपरा है... जिस परपंरा में हमारे दिमाग को एक कम्प्यूटर की तरह प्रोग्राम्ड किया जाता है यह फीड किया जाता है कि मैं एक अलग व्यक्ति हूं, मैं एक अलग व्यक्ति हूं, मैं विशेष तरह के ईश्वर को मानता हूं, मैं यह मानता हूं मैं वह मानता हूं आदि आदि।
इस सब में आप एक तथ्य और भूल रहे हैं वह है प्रेम। प्रेम मृत्यु को नहीं जानता। करूणा मृत्यु को नहीं जानती। तो वही व्यक्ति जिसे प्रेम का कुछ पता नहीं, जो प्रेम नहीं करता, जिसमें करूणा नहीं है वही मृत्यु से भयभीत होता है। तो आप कहेंगे कि ”मैं प्रेम कैसे करूं? मुझमें करूणा कैसे आये? जैसे कि ये सब बाजार से खरीदा जा सकता हो। लेकिन यदि आप देखें, अगर आप महसूस कर सकें कि प्रेम ही ऐसी चीज है जिसकी मृत्यु नहीं है, यही असली बुद्धत्व है, जागृति है। यह किसी भी ज्ञान, शब्दों की जुगाली या बौद्धिक अलंकरण से परे की चीज है।