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30 May 2011

अचेतन का बोझ


भीतर, अचेतन में अतीत का जबरदस्त जोर रहता है जो आपको एक विशेष दिशा में धकेलता है। अब, कोई कैसे इस सब को एकबारगी ही पोंछ दे। कैसे अचेतन से अतीत को तुरन्त ही साफ किया जाये? विश्लेषक सोचता है कि विश्लेषण द्वारा, जाँच पड़ताल करके, इसके घटकों को तलाश कर के, स्वीकार करके, या सपनों की व्याख्या इत्यादि करके अचेतन को थोड़ा-थोड़ा करके, टुकड़ों में या, यहां तक कि, पूरी तरह साफ किया जा सकता है ताकि हम कम से कम सामान्य आदमी रहें। ताकि हम अपने आपको निवर्तमान माहौल के हिसाब के अनुकूल बना सकें। लेकिन विश्लेषण में सदैव एक विश्लेषणकर्ता होता है और एक विश्लेषण या परिणाम, एक अवलोकनकर्ता जो कि अवलोकन की जाने वाली चीजों की व्याख्या करता है, यह ही द्वैत है, जो कि द्वंद्व का स्रोत है।
तो अचेतन का विश्लेषणमात्र कहीं नहीं पहुंचााता। हो सकता है कि यह हमारा पागलपन कम करे, अपनी पत्नि या पड़ोसी के प्रति कुछ विनम्र बना दे या इसी तरह की कुछ बातें, लेकिन ये वो चीज नहीं जिस बारे में हम बात कर रहे हैं। हम देखते हैं कि विश्लेषण प्रक्रिया जिसमें की समय, व्याख्या और विचारों की सक्रियता शामिल है, एक अवलोकनकर्ता के रूप में जो कि किसी चीज का विश्लेषण कर देख रहा है... यह सब अचेतन को मुक्त नहीं करता इसलिए मैं विश्लेषण प्रक्रिया को पूरी तरह से अस्वीकार करता हूँ। जिस क्षण, मैं यह तथ्य देखता हूं कि विश्लेषण किन्हीं भी परिस्थितियों में अचेतन का बोझ नहीं हटा सकता, मैं विश्लेषण से बाहर हो जाता हूँ। मैं अब विश्लेषण नहीं करता। तो क्या होता है? क्योंकि अब कोई भी विश्लेषणकर्ता उस चीज से अलग नहीं है जिसका कि विश्लेषण किया जा रहा है, वह वही चीज है। वो उससे (विश्लेषण से) भिन्न कोई अस्तित्व नहीं है। तब कोई भी देख सकता है कि अचेतन बहुत ही कम महत्व का है।

The Burden of the Unconscious

Inwardly, unconsciously, there is the tremendous weight of the past pushing you in a certain direction.
Now, how is one to wipe all that away? How is the unconscious to be cleansed immediately of the past? The analysts think that the unconscious can be partially or even completely cleansed through analysis, through investigation, exploration, confession, the interpretation of dreams, and so on; so that at least you become a 'normal' human being, able to adjust yourself to the present environment. But in analysis there is always the analyzer and the analyzed, an observer who is interpreting the thing observed, which is a duality, a source of conflict.
So I see that mere analysis of the unconscious will not lead anywhere. It may help me to be a little less neurotic, a little kinder to my wife, to my neighbor, or some superficial thing like that; but that is not what we are talking about. I see that the analytical process which involves time, interpretation, the movement of thought as the observer analyzing the thing observed cannot free the unconscious; therefore I reject the analytical process completely. The moment I perceive the fact that analysis cannot under any circumstances clear away the burden of the unconscious, I am out of analysis. I no longer analyze. So what has taken place? Because there is no longer an analyzer separated from the thing that he analyzes, he is that thing. He is not an entity apart from it. Then one finds that the unconscious is of very little importance.
The Book of Life

24 Feb 2011

विकर्षित अवलोकन


जब आप किसी चीज को नाम देते हैं, तो आपके नामकरण की यह क्रिया, यह शब्द आपको अवलोकन से विकर्षित करता है, भटकाता है, आपके अवलोकन को दोषपूर्ण बनाता है। जब आप शब्द ‘बरगद’ का प्रयोग करते हैं, तो आप किसी वृक्ष को उस शब्द के माध्यम से देखते हैं, ना कि उस वृक्ष की वास्तविकता को। आप उस वृक्ष को उस छवि के माध्यम से देखते हैं जो आपने उस वृक्ष के बारे में बनाई हुई है,तो यह छवि, दृष्टि को बाधित करती है। इसी तरह यदि आप अपने को ही देखने की कोशिश करें, बिना अपनी कोई छवि बनाये, तो यह बड़ा ही अजीब और गहरे में विक्षुब्ध करने वाला होता है। जब आप गुस्से में, जब ईष्र्या में हों, तो इन अहसासों को बिना किसी अच्छी या बुरी श्रेणी में रखे, बिना किसी अहसास का नामकरण किये देेखें। क्योंकि जब आप इस अहसास को किसी अच्छी या बुरी श्रेणी में डालते हैं, या इसे नाम देते हैं तो आप आप वर्तमान के किसी क्षण को अतीत की स्मृतियों के माध्यम से देखते हैं। मुझे नहीं पता आपको यह सब समझ में आ रहा है या नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी अहसास के वर्तमान में सामने आने पर, आप यथार्थतः किसी अहसास को ”जैसा वो है वैसा ना देखकर“, जब उसी तरह का कोई अन्य अहसास अतीत में पैदा हुआ था.... उस अहसास के बारे में अपनी इकट्ठा की गई स्मृतियों... उस अहसास के बारे में जो आपने जो कभी पढ़ा, सुना, लिखा, देखा है, उनके माध्यम से देखते हैं। साक्षात अवलोकन तब होता है, जब अवलोकन अतीत के माध्यम से नहीं हो रहा। इसी क्षण को इसी क्षण में देखा जा रहा हो।

Distraction from observation

When you name a thing, the very word acts as a distraction from observation. When you use the word 'cypress', you are looking at that tree through the word; so you are not actually looking at the tree. You are looking at that tree through the image that you have built up, and so the image prevents you from looking. In the same way, if you try to look at yourself without the image this is quite strange and deeply disturbing. To look when you are angry, when you are jealous, to look at that feeling without naming it, without putting it into a category. Because when you put it into a category or name it, you are looking at that present state of feeling through the past memory. I don't know if you are following this. So you are actually not looking at the feeling, but you are looking through the memory which has been accumulated when other similar types of feeling arose.

Talks with American Students, Chapter 4 1st Talk at Morcelo, Puerto Rico 14th September, 1968

20 Apr 2010

समझ अस्तित्व में कैसे आती है?


मुझे नहीं मालूम, अगर आपने कभी इस बात पर गौर किया है या नहीं कि,किसी समस्या को जितना ज्यादा आप समझने की कोशिश करते हैं, जूझते हैं बूझते हैं... समस्या को समझने में आपको उतनी ही मुश्किल आयेगी। लेकिन जिस पल आप संघर्ष करना बंद करते हैं और उस समस्या को अपनी सारी कहानी सुनाने का मौका देते हैं, अपनी सारी हकीकत बयान करने देते हैं - तब बात समझ में आ जाती है। इससे हम यह स्पष्ट ही जान सकते हैं कि किसी बात को समझने के लिए आपके मन का चुप होना बहुत जरूरी है। मन का बिना हां ना किये, निष्क्रिय रूप से जागरूक, सजग रहना जरूरी है इस स्थिति में ही हममे जीवन की कई समस्याओं की समझ आती है।
लंदन 23 अक्टूबर 1949

22 Feb 2010

आमूलचूल क्रांति‍

क्या आप कोई ऐसी क्रांति चाहते हैं जो आपकी सारी संकल्पनाओं, विश्वासों, मूल्यों, आपकी नैतिकता, आपकी सम्मानीयता, आपके ज्ञान को तहस-नहस कर दे। इस प्रकार तहस नहस कर दे कि आप अत्यंतिक सम्पूर्ण रूप से नाकुछ हो जायें, यहां तक कि आपका कोई चरित्र ही न बचे। वो व्यक्ति ही न बचे जो खोजी है, जो आदमी फैसले करता है, जो क्रोधी और अक्रोधी है। आप पूर्णतः कुछ भी होने से खाली हो जायें, जो भी ‘‘आप’’ हैं।
यह खालीपन अपने चरम तप सहित परम सौन्दर्य होता है जिसमें कठोरता या आक्रामकता का दावा करती कोई चिंगारी नहीं होती। यही उस भेद का अर्थ है जो बाद में वहां होता है। वहा आश्चर्यजनक समझ बोध होता ही है, ना कि सूचना और सीखना। यही विवेक या समझ बोध सर्वदा रहता है, आप चाहे सो रहे हों या जाग रहे हों। इसलिए हम कहते हैं कि वहां केवल अन्दर और बाहर का अवलोकन होना चाहिए जो कि बुद्धि मस्तिष्क को तीक्ष्ण करता है। मस्तिष्क की यह तीक्ष्णता उसे शांत बनाती है। मस्तिष्क की इस संवेदनशीलता और समझ बोधपरकता ही विचार को संचालित करती है जब उसकी आवश्यकता हो, अन्य समय मस्तिष्क सोया नहीं रहता पर द्रष्टा हो शांत हो रहता है। इसलिए मस्तिष्क या दिमाग अपनी प्रतिक्रियाओं से संघर्ष नहीं पैदा करता। यह बिना किसी जूझने के, इसलिए बिना किसी विक्षिप्तता या विक्षेप के काम करता है। तब करना और होना या किया जाना और अमल में होना तुरत एकसाथ होता है, वैसे ही जैसे कभी आप खतरे में पड़ें और जो बन पड़े तुरन्त सम्पन्न कर दें। इसलिए वहां पर हमेशा संकल्पनात्मक चीजों से मुक्ति रहती है। यह संकल्पनात्मक चीजें ही हैं जो अवलोकनकर्ता, मैं, अहं हो जाती हैं, जो बांटती हैं, प्रतिरोध करती हैं और अवरोध बनाती हैं। जब ‘मैं’ नहीं होता, तो सफलता, फल या परिणाम का कोई भेद नहीं रहता तब सम्पूर्ण जीवन, सौन्दर्य को जीना होता है। तब सम्बंधों में भी सौन्दर्य होता है बिना किसी एक छवि को दूसरी छवि से प्रतिस्थापित किये। तभी अनन्त महानता का अवतरण संभव होता है।


Is this really what you are seeking? Is it really what you want? If you do, there must be the total revolution of your being. Is this what you want? Do you want a revolution that shatters all your concepts, your values, your morality, your respectability, your knowledge - shatters you so that you are reduced to absolute nothingness, so that you no longer have any character, so that you no longer are the seeker, the man who judges, who is agressive or perhaps non-aggressive, so that you are completely empty of everything that is you? This emptiness is beauty with its extreme austerity in which there is not a spark of harshness or agressive assertion. That is what breakthrough means and is that what you are after? There must be astonishing intelligence, not information or learning. This intelligence operates all the time, whether you are asleep or awake. That is why we said there must be the observation of the inner and the outer which sharpens the brain. And this very sharpness of the brain makes it quiet. And it is this sensitivity and intelligence that make thought operate only when it has to; the rest of the time the brain is not dormant but watchfully quiet. And so the brain with its reactions doesn't bring about conflict. It functions without struggle and therefore without distortion. Then the doing and the acting are immediate, as when you are in danger. Therefore there is always a freedom from conceptual accumulations. It is this conceptual accumulation which is the observer, the ego, the "me" which divides, resists and builds barriers. When the "me" is not, the breakthrough is not, then there is no breakthrough; then the whole of life is in the beauty of living, the beauty of relationship, without substituting one image for another. Then only the infinitely greater is possible.
 
Meeting Life Early Works, circa 1930 

20 Feb 2010

कुछ भी समझने के लिए आपको उसके साथ जीना होगा



कुछ भी जानने समझने के लिए आपको उसके साथ जीना होगा, उसका अवलोकन करना ही होगा, आपको उसके सभी पहलू, उसकी सारी अंर्तवस्तु, उसकी प्रकृति, उसकी संरचना, उसकी गतिविधियां जाननी होंगी। क्या आपने कभी अपने ही साथ जीने की कोशिश की है? यदि कि है तो आपने यह देखना भी शुरू किया होगा कि आप एक स्थिर अवस्था में ही नहीं रहते, मानव जीवन एक ताजा और जिन्दा चीज है। और जिन्दा चीज के साथ रहने के लिए आपका मन भी उसी तरह ही ताजा और जिन्दा होना चाहिये। मन कभी भी जिन्दा नहीं रह सकता जब तक कि विचारों, फैसलों और मूल्यों में जकड़ा हुआ हो। अपने मन, दिलदिमाग की गतिविधियों, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के अवलोकन की दिशा में अनिवार्य रूप से आपके पास एक मुक्त मन होना चाहिये। वो मन नहीं - जो सहमत या असहमत होता हो, कोई पक्ष ले लेता हो और उन पर टीका टिप्पणियां या वाद विवाद करता हो, मात्र शब्दों के विवाद में ही उलझा रहता हो। बल्कि एक ऐसा मन हो जिसका ध्येय समझ-बूझ का अनुसरण करना हो क्योंकि हम में से अधिकतर लोग यह जानते ही नहीं कि हम अपने ही अस्तित्व की ओर कैसे देखें, कैसे उसे सुनें.... तो हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि हम किसी बहती नदी के सौन्दर्य को देख पायेंगे या पेड़ों के बीच से गुजरती हवा को सुन पायेंगे।
जब हम आलोचना करते हैं या किसी चीज के बारे में किसी तरह के फैसले करने लगते हैं तो हम उसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, ना ही उस समय जब हमारा दिल दिमाग बिना रूके बक-बक में ही लगा रहता है। तब हम ’‘जो है’’ उसका वास्तविक अवलोकन नहीं कर पाते, हम अपने बारे में अपने पूर्वाभास/पूर्वानुमान ही देख पाते हैं जो अपने बारे में स्वयं हमने ही बनाये हैं। हममें से प्रत्येक ने अपने बारे में एक छवि बना रखी है कि हम क्या सोचते हैं या हमें क्या होना है और यह छवि या चित्र ही हमें हम जो यथार्थ में हैं, हमारी वास्तविकता के दर्शनों से परे रखता है, बचाता है। किसी चीज को सहज रूप से जैसी वो है वैसी ही देखना, यह संसार में सर्वाधिक कठिन चीजों में से एक है। क्योंकि हमारे दिलदिमाग बहुत ही जटिल हैं, हमने सहजता का गुण खो दिया है। यहां मेरा आशय कपड़ों और भोजन, केवल एक लंगोट पहनकर काम चलाने या उपवास व्रतों का रिकार्ड तोड़ने वाले अपरिपक्व कार्यों और मूर्खताओं से नहीं है जिन्हें तथाकथित संतो ने सम्पन्न किया है, मेरा आशय है उस सहजता से जो किसी चीज को सीधे-सीधे वैसा ही देख पाती है बिना किसी भय के। वो सरलता जो हमारी ओर उस तरह देख सके जैसे कि वास्तव में हम हैं बिना किसी विक्षेप के - जब हम झूठे बोलें, तो झूठ कहे... उसे ढंके छुपाये नहीं ना ही उससे दूर भाग जाये। अपने को समझने के अनुक्रम में हमें अत्यंत विनम्रता की आवश्यकता भी है। जब आप यह कहते हुए शुरूआत करते हैं कि ‘मैं खुद को जानता हूं‘ आप अपने बारे में सीखने समझने को तुरन्त ही बन्द कर चुके होते हैं। या यदि आप कहते हैं कि ‘‘मेरे अपने बारे में जानने समझने लायक कुछ नहीं है क्योंकि मैं केवल स्मृतियों,संकल्पनाओं, अनुभवों और परंपराओं का एक गट्ठर मात्र हूं’’ तो भी आप अपने को सीखने समझने की प्रक्रिया को ठप्प कर चुके होते हैं।
उस क्षण जब आप कुछ उपलब्ध करते हैं तो आप अपनी सहजता, सरलता और विनम्रता के गुणों पर विराम लगा देते हैं। उस क्षण जब आप किसी निर्णय पर पहुंचते हैं या ज्ञान से जॉंचपरख की शुरूआत करते हैं तो आप खत्म हो चुके होते हैं, उसके बाद आप हर जिन्दा चीज का पुरानी चीजों के सन्दर्भ अनुवाद करना शुरू कर देते हैं।
जबकि यदि आप पैरों पर खड़े न हों, आपकी जमीन पर पकड़ ना हो, यदि कोई निश्चितता ना हो, कोई उपलब्धि ना हो तो देखने और उपलब्ध करने की आजादी होती है। और जब आप आजाद होकर देखना शुरू करते हैं तो जो भी होता है हमेशा नया होता है। आश्वस्त या आत्मविश्वास से भरा हुआ आदमी, एक मृत मनुष्य होता है।

13 Jan 2010

वास्‍तव में जागरूकता है क्‍या ?



प्रश्न: आपने हमें बताया कि अपने दैनिक जीवन में गतिविधियों कार्यव्यवहार का अवलोकन करें लेकिन वह क्या या कौन सा अस्तित्व है जो यह तय करेगा कि किसका अवलोकन करना है और कब? कौन तय करेगा कि उसे अवलोकन करना चाहिये?
कृष्णमूर्ति: क्‍या आपने तय किया है कि अवलोकन करना है? या आप केवल अवलोकन कर रहे हैं? क्या आपने यह फैसला लिया, तय किया है और कहा है कि ”मैं अवलोकन करने और सीखने जा रहा हूँ?“ तब वहां प्रश्न हो सकता है कि कौन तय कर रहा है? तब वहां पर कहा ये जा रहा है कि ‘मैं जरूर करूंगा?’ और जब वह असफल रहता है, तब वह अपने आपको दंडात्मक भाषा में बार-बार कहता है -मैं करूंगा ही, मुझे करना ही है, तब वहां पर संघर्ष होता है तो मन-मस्तिष्क की वह अवस्था जब ‘‘अवलोकन करना’’ फैसला लिया जाकर, तय किया जाता है... वह कतई, कहीं से भी अवलोकन नहीं है। आप सड़क पर चले जा रहें है और आपके बगल से गुजरा आपने उसे देखा और और खुद से कहा - कैसा गंदा है वह, कैसी बदबू मार रहा है, मैं कामना करता हूं कि वह ऐसा और वैसा ना हो। जब आप अपने बगल से गुजरने वाले पर अपनी प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक रहते हैं, जब आप इस बात के प्रति जागरूक रहते हैं कि आप कोई फैसला दे रहें हैं, आलोचना कर रहें या किसी चीज को न्यायोचित ठहराने की कोशिश कर रहें हैं - तब आप अवलोकन कर रहे हैं। तब आप यह नहीं कहते कि मुझे फैसला नहीं करना है, मुझे न्यायोचित नहीं ठहराना है। जब कोई आपकी प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक होता है तब किसी तरह का निर्णय नहीं होता। आपने देखा होगा किसी ने कल आपकी बेइज्जती की... तुरन्त आपकी मांसपेशियां फड़कने लगती हैं, आप असहज और गुस्सा हो सकते हैं, आप उसे नापसंद करना शुरू कर देते हैं; तो उस नापसंदगी के प्रति जागरूक रहना है, उन सारी प्रतिक्रियाओं के प्रति जागरूक रहें, यह फैसला ना करें कि आपको अवलोकन करना है। अवलोकन करें, उस अवलोकन में कोई भी अवलोकनकर्ता नहीं होता, ना ही ‘अवलोक्य’ यानि ‘देखने वाला‘ और ‘देखा जा रहा’ अलग नहीं होते, तब केवल अवलोकन मात्र ही होता है। अवलोकनकर्ता तब पैदा होता है, जब आप अवलोकन में हेर-फेर या जोड़ना घटाना शुरू करते हैं। देखे गये को इकट्ठा कर उस पर नियंत्रण या कब्जा करने की कोशिश करते हैं। जब आप कहते हैं, वह मेरा मित्र है क्योंकि वह मुझे प्रसन्न करता है या वह मेरा मित्र नहीं है क्योंकि उसने मेरे बारे में बुरा गंदा कहा, या आपके बारे में कुछ सच ही कहा जो आप पसंद नहीं करते। तो अवलोकन को जमा, इकट्ठा या संग्रह करने वाला उसमें हेर फेर की गुंजाइश रखने वाला ही अवलोकनकर्ता है। जब आप बिना संग्रह करने या बिना हेर-फेर की इच्छा के अवलोकन करते हैं, तब कोई भी फैसला या निर्णय नहीं करते। आप सारा समय यही करते हैं इस अवलोकन में निसर्गतः प्राकृतिक रूप से विशेष निश्चित निर्णय प्राकृतिक परिणाम के रूप में आतें हैं पर यह वह निर्णय नहीं होते जो अवलोकनकर्ता, अवलोक्य या अवलोकन को इकट्ठा, जमा या संग्रह कर उन पर नियंत्रण या कब्जा कर, या उनमें हेर-फेर कर करता है।

Q:You tell us to observe our actions in daily life but what is the entity that decides what to observe and when? Who decides if one should observe?
Krishnamurti: 
Do you decide to observe? Or do you merely observe? Do you decide and say, `I am going to observe and learn'? For then there is the question: `Who is deciding?' Is it will that says, `I must'? And when it fails, it chastises itself further and says, `I must, must, must; in that there is conflict; therefore the state of mind that has decided to observe is not observation at all. You are walking down the road, somebody passes you by, you observe and you may say to yourself, `How ugly he is; how he smells; I wish he would not do this or that'. You are aware of your responses to that passer-by, you are aware that you are judging, condemning or justifying; you are observing. You do not say, `I must not judge, I must not justify'. In being aware of your responses, there is no decision at all. You see somebody who insulted you yesterday. Immediately all your hackles are up, you become nervous or anxious, you begin to dislike; be aware of your dislike, be aware of all that, do not `decide' to be aware. Observe, and in that observation there is neither the `observer' nor the `observed' - there is only observation taking place. The `observer' exists only when you accumulate in the observation; when you say, `He is my friend because he has flattered me', or, `He is not my friend, because he has said something ugly about me, or something true which I do not like,. That is accumulation through observation and that accumulation is the observer. When you observe without accumulation, then there is no judgement. You can do this all the time; in that observation naturally certain definite decisions are natural results, not decisions made by the observer who has accumulated.