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10 Jan 2016

स्वतंत्रता की प्रकृति क्या है? यह क्यों घटित होती है?

प्रश्न : स्वतंत्रता की प्रकृति क्या है? यह क्यों घटित होती है?
उत्तर : स्वतंत्रता की प्रकृति क्या है? जब अंग्रेज यहां से चले गये तो आपने स्वतंत्रता पाई, तो आपने इस आजादी का क्या किया? आपका स्वतंत्रता से आशय क्या है? क्या ये कि हम जो मर्जी आये करें? जो कि आप कर रहे हैं. चिंता से आजादी? पीड़ा से आजादी? शारीरिक पीड़ा से आजाद होना, मुक्ति पाना तुलनात्मक रूप से आसान है; किसी चिकित्सक के पास जाईये और ठीक हो जाईये या यदि आप किसी गंभीर रोग से ग्रस्त हैं तो आप उसे स्वीकार कर लेते हैं और उसे ढोते रहते हैं. तो स्वतंत्रता क्या है? क्या स्वतंत्रता कोई ऐसी चीज है जो 'स्वतंत्र नहीं होने से' अलग है. हम मोह से मुक्त हो सकते हैं यह बहुत ही आसान है; हो सकता है मैं किसी भार से मुक्त हो जाउं,लेकिन यह वास्तविक स्वतंत्रता नहीं है;  लेकिन स्वतंत्रता आखिर है क्या? जब आप स्वतंत्र मुक्त होते हैं तो क्या आप इस बात को जानते हैं, क्या आपको इस बात का भान होता है कि आप मुक्त हैं, आजाद हैं? मुझे आश्चर्य होता है यदि आप इस प्रश्न को समझें. जब आप कहते हैं कि मैं बहुत ही खुश हूं...यदि आप कभी खुश हुए हों...क्या वह वाकई खुशी होती है, या आप यह तब कह पाते हैं जब खुशी गुजर चुकी, चली गई होती है... आपके पास एक विचार के रूप में रह जाती है. क्या आपने कभी भी जाना... पहचाना, या सम्पूर्ण स्वतंत्रता को महसूस अनुभव किया (किसी चीज से नहीं) आजादी... जब आप कहते हैं कि मैं पूरी तरह मुक्त हूॅं, तब आप मुक्त नहीं होते. यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति कहे कि 'मैं जानता हूं'; क्योंकि तब वह वाकई में कुछ नहीं जानता.
तो स्वतंत्रता कुछ ऐसा है जो अनुभव नहीं किया जा सकता. जैसे कि 'मोक्ष' बुद्धत्व को अनुभव नहीं किया जा सकता. क्योंकि जहां भी अनुभव हो, कोई अनुभव करने वाला होता है; और अनुभव करने वाला, अनुभव को जानता पहचानता है, अन्यथा वह अनुभव ही ना कहलाये. तो स्वतंत्रता या आजादी कोई अनुभव नहीं है. यह 'अस्तित्व' या 'होने की' एक अवस्था है, ना कि ऐसी अवस्था जो कभी कहीं भविष्य में होगी.

27 Nov 2010

हमारा परम यथार्थ यही है।


कोई हमारी खुशामद करता है, हमें अपमानित या दुखी करता है या हमें चोट पहुंचाता है या प्यार जताता है तो इन सब बातों को हम संग्रह क्यों कर लेते हैं? इन अनुभवों को ढेर और इनकी प्रतिक्रियाओं के अलावा हम क्या हैं? हम कुछ भी नहीं हैं अगर हमारा कोई नाम ना हो, किसी से जुड़ाव ना हो, कोई विश्वास या मत ना हो। यह ना कुछ होने का भय ही हमें बाध्य करता है कि हम इन सब तरह के अनुभवों को इकट्ठा करें, संग्रह करें। और यह भय ही, चाहे वो जाने में हो या अनजाने में, यह भय ही है जो हमारी एकत्र करने... संग्रह करने की गतिविधियों के बाद हमें अन्दर ही अन्दर तोड़ने... विघटन और हमारे विनाश के कगार पर ले आता है।
यदि हम इस भय के सच के बारे में जान सकें, तो यह सत्य ही हमें इस भय से मुक्त करता है ना कि किसी भय से मुक्त होने के उद्देश्य से लिया गया कोई संकल्प। क्योंकि वाकई हम कुछ भी नहीं हैं। हमारा नाम और पद हो सकता है, हमारी संपत्ति और बैंक में खाता हो सकता है, हो सकता है आपके पास ताकत हो और आप प्रसिद्ध भी हों, लेकिन इन सब सुरक्षा उपायों के बावजूद हम कुछ नहीं हैं। आप इस नाकुछ होने, खालीपन से अनजान हो सकते हैं या आप सहज ही नहीं चाहते कि आप इस नाकुछपने को जाने लेकिन ये हमेशा यहीं.. आपके पास ही, अन्दर ही होता है..। आप होते ही नहीं, यही होता है, आप इससे बचने के लिए चाहे जो कर लें। आप इससे पलायन के लिए चाहे कितने ही कुटिल उपाय कर लें, कितनी ही वैयक्तिक या सामूहिक हिंसा कर लें, वैयक्तिक या सामूहिक पूजा-पाठ सत्संग कर लें, ज्ञान या मनोरंजन के द्वारा इससे बचें लेकिन जब भी आप सोयें या जागें- हमारा नाकुछपना हमेशा यहीं होता है। आप इस नाकुछ होने और इसके भय से केवल तभी संबंध बना सकते हैं जब आप, अपने इससे बचाव या पलायन के प्रति बिना पसंद या नापसंद के जागरूक रह सकें। 

आप इससे किसी अलग या वैयक्तिक शै की तरह नहीं जुड़े हैं। आप वो अवलोकनकर्ता नहीं हैं, जो इसे एक दूरी से इसे देख रहे हैं लेकिन आपके बिना, जो कि सोच रहा है, अवलोकन कर रहा है यह नहीं है। आप और यह नाकुछपना एक ही है। आप और यह नाकुछ होना एक संयुक्त घटना है दो अलग-अलग प्रक्रम नहीं हैं। यदि आप, जो कि सोचने वाले हैं, इससे डरे हुए हैं और इससे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे यह आपसे कुछ अलग या विपरीत है, तो आपके द्वारा इसके प्रति उठाया गया कोई भी कदम निश्चित ही.. अनिवार्यतः आपको भ्रम और उससे उपजे द्वंद्व और विपदाओं, संतापों में ले जायेगा।
जब यह पता चल जाता है कि इस नाकुछपने को को अनुभव करने वाले आप ही हैं तब वह भय जो कि तभी रहता है जब कि विचार करने वाला अपने विचार से अलग रहता है और इसलिए इससे कोई सम्बंध स्थापित करना चाहता है, यह भय पूरी तरह खो जाता है।  केवल तभी मन के लिए थिर या अचल हो पाना संभव होता है और इस शांति, निर्वेदपन में ही परमसत्य होता है।

18 Feb 2010

जीवन का लक्ष्य


अब यह कुछ ऐसी वास्तविकता है जिसे मैं निश्चित होकर कह सकता हूं कि मैंने उपलब्ध किया है। मेरे लिये, यह कोई सैद्धांतिक संकल्पना नहीं है। यह मेरे जीवन का अनुभव है,.... सुनिश्चित, वास्तविक और ठोस। इसलिए मैं इसकी उपलब्धि के लिए क्या आवश्यक है, यह कह सकता हूं। और मैं कहता हूं कि पहली चीज यह है कि हम जो है उसे वैसा का वैसा ही पहचाने यानि अपनी पूर्णता में कोई इच्छा क्या हो जायेगी, और तब प्रत्येक क्षण के अवलोकन में स्वयं को अनुशासित करें, जैसे कोई अपनी इच्छाओं को खुद ही देखे, और उन्हें उस अवैयक्तिक प्रेम की ओर निर्दिष्ट करे, जो कि उसकी स्वयं की निष्पत्ति हो। जब अप निरंतर जागरूकता का अनुशासन स्थापित कर लेते हैं। उन सब चीजों का जो आप सोचते हैं, महसूस करते हैं और करते है (अमल में लाते हैं) का निरंतर अवलोकन हम में से अधिकतर के जीवन में उपस्थित दमन, ऊब, भ्रम से मुक्त कर , अवसरों की श्रंखला ले आता है जो हमें संपूर्णता की ओर प्रशस्त करती है। तो जीवन का लक्ष्य कुछ ऐसा नहीं जो कि बहुत दूर हो, जो कि दूर कहीं भविष्य में उपलब्ध करना है अपितु पल पल की, प्रत्येक क्षण की वास्तविकता, हर पल का यथार्थ जानने में है जो अभी अपनी अनन्तता सहित हमारे सामने साक्षात ही है।

The goal of life

Now this reality is something which I assert that I have attained. For me, it is not a theological concept. It is my own life-experience, definite, real, concrete. I can, therefore, speak of what is necessary for its achievement, and I say that the first thing is the recognizing exactly what desire must become in order to fulfil oneself, and then to discipline oneself so that at every moment, one is watching one's own desires, and guiding them towards that all-inclusiveness of impersonal love which must be their true consummation. When you have established the discipline of this constant awareness, this constant watchfulness upon all that you think and feel and do, then life ceases to be the tyrannical, tedious, confusing thing that it is for most of us, and becomes but a series of opportunities towards that perfect fulfillment. The goal of life is, therefore, not something far off, to be attained in the distant future, but it is to be realised moment by moment in that now which is all eternity.

Early Works, circa 1930

28 Jan 2010

स्‍वाधीनता दी नहीं जा सकती, स्‍वाधीनता भीख में नहीं मिलती



स्‍वाधीनता दी नहीं जा सकती, स्‍वाधीनता कुछ ऐसा है जो तब आती है जब आप उसे नहीं खोजते, यह तब अपने आप आती है जब आप जान जाते हैं कि आप कैदी हैं। जब आप अपने ही बारे में जानते हैं कि आप यंत्रबद्ध से हैं, जब आप जानते हैं कि आप समाज, संस्कृति, परंपराओं और वो सब जो आप कहते हैं, उनके द्वारा चलाये जा रहे हैं। स्‍वाधीनता एक सामान्यपन है यह असामान्य चीज नहीं है और यह प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्णतः, बाहरी और आंतरिक रूप से होनी ही चाहिये। बिना स्‍वाधीनता के आपकी दृष्टि में स्पष्टता नहीं होती। बिना स्‍वाधीनता के आप प्रेम नहीं कर सकते। बिना स्‍वाधीनता के आप सत्य की खोज नहीं कर सकते। बिना स्‍वाधीनता के आप मन की सीमाओं से पार नहीं पा सकते। आपको अपने पूरे अस्तित्व से इसकी अभीप्सा जगानी होगी। जब आप अपने से ही इसकी अत्यंतिक मांग उठायेंगे तब आप अपने में ही इसे पा सकेंगे और यह जान सकेंगे कि स्‍वाधीनता, सामान्यपन सहजपन क्या है? और नियत चिन्हों पर चलने, लकीरें पीटने से स्‍वाधीनता नहीं मिलती, ना ही यह आदतों का प्रतिफल होती है।

Freedom cannot be given

Freedom cannot be given; freedom is something that comes into being when you do not seek it; it comes into being only when you know you are a prisoner, when you know for yourself completely the state of being conditioned, when you know you are held by society, by culture, by tradition, held by whatever you have been told. Freedom is order - it is never disorder - and one must have freedom, completely, both outwardly and inwardly; without freedom there is no clarity; without freedom you can't love; without freedom you can't find truth; without freedom you can't go beyond the limitation of the mind. You must demand it with all your being. When you so demand it, you will find out for yourself what order is - and order is not the following of a pattern, a design; it is not the outcome of habit.
J. Krishnamurti, Bombay, India, January 1968 Collected Works. Vol. VIII 


25 Jan 2010

ज्ञात से मुक्ति



सब तरह से मुक्त होना है, ज्ञात से मुक्ति, मन की वह अवस्था जो कहती है ‘‘मैं नहीं जानता’’ और जो उत्तर की राह भी नहीं तकती। ऐसा मन जो पूर्णतः किसी तलाश में नहीं होता ना ही ऐसी आशा करता है, ऐसे मन की अवस्था में आप कह सकते हैं कि ‘‘मैं समझा’’। केवल यही वह अवस्था होती है जब मन मुक्त होता है, इस अवस्था से आप उन चीजों को भी एक अलग ही तरह से देख सकते जिन्हें आप जानते हैं। ज्ञात से आप अज्ञात को नहीं देख सकते लेकिन जब कभी एक बार आप मन की उस अवस्था को समझ जाते हैं जो मुक्त है - जो मन कहता है कि ‘’’मैं नहीं जानता’’ और अजाना ही रहता है, इसलिए वह अबोध है.... उस अवस्था से एक नागरिक, एक विवाहित या आप जो भी हों वास्तविक कर्म करना शुरू करते हैं। तब आप जो भी करते हैं उसमें एक सुसंगतता होती है, जीवन में महत्व होता है।
लेकिन हम ज्ञात की सीमा में ही रहते हैं उसकी सभी विषमताओं के साथ, जीतोड़ प्रयासों, विवादों और पीड़ाओं के साथ और वहां से हम तलाश करते हैं उसकी, जो अज्ञात है, इसलिए वास्तव में हम मुक्ति नहीं चाह रहे हैं। हम जो चाहते हैं, वह है - जो है उसमें ही निरंतरता, वही पुरानी चीजों को और खींचना या लम्बाना... जो ज्ञात ही हैं।

18 Jan 2010

अकेले खड़े हो रहने में, सम्पूर्ण आजादी है



बिना किसी से जुड़े या बंधे हुए और निडर होकर, इच्छा को समझकर उससे मुक्त रहने..... इच्छा, जो कि भ्रमों की जननी है, उससे मुक्त रहने में आजादी है। अकेले रहने में ही असली और अनन्त शक्ति है। ज्ञान से ठुंसा हुआ, बंधनों में जकड़ा, नियोजित दिमाग कभी भी अकेला नहीं होता। जो धार्मिक या वैज्ञानिक या तकनीकी रूप से नियोजित हो वह सदैव सीमित होता है। सीमितता ही द्वंद्व का मुख्य घटक है। इच्छाओं में जकड़े आदमी के लिये सौन्दर्य एक खतरनाक चीज है।