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16 Sept 2009

यह हमारी एक परंपरा रही है जो कहती है आपको भले होने या सच्चा इन्सान बनने के लिए दुख उठाने होंगे। ईसाई जगत में भी और हिन्दुओं में भी... भले ही इसे दोनों अलग-अलग शब्दों में व्यक्त करते हैं। हिन्दू इसे कर्म वगैरह कहते हैं ईसाई कुछ और। और वो सब जगह कहते हैं कि आपको अनिवार्यतः दुख से गुजरना होगा, जो कि शारीरिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक मानसिक भी होगा। इसका मतलब यह कि आपको कठिनतम कोशिशें करनी होंगी अथक प्रयास करने होंगे, संताप झेलने होंगे, आपको अपना सर्वस्व देना होगा, सब त्यागना होगा, सबका दमन करना होगा।
यह हमारी परंपरा रही है। पूर्व और पश्चिम जगत दोनों में। जबकि दुख सारी मानवजाति के लिए समान ही है और ये कह रहे हैं कि आपको एक विशेष द्वार से गुजरना होगा।
क्या कोई एक व्यक्ति है जो इस वक्ता के साथ आए और कहे कि इस दुख को खत्म होना है, इस दुख से गुजरने की कोई जरूरत नहीं, इसे समाप्त करना है। आप समझ रहे हैं मैं क्या कह रहा हूं? दुख अनिवार्य नहीं है। यह जीवन का बहुत ही विध्वंसक तत्व है। दुख... खुशी की तरह ही वैयक्तिता का निर्माण करता है यानि दुख कुछ आपका निजी, रहस्यपूर्ण, केवल अपना.. अन्य किसी का नहीं। जबकि मानवता वैश्विक दुख से, अनन्त संताप से... युद्धों से, भुखमरी से, हिंसा से गुजर रही है- आप देख रहे हैं? वह विभिन्न रूपों में दुखों को झेल ही रही है इसलिए उसने यह स्वीकार कर लिया है कि यह तो अपरिहार्य है ही। तो क्या इन शब्दों को सकारात्मक रूप में लिया जाना चाहिए या खुद को बदलने के लिए जागरूकता के स्रोत के रूप में।