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19 Jan 2010

अकेला अबोधपन ही शौकिया, चावपूर्ण और मन की मौज-सा हो सकता है



केवल अबोधता, निर्दोषता ही चावपूर्ण और शौकिया हो सकती है। निर्दोषता के पास ही दुख नहीं होता, ना रोग-बीमारी हालांकि उसके पास इनके हजारों अनुभव होते हैं। अनुभव मन को भ्रष्ट नहीं करते लेकिन वो जो पीछे छोड़ जाते हैं, अवशिष्ट, खरोंचे और यादें, इनसे मन भ्रष्ट होता है। यह सब एक के ऊपर एक जमते जाते हैं और तब शुरू होता है दुख। यह दुख, समय होता है। जहां समय हो, वहां निर्दोषता सरलता नहीं होती। चाव, शौक से दुख पैदा नहीं हो सकता। दुख अनुभव है, अनुभव प्रतिदिन के जीवन का, पीड़ा से भरे जीवन और क्षणिक सुखों के अनुभव, भयों और निश्चितताओं के अनुभव। आप  अनुभवों से पलायन नहीं कर सकते, उनसे बच नहीं सकते लेकिन इनकी जड़ें आपके मन में गहरे घर कर जायें इसकी आवश्यकता भी नहीं है। इनकी जड़ें ही अन्य समस्याओं, वैषम्यताओं द्वंद्वों और निरंतर संघर्षों को पालती-पोसती हैं। इनसे बाहर आने का कोई उपाय नहीं है सिवा इसके कि आप रोज-ब-रोज, कल-आज-कल की की तरह मरते जायें।  केवल और अकेला स्पष्ट मन ही शौक और चाव से भरा हो सकता है। बिना शौक और चाव के आप पतों पर जमी ओस और पानी पर पड़ती सूर्य की किरणों को नहीं देख सकते। मन की मौज, शौक और चाव के बिना प्रेम भी नहीं होता।