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9 Apr 2012

खुद को जानना और बदलना


बातों, तर्क-वितर्क और व्याख्याओं का कोई अन्त नहीं होता। लेकिन व्याख्याएं, तर्क वितर्क और बातें, हमें किसी सीधी कार्यवाही तक नहीं ले जाते क्योंकि सीधी कार्यवाही, सीधे तुरन्त कर्म तक पहुंचने के लिए हमें मौलिक और आधारभूत रूप से बदलने की आवश्कता होती है। यदि शब्दों की गहराई से सोचें तो इसके लिए किसी भी तर्कवितर्क, लफ्फाजी, ना बहलाने-फुसलाने, ना किसी सूत्र, ना किसी से प्रभावित होने की आवश्यकता होती है.. कि हम मूलभूत रूप से बदल सकें। हममें बदलाव की आवश्कता तो है, लेकिन किसी विशेष संकल्पना या सिद्धांत के अनुसार नहीं, क्योंकि जब हमारे पास किसी कर्म के बारे में कोई विचार या धारणा होती है, तो कर्म चुक जाता है। कर्म और विचार या धारणा के बीच एक समय अन्तराल होता है, एक स्थगन/देरी होती है और इस समय अंतराल में उस विचार/धारणा के प्रति या तो प्रतिरोध होता है, या सुनिश्चितता या किसी विचार या धारणा की नकल/अनुकरण और उसे कर्म में परिणित करने की कोशिश। यही तो वह सब है जो हम में से अधिकतर लोग, हमेशा करते रहते हैं। हम जानते हैं कि हमें बदलना है, न केवल बाहरी तौर पर बल्कि गहरे तक--मनोवैज्ञानिक रूप से।

बाहरी बदलाव तो बहुत से हैं। वे हमें किसी कार्य प्रणाली/किसी तौर तरीके के अनुसार सुनिश्चित होने के लिए या कहें कि एक ढर्रे पर चलने के लिए बाध्य करते हैं, लेकिन रोजमर्रा की जिन्दगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए हममें गहन क्रंाति की आवष्यकता होती है। हममें से अधिकांष लोगों के पास कोई न कोई पूर्वनिर्धारित विचार या धारणा होती है कि हमें क्या होना चाहिए, परंतु हम कभी बुनियादी तौर से नहीं बदल पाते। हमें क्या होना चाहिए-इस संबंध में विचार और मनोभाव हममें कोई परिवर्तन नहीं ला पाते। हम तभी बदलते हैं जब यह नितंात आवष्यक हो जाता है, क्योंकि हम परिवर्तन की आवश्यकता को कभी सीधे-सीधे अपने सामने, साक्षात् नहीं देख पाते। हम कभी बदलना भी चाहते हैं, तो हममें भारी द्वंद्व और प्रतिरोध खड़ा हो जाता है और हम प्रतिरोध करने में, अवरोध खड़े करने में अपनी विपुल ऊर्जा व्यर्थ कर देते हैं ...

एक भला समाज बनाने के लिये मानव जाति को स्वयं में बदलाव लाना होगा। मन के इस आमूल परिवर्तन के लिये आपको और मुझे ऊर्जा, संवेग और जीवन-शक्ति तलाशनी होगी, पर्याप्त ऊर्जा के बिना यह संभव नहीं है। स्वयं में बदलाव लाने के लिये हमें विपुल ऊर्जा चाहिए, परंतु हम अपनी यह ऊर्जा द्वंद्व, प्रतिरोध, अनुकरण, स्वीकरण और अनुपालन में व्यर्थ गवंते हैं, किसी ढर्रे का अनुकरण करना अपनी ऊर्जा व्यर्थ गवांना है। अपनी ऊर्जा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये हमें स्वयं के प्रति सजग रहना होगा, अपनी ऊर्जा का हम कैसे-कैसे अपव्यय करते हैं इसके प्रति सजग रहना होगा।  यह युग-युगांतकारी समस्या है, क्योंकि अधिकांषतः मनुष्य अकर्मण्य होते हैं। वे स्वीकार करने, अनुपालन करने और अनुसरण करने को प्राथमिकता देते हैं। यदि हम इस अकर्मण्यता और गहराई तक अपनी जड़ें जमाये हुए आलस्य को जान लें और अपने मन-मस्तिष्क में प्रयासपूर्वक स्फूर्ति ले आएं तो इसकी प्रबलता पुनः एक द्वंद्व बन जाती है और यह भी ऊर्जा का अपव्यय ही है।

हमारी अनेक समस्याएं हैं और उनमें से एक है कि ऊर्जा का संरक्षण कैसे किया जाए--उस ऊर्जा का संरक्षण जो चेतना के प्रस्फुटन के लिये आवष्यक होती है-वह प्रस्फुटन नहीं जो सुनियोजित होता है या जो विचार द्वारा गढ़ी गई, एक जुगाड़ होता है, बल्कि वह प्रस्फुटन जो इस ऊर्जा का अपव्यय न किये जाने पर स्वमेव घटता है... हम अपनी चेतना में एक आमूल क्रंाति लाने के लिये संपूर्ण ऊर्जा को एकत्र करने की जरूरत पर बात कर रहे हैं, क्योंकि हमारे पास एक नया ताजा मन होना ज़रूरी है; तो, हमें जीवन को एक नितंात भिन्न दृष्टि से देखना होगा।

2 Sept 2011

कोई दुख है, यानि‍ अहं भी है।


चेतना की परिधि में की गई कोई भी प्रगति मात्र आत्म विकास है और आत्म विकास का अर्थ है दुख के मार्ग पर ही बढ़ते जाना, उसका अंत करना नहीं। यदि आप इसे ध्यानपूर्वक देखें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी। यदि मन का वास्ता सम्पूर्ण दुख से मुक्त होने से है तो फिर मन को करना क्या होगा? पता नहीं आपने कभी इस समस्या पर विचार किया है या नहीं, परन्तु कृपया इस पर अब विचार कर लें।

हम दुख उठाते हैं, हैं न? हम केवल शारीरिक बीमारियों और अस्वस्थता से ही दुखी नहीं रहते, बल्कि अपने अकेलेपन और आंतरिक गरीबी के कारण भी दुखी रहते हैं। हम दुखी रहते हैं क्योंकि हमें कोई प्रेम नहीं करता। जब हम किसी को प्रेम करते हैं और जवाब में प्रेम नहीं मिलता तो हम दुखी हो जाते हें। हर तरह से, सोचने का अर्थ ही है, दुख से भर जाना। अतः हमें लगता है कि सोचने का क्या लाभ? इसलिए हम किसी विश्वास को थाम लेते हैं, और फिर उसी से बंधकर रह जाते हैं, उसी को हम धर्म कह देते हैं। यदि मन देख पाए कि क्रमशः प्रगति व आत्म-सुधार द्वारा दुख का अंत संभव नहीं है, तो फिर मन करे क्या? क्या मन इस चेतना के पार जा सकता है, तरह तरह की इन व्यग्रताओं और विरोधाभासी इच्छाओं के पार? और क्या उस पार जाने में समय समय लगेगा? कृपया इसे समझिये, केवल शाब्दिक रूप से नहीं, बल्कि वस्तुतः, वास्तविक रूप में। यदि यह समय का मामला है तो आप पुनः उस घेरे में आ जाते हैं जिसे प्रगति कहते हैं। क्या आप यह देख पा रहे हैं? चेतना की परिधि में, किसी भी दिशा में उठाया गया कदम आत्मविकास ही होता है? और इसलिए वहां दुख की निरंतरता बनी रहती है। दुख को नियंत्रित व अनुशासित किया जा सकता है, उसका दमन किया जा सकता है, उसे युक्तिसंगत तथा अत्यंत परिष्कृत बनाया जा सकता है, परन्तु दुख की अन्र्तनिहित प्रबलता तब भी बनी रहती है। और दुख से मुक्त होने के लिए, उसकी इस प्रबलता से, इसके बीज मैं से, अहं से, कुछ बनने होने के इस सम्पूर्ण प्रक्रम से मुक्त होना ही होगा। पार जाने के लिए इस प्रक्रिया पर विराम लगना आवश्यक है।


अभिमान-स्वाभिमान, मैं, अहं, इगो, घमण्ड, होमी, आत्म, स्व आदि शब्द पर्यायवाची हैं। बचपन, जवानी हो या बुढ़ापा, जब कभी भी, जिस भी उम्र में हम अपने बारे में सोचने-समझने लगते हैं, तो उम्र के साथ ही हम चाहे-अनचाहे अपना व्यक्तित्व बनाने लगते हैं। विभिन्न तत्वों को जोड-घटा कर, उनका सामंजस्य कर, हम अपने ”व्यक्ति” को गढ़ने लगते हैं। व्यक्ति अपनी रूचि अरूचि अनुसार, विभिन्न तरह के लक्षण अपना लेता है। व्यक्तित्व के लिए अंग्रेजी में शब्द है ”पर्सोनेलिटी“, इसमें पर्सोना शब्द का हिन्दी अर्थ होता है मुखौटा। हम अपना एक ऐसा मुखौटा गढ़ते हैं, जैसा कि हम समाज को दिखना चाहते हैं। इसी तरह, हम खुद-स्वयं के लिए और विभिन्न संबंधों के लिए भी अलग-अलग या विभिन्न चीजों को जोड़कर मुखौटे बनाते हैं। समाज हमें और हम समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इन्हीं मुखौटों की सच्ची झूठी हकीकतों से पहचानते हैं। समाज में इसे किसी व्यक्ति के लक्षणों के रूप में जाना जाता है और तद्नुसार भला-बुरा, नगण्य, घमंडी-गंदा, बुद्धिजीवी, स्वार्थी आदि की सामान्य प्रतिक्रियाएं देता है, विशिष्ट लक्षणों को विशिष्ट मान्यताएं देता है। लेकिन किसी भी मुखौटे को गढ़ना यानि अहं को गढ़ना है। अपने मूल अस्तित्व से भिन्न एक कृत्रिम चीज गढ़ना है।

आत्म विकास का अर्थ अहं का विकास ही है। हम अपने बारे में जो भी भला-बुरा सोचकर, योजना बनाकर, जानबूझकर जो आदर्शों के लक्ष्य स्थापित कर प्रगति की सीढि़यां बनाते हैं, इनसे हम दुख के मार्ग पर ही चलते हैं। क्योंकि तय करके चलेंगे तो राह में कई रोढ़े आयेंगे, तकलीफें मिलेंगी, दुख होगा

इतना सोच-समझकर चलने पर भी दुख खत्म नहीं होता, तो हम अपनी विवेक-विचार क्षमता को ही निकम्मा जानकर, सोचने-समझने को एक तरफ रख देते हैं और किसी विश्वास को पकड़ लेते हैं। किसी किताब, गुरू या किसी पुरानी से पुरानी सिद्ध चीज के पीछे लग जाते हैं और उसमें लिखे की नकल करने लग जातें हैं, उनकी बातों का अंधानुकरण करने लग जाते हैं। लेकिन यह सब भी हम अपने व्यक्तित्व को, अहं को पुष्ट करने के एक तरीके की ही तरह करते हैं। इसमें भी कोई लक्ष्य या आदर्श और फिर उस पर आगे बढ़ने की रास्ते और सीढि़यां होती हैं, इन पर भी दुख रहता ही है।

कोई दुख है, इसका मतलब है कि हमारे मौलिक वास्तविक अस्तित्व के अतिरिक्त भी, एक इच्छा या चाह है और हम उसे पूरा करना चाह रहे हैं... वह पूरी नहीं होती और दुख होता है। हम अपनी वास्तविकता से इतर विचारों से एक कृत्रिम व्यक्तित्व या आदर्श या लक्ष्य गढ़ते हैं, जो कि असलीयत में अहं होता है। इस लक्ष्य की राह पर चलने से ही दुख होता है। अपने मूल स्वरूप, वास्तविक अस्तित्व के अतिरिक्त खुद को किसी भी अन्य कृत्रिम रूप में जानने, पहचानने, उसके बारे में विचार करने में ही दुख का बीज छिपा है। जब हमारे विचार, अपने बारे में कोई कृत्रिम छवि गढ़ते हैं तो हम दुख का बीज बोते हैं। जब हम अपनी छवि को पालते-पोसते हैं तो दुख को पालते-पोसते हैं, बढ़ा करते हैं।

इसी कुछ होने-बनने की चाह और तद्नुसार कोशिश करने और इसमें होने वाले दुख के कुचक्र से निकलने के लिए, हम क्या कर सकते हैं? अपनी चेतना के इस आयाम से पार होने के लिए, हम क्या कर सकते हैं?
आत्म विकास, अहं का विकास करने, आदर्श, लक्ष्य बनाकर चलने, दुनियां के हिसाब से चलने की कोशिश में हम दुख से निजात नहीं पा सकते... इससे तो किसी ना किसी तरह का दुख मिलेगा ही। हम जैसे कुदरती हैं, मौलिक रूप से हैं...वैसे ही रहें। किसी चीज को कल्पना, विचार, सिद्धांत या शाब्दिक रूप से समझने की बजाय, उसका साक्षात अवलोकन करें तो ही उसका यथार्थ समझ आ सकता है। यदि कोई दुख से मुक्त होना चाहता है, तो उसे अहं को बनाने वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया से वाकिफ होना होगा, इस अहं निर्माण की प्रक्रिया पर रोक लगानी होगी। अपने अस्तित्व की वास्तविकता में रहना होगा।

दुख, अवसाद, अहं, अभि‍मान, स्‍वाभि‍मान, व्‍यक्‍ि‍त, व्‍यक्‍ि‍तत्‍व, घमंड, इगो, Ego, Sorrow, Ending of sorrow, J Krishnamurthy, I, Self, Self Development, Personality, Persona

12 Jul 2011

मानव का अस्तित्व क्यों हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है?


इमेज से http://www.google.co.in/imgres?imgurl=http://api.ning.com/files/J2e साभार 

मानव का अस्तित्व क्यों हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है?
आप इसलिए है क्योंकि आपके माता-पिता ने आपको जन्म दिया है, और आप भारत के ही नहीं, विश्व की सम्पूर्ण मानवता के शताब्दियों के विकास का परिणाम हैं। आप किसी असाधारण अनूठेपन से नहीं जनमें हैं बल्कि आपके साथ पंरपरा की पूरी पृष्ठभूमि है। आप हिन्दू या मुस्लिम हैं। आप पर्यावरण-वातावरण, खानपान, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेशों और आर्थिक दबावों से उपजे हैं। आप अनेकों शताब्दियों का, समय का, द्वंद्वों का, दर्दों का, खुशियों का और लगाव चाव का परिणाम हैं। आपमें से हर कोई जब यह कहता है कि वह एक आत्मा है, जब आप कहते हैं कि आप शुद्ध ब्राहम्ण हैं, तो आप केवल परंपरा का, किसी संकल्पना का, किसी संस्कृति, भारत की विरासत, भारत की सदियों से चली आ रही विरासत का ही अनुकरण कर रहे होते हैं।
प्रश्न है कि जीवन में आपका ध्येय क्या हो? तो पहले तो आपको अपनी पृष्ठभूमि को समझना होगा। यदि आप पंरपरा, संस्कृति को, समूचे परिदृश्य को नहीं समझते, तो आप अपनी पृष्ठभूमि से उपजे किसी आईडिये, मिथ्या अर्थ को मान लेंगें और उसे ही अपने जीवन का ध्येय कहने लगेंगे। माना कि आप हिन्दू हैं और हिन्दू संस्कृति में पले बढ़े हैं। तो आप हिन्दूवाद से उपजे किसी सिद्धांत या भावना को चुन लेंगे और उसे अपने जीवन का ध्येय बना लेंगे। लेकिन क्या आप किसी अन्य हिन्दू से अलग, पूरी तरह अलग तरह से सोच सकते हैं? यह जानने के लिए कि हमारे अंतर्तम की क्या संभावनाएं या हमारा अंतर्तम क्या गुहार लगा रहा है, क्या कह रहा है? यह जानने के लिए किसी व्यक्ति को इन सभी बाहरी दबावों से, बाहरी दशाओं से मुक्त होना ही होगा। यदि मैं किसी चीज की जड़ तक जाना चाहता हूं तो मुझे यह सब खरपतवार या व्यर्थ की चीजें हटानी होंगी जिसका मतलब है मुझे हिन्दू मुसलमान होने से हटना होगा और यहां भय भी नहीं होना चाहिए, ना ही कोई महत्वाकांक्षा, ना ही कोई चाह। तब मैं कहीं गहरे तक पैठ सकता हूं, और जान सकता हूं कि हकीकत में यथार्थ संभावनाजनक, या सार्थक क्या है। लेकिन इन सबको हटाये बिना मैं जीवन में सार्थक क्या है इसका अंदाजा नहीं लगा सकता। ऐसा करना मुझे केवल भ्रम और दार्शनिक अटकलबाजियों में ही ले जायेगा।

तो यह सब कैसे होगा?
पहले तो हमें सदियों से जमी धूल को हटाना होगा, जो कि बहुत आसान नहीं है। इसके लिए गहरी अन्र्तदृष्टि की जरूरत है। इसमें आपकी गहरी रूचि होनी चाहिए। संस्कारों का निर्मूलन, परंपराओं, अंधविश्वासों, सांस्कृतिक प्रभावों की धूल को हटाने के लिए खुद को... अपने आपको समझने की आवश्यकता होती है ना कि किताबों से या किसी शिक्षक से सीखने की... यही ध्यान है।
जब मन अपने आपको सारे अतीत की धूल से साफ कर लेता है, मुक्त कर लेता है.. तब आप अपने अस्तित्व की सार्थकता के बारे में बात कर सकते हैं। आपने यह प्रश्न किया है, तो अब इस पर आगे बढ़ें, तब तक लगे रहें जब कि यह ना जान लें -कि क्या कोई ऐसी किसी वास्तविक, मौलिक, अभ्रष्ट चीज है भी? यह ना कहें कि ”हां, वाकई ऐस कुछ है“ या ”ऐसा कुछ नहीं होता“। बस इस पर काम करना जारी रखें, तलाशने, पाने, जानने की कोशिश ना करें क्योंकि आप जान नहीं पायेंगे। एक ऐसा मन जो भ्रष्ट है वो उस चीज को कैसे जान सकता है जो कि शुद्ध है, भ्रष्ट नहीं है। क्या मन खुद को साफ शुद्ध कर सकता है? हां कर सकता है। और यदि मन अपने आपको शुद्ध साफ कर सकता है, तब आप देख सकते हैं, तब आप जान सकते हैं, पता लगा सकते हैं। मन का परिष्करण, शुद्धिकरण ध्यान है।

20 Feb 2010

कुछ भी समझने के लिए आपको उसके साथ जीना होगा



कुछ भी जानने समझने के लिए आपको उसके साथ जीना होगा, उसका अवलोकन करना ही होगा, आपको उसके सभी पहलू, उसकी सारी अंर्तवस्तु, उसकी प्रकृति, उसकी संरचना, उसकी गतिविधियां जाननी होंगी। क्या आपने कभी अपने ही साथ जीने की कोशिश की है? यदि कि है तो आपने यह देखना भी शुरू किया होगा कि आप एक स्थिर अवस्था में ही नहीं रहते, मानव जीवन एक ताजा और जिन्दा चीज है। और जिन्दा चीज के साथ रहने के लिए आपका मन भी उसी तरह ही ताजा और जिन्दा होना चाहिये। मन कभी भी जिन्दा नहीं रह सकता जब तक कि विचारों, फैसलों और मूल्यों में जकड़ा हुआ हो। अपने मन, दिलदिमाग की गतिविधियों, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के अवलोकन की दिशा में अनिवार्य रूप से आपके पास एक मुक्त मन होना चाहिये। वो मन नहीं - जो सहमत या असहमत होता हो, कोई पक्ष ले लेता हो और उन पर टीका टिप्पणियां या वाद विवाद करता हो, मात्र शब्दों के विवाद में ही उलझा रहता हो। बल्कि एक ऐसा मन हो जिसका ध्येय समझ-बूझ का अनुसरण करना हो क्योंकि हम में से अधिकतर लोग यह जानते ही नहीं कि हम अपने ही अस्तित्व की ओर कैसे देखें, कैसे उसे सुनें.... तो हम यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि हम किसी बहती नदी के सौन्दर्य को देख पायेंगे या पेड़ों के बीच से गुजरती हवा को सुन पायेंगे।
जब हम आलोचना करते हैं या किसी चीज के बारे में किसी तरह के फैसले करने लगते हैं तो हम उसे स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते, ना ही उस समय जब हमारा दिल दिमाग बिना रूके बक-बक में ही लगा रहता है। तब हम ’‘जो है’’ उसका वास्तविक अवलोकन नहीं कर पाते, हम अपने बारे में अपने पूर्वाभास/पूर्वानुमान ही देख पाते हैं जो अपने बारे में स्वयं हमने ही बनाये हैं। हममें से प्रत्येक ने अपने बारे में एक छवि बना रखी है कि हम क्या सोचते हैं या हमें क्या होना है और यह छवि या चित्र ही हमें हम जो यथार्थ में हैं, हमारी वास्तविकता के दर्शनों से परे रखता है, बचाता है। किसी चीज को सहज रूप से जैसी वो है वैसी ही देखना, यह संसार में सर्वाधिक कठिन चीजों में से एक है। क्योंकि हमारे दिलदिमाग बहुत ही जटिल हैं, हमने सहजता का गुण खो दिया है। यहां मेरा आशय कपड़ों और भोजन, केवल एक लंगोट पहनकर काम चलाने या उपवास व्रतों का रिकार्ड तोड़ने वाले अपरिपक्व कार्यों और मूर्खताओं से नहीं है जिन्हें तथाकथित संतो ने सम्पन्न किया है, मेरा आशय है उस सहजता से जो किसी चीज को सीधे-सीधे वैसा ही देख पाती है बिना किसी भय के। वो सरलता जो हमारी ओर उस तरह देख सके जैसे कि वास्तव में हम हैं बिना किसी विक्षेप के - जब हम झूठे बोलें, तो झूठ कहे... उसे ढंके छुपाये नहीं ना ही उससे दूर भाग जाये। अपने को समझने के अनुक्रम में हमें अत्यंत विनम्रता की आवश्यकता भी है। जब आप यह कहते हुए शुरूआत करते हैं कि ‘मैं खुद को जानता हूं‘ आप अपने बारे में सीखने समझने को तुरन्त ही बन्द कर चुके होते हैं। या यदि आप कहते हैं कि ‘‘मेरे अपने बारे में जानने समझने लायक कुछ नहीं है क्योंकि मैं केवल स्मृतियों,संकल्पनाओं, अनुभवों और परंपराओं का एक गट्ठर मात्र हूं’’ तो भी आप अपने को सीखने समझने की प्रक्रिया को ठप्प कर चुके होते हैं।
उस क्षण जब आप कुछ उपलब्ध करते हैं तो आप अपनी सहजता, सरलता और विनम्रता के गुणों पर विराम लगा देते हैं। उस क्षण जब आप किसी निर्णय पर पहुंचते हैं या ज्ञान से जॉंचपरख की शुरूआत करते हैं तो आप खत्म हो चुके होते हैं, उसके बाद आप हर जिन्दा चीज का पुरानी चीजों के सन्दर्भ अनुवाद करना शुरू कर देते हैं।
जबकि यदि आप पैरों पर खड़े न हों, आपकी जमीन पर पकड़ ना हो, यदि कोई निश्चितता ना हो, कोई उपलब्धि ना हो तो देखने और उपलब्ध करने की आजादी होती है। और जब आप आजाद होकर देखना शुरू करते हैं तो जो भी होता है हमेशा नया होता है। आश्वस्त या आत्मविश्वास से भरा हुआ आदमी, एक मृत मनुष्य होता है।

31 Jan 2010

क्या कोई स्वयं की ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है


क्या कोई ऐसा खोजी है, कोई ऐसा प्रश्नकर्ता है जो अपने बारे में अन्य लोगों द्वारा दी गई सारी सूचनाओं, सारे ज्ञान को पूर्णतः त्याग कर, अपने आपको जानने की कोशिश करे? क्या कोई ऐसा करेगा? कोई भी नहीं, क्योंकि यह बहुत ही सुरक्षित और आसान है कि हम प्रभुत्व स्वीकार लें। तब कोई भी अपने आपको सुरक्षित संरक्षित महसूस करता है। लेकिन यदि कोई पूर्णतः अन्य लोगों, किसी के भी प्रभुत्व प्रभाव को त्याग दे, तो कोई कैसे अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है? क्योंकि स्वत्व कोई स्थायी चीज तो है नहीं है, यह निरंतर गतिशील है, जिन्दा है, कार्य कर रहा है। कोई उस चीज के बारे में कैसे देखे जाने... अवलोकन करे जो निरंतर आश्चर्यजनक रूप से अत्यंत गतिशील है, पूरे आग्रह के साथ, आकांक्षाओं, लोभ, रोमांस के साथ? जिसका तात्पर्य है - क्या कोई अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है अपनी सभी इच्छाओं और भयों सहित, बिना अन्य लोगों से ज्ञान लिये या बिना उस ज्ञान के जो उसने अपने आप को जानने के लिए स्वयं ही इकट्ठा कर रखा है।

Can one observe the movement of the self?

One is a seeker, one is questioning; therefore one rejects completely all information provided by others about oneself. Will one do that? One will not, because it is much safer to accept authority. Then one feels secure. But if one does completely reject the authority of everybody, how does one observe the movement of the self? - for the self is not static, it is moving, living, acting. How does one observe something that is that is tremendously active, full of urges, ambitions, greed, romaticism? Which means: can one observe the movement of the self with all of its desires and fears, without knowledge acquired from others or which one has acquired in examining oneself?
J. Krishnamurti, Krishnamurti Foundation Trust, Bulletin 40

27 Jan 2010

आश्रम और समुदाय स्थापित करने का गोरखधंधा



श्रीमन प्रतिभा और गूढ़ता हमेशा ही आवरण में सहेजने चाहिये, क्योंकि इनको ज्यादा उघाड़ना केवल अन्धेपन का कारण ही बनता है। इसलिए मेरा यह मन्तव्य कभी भी नहीं रहता कि मैं लोगों को अन्धा करूं या अपनी प्रवीणता का प्रदर्शन करूं, यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण है। लेकिन जब कोई चीजों को बहुत ही साफ साफ देखता है तो वह उन्हें अपने से परे रखने में सहायता नहीं पाता। इन्हें ही आप प्रतिभा और गूढ़ता के रूप में सोचते हैं।  मेरे लिये, मैं जो भी कह रह हूं, वह प्रतिभापूर्ण नहीं है, ऐसा सहज निश्चित है। यह एक तथ्य है। एक और बात, आप चाहते हैं कि मैं एक आश्रम या समुदाय की स्थापित करूं। अब बतायें, क्यों? आप मुझसे ये क्यों चाहते हैं कि एक समुदाय की स्थापना करूं? आप कह रहे हैं कि वह एक सन्दर्भ या पहचान के रूप में कार्य करेगा, या वो कुछ एक सफल प्रयोग के रूप में रखा या दिखाया जा सकेगा... यही तो है सन्दर्भ या पहचान का तात्पर्य ...क्या ऐसा ही नहीं है? एक समुदाय जहां इसी तरह की सारी चीजें चलायी जायेंगी। यही है जो आप चाहते हैं। मैं नहीं चाहता कि किसी आश्रम या समुदाय की स्थापना हो, आप चाहते हैं। अब, आप क्यों इस तरह के समुदाय की मांग कर रहे हैं? मैं आपको बताता हूं कि क्यों? यह बहुत ही रूचिकर है, नहीं? आप ऐसा इसलिए चाहते हैं कि आप अन्य लोगों के साथ उससे जुड़ना चाहते हैं और एक समुदाय गढ़ना चाहते हैं, लेकिन आप अपने ही साथ एक समुदाय आरंभ करना नहीं चाहते, आप चाहते हैं कि कोई अन्य ऐसा करे, और जब कोई समुदाय की स्थापना कर दे तब आप उसे ज्वाइन कर लें। दूसरे शब्दों में श्रीमन आप अपना ही समुदाय आरंभ करने से घबराते हैं इसलिए एक सन्दर्भ रूप में कोई आश्रम या समुदाय चाहते हैं। यही है, आप चाहते हैं कि कोई आपको किसी तरह की जिम्मेदारी या दायित्व दे, संस्थापित करे और आप उसे प्रभुतापूर्वक सहेजे सम्हालें, चलायें। अन्य शब्दों में आप अपने आप में आत्मविश्वस्त नहीं हैं इसलिए आप चाहते हैं कि किसी समुदाय की स्थापना हो और आप उसे ज्वाइन कर लें। श्रीमन, आप जहां भी हैं आप वहीं एक समुदाय पा सकते हैं, लेकिन वह समुदाय आप तभी पा सकते हैं जब आपमें आत्मविश्वास हो। समस्या यह है कि आपमें आत्मविश्वास ही नहीं है। आपमें आत्मविश्वास क्यों नहीं है? मेरा आत्मविश्वास का अभिप्राय क्या है? एक व्यक्ति जो कोई परिणाम को उपलब्ध करना चाहता है, वह वो सब प्राप्त करता है जो वह पाना चाहता है। एक व्यापारी, एक वकील, एक पुलिसिया, जनरल ये लोग आत्मविश्वास से भरे हैं, आत्मविश्वास से पूर्ण होते हैं। लेकिन यहीं आप में आत्मविश्वास नहीं है क्यों? एक साधारण सा कारण है कि आपने प्रयोग नहीं किया है, आपने जो भी समझा है उसे व्यवहार में नहीं लायें हैं। जब आप इसे प्रयोग में लायेंगे तब आपके पास आत्मविश्वास होगा। दुनिया में कोई भी व्यक्ति आपको आत्मविश्वास नहीं दे सकता, न कोई किताब, ना कोई शिक्षक आपको आत्मविश्वास से नहीं भर सकते। प्रोत्साहन आत्मविश्वास नहीं होता। प्रोत्साहन अत्यंत सतही, बचकाना, अपरिपक्व चीज है। आत्मविश्वास आता है जब आप प्रयोग में उतरते हैं। जब आप राष्ट्रीयता से प्रयोग में उतरते हैं.. तो देखिये। बुद्धि तो बहुत ही छोटी सी चीज है, तो जब भी आप प्रयोग में हो, व्यावहारिक हों .... आपमें आत्मविश्वास होता है क्योंकि आपका मन तेज द्रुतगामी और लचीला होता है तब आप जहां भी होंगे वहीं आश्रम होगा, आप अपनेआप ही एक समुदाय की स्थापना कर सकेंगे। यह स्पष्ट है, क्या नहीं? आप किसी भी समुदाय से अधिक महत्वपूर्ण हैं। यदि आप किसी समुदाय की सदस्यता ग्रहण करें तो आप वही रहेंगे जो कि आप हैं - कोई आपका वरिष्ठ होगा, आपके लिए नियम कायदे कानून होंगे, अनुशासन होंगे, आप उस बेकार के समुदाय में वही कोई श्री राम या श्री राव होंगे। आप किसी समुदाय की आकांक्षा तभी करते हैं जब आप चाहते हैं कि आपको कोई निर्देशित करे, आपको बताये कि आपको क्या करना है। एक आदमी जो अपने आपको निर्देशित हुए देखना चाहता है वह अपनी आत्मविश्वासहीनता को जानता है। आप आत्मविश्वास पा सकते हैं पर आत्म विश्वास संबंधी बातें करके ही नहीं अपितु जब आप प्रयोग में उतरेंगे तब, आप कब कोशिश करेंगे श्रीमन। केवल आप ही हैं जो सन्दर्भ हो सकते हैं ना कि कोई समुदाय या आश्रम। और जब कोई समुदाय या आश्रम आपकी पहचान बने आप अपने आप को खो देते हैं। मुझे आशा करता हूं कि बहुत से लोग आपस में जुड़े और प्रयोग करें, आत्मविश्वास से भरें इसलिए इस कार्य में इकट्ठा आयें लेकिन वे लोग जो बाहर ही रहना चाहते हैं और कहते हैं "मैं सदस्यता ग्रहण करना चाहता हूं इसलिए आप कोई समुदाय क्यों नहीं स्थापित करते," यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण प्रश्न करने वाले हैं।


Why do you want me to found a community?

Question:
Instead of addressing heterogeneous crowds in many places and dazzling and confounding them with your brilliance and subtlety, why do you not start a community or colony and create a reference for your way of thinking? Are you afraid that this could never be done?
Krishnamurti:
Sir brilliance and subtlety should always be kept under cover, because too much exposure of brilliance only blinds. It is not my intention to blind or show cleverness, that is too stupid; but when one sees things very clearly, one cannot help setting them out very clearly. This you may think brilliant and subtle. To me, what I am saying is not brilliant: it is the obvious. That is one fact. The other is, you want me to found an ashram or a community. Now, why? Why do you want me to found a community? You say that it will act as a reference, that is, something which can be pointed out as a successful experiment. That is what a reference implies, does it not? - a community where all these things are being carried out. That is what you want. I do not want to found an ashram or a community, but you want it. Now, why do you want such a community? I will tell you why. It is very interesting, is it not? You want it because you would like to join with others and create a community, but you do not want to start a community with yourself; you want somebody else to do it, and when it is done you will join it. In other words, Sir, you are afraid of starting on your own, therefore you want a reference. That is, you want something which will give you authority of a kind that can be carried out. In other words, you yourself are not confident, and therefore you say, `Found a community and I will join it'. Sir, where you are you can found a community, but you can found that community only when you have confidence. The trouble is that you have no confidence. Why are you not confident? What do I mean by confidence? The man who wants to achieve a result, who gets what he wants, is full of confidence the business man, the lawyer, the policeman, the general, are all full of confidence. Now, here you have no confidence. Why? For the simple reason you have not experimented. The moment you experiment with this, you will have confidence. Nobody else can give you confidence; no book, no teacher can give you confidence. Encouragement is not confidence; encouragement is merely superficial, childish, immature. Confidence comes as you experiment; and when you experiment with nationalism, wit even the smallest thing, then as you experiment you will have confidence, because your mind will be swift, pliable; and then where you are there will be an ashram, you yourself will found the community. That is clear, is it not? You are more important than any community. If you join a community, you will be as you are - you will have somebody to boss you, you will have laws, regulations and discipline, you will be another Mr. Smith or Mr. Rao in that beastly community. You want a community only when you want to be directed, to be told what to do. A man who wants to be directed is aware of his lack of confidence in himself. You can have confidence, not by talking about self-confidence, but only when you experiment, when you try. Sir, the reference is you, so, experiment, wherever you are, a whatever level of thought. You are the only reference, not the community; and when the community becomes the reference, you are lost. I hope there will be lots of people joining together and experimenting, having full confidence and therefore coming together; but for you to sit outside and say, `Why don't you form a community for me to join?', is obviously a foolish question.

J. Krishnamurti The Collected Works, Vol. V
Look at the truth

1 Jan 2010

सम्पूर्ण प्रयोगशाला आपके भीतर ही है



जबकि सम्पूर्ण प्रयोगशाला आपके भीतर ही है तो आप किसी अन्य आदमी का अध्ययन क्यों करना चाहते हैं? अपने आप का अध्ययन करें, आप ही सारी मानवता हैं, वृहत दूरूहपन द्वंद्वात्मकता, अत्यंतिक संवेदना आप ही हैं। आप इस बात का अध्ययन क्यों करना चाहते हैं कि कोई अन्य आदमी के बारे में क्या कहता है। और आप ही तो हैं जो अन्य आदमी से संबंधित हैं, यही तो समाज है। आपने ही तो यह भयावह, कुरूप दुनिया गढ़ी है जो अब पूरी तरह अर्थहीन होती जा रही है, यही तो वजह है कि दुनियां भर के युवा विद्रोही हो रहे हैं। मेरे लिये यह एक अर्थहीन जीवन है। आदमी ने जो यह दुनियां गढ़ी है उसकी अपनी ही मांगों का निक्षेप या फल है, उसकी अपनी ”तुरन्त चाहिये” तात्कालिक प्राथमिकताओं, आदतों, महत्वाकांक्षाओं, लाभ और ईष्र्या का निचोड़ है। आप सोचते हैं कि आप मानव के संबंध में सभी पुस्तकों का अध्ययन कर लेंगे और समाज में जाएंगें तो आप अपने आपको समझ सकेंगे। लेकिन क्या यह ज्यादा सरल और सहज नहीं है कि आप अपने से ही शुरूआत करें?

30 Dec 2009

अन्य लोगों से अपनी तुलना करना छोड़ें



जब मैं अपनी तुलना अन्य लोगों से नहीं करता तब मैं समझ सकता हूं कि ”मैं क्या हूं?“ जीवन भर, बचपने से.. स्कूली उम्र से लेकर हमारे मरने तक, हमें सिखाया जाता है कि हम अपनी तुलना अन्य लोगों से करें, जबकि जब भी मैं किसी से अपनी तुलना करता हूं तो मैं अपने आप को ही नष्ट कर रहा होता हूं। स्कूल में, एक साधारण स्कूल में भी जहां कई लड़के होते हैं उनमें जो कक्षा में माॅनीटर है... वह असल में क्या है? आप लड़के को नष्ट कर रहे हैं। यही सब हम जिन्दगी भर करते हैं। तो अब... क्या हम बिना तुलना किये जी सकते हैं - बिना अन्य किसी से भी तुलना किये? इसका मतलब है अब कुछ भी ऊंचा या नीचा नहीं होगा, अब ऐसा नहीं होगा कि आपकी नजर में कोई एक श्रेष्ठ हो उच्च हो और कोई एक, हीन और निकृष्ट। आप वास्तव में वही हैं, जो कि आप हैं और ”जो आप हैं“ उसे जानने के लिए यह तुलना करने का तरीका आपको छोड़ना होगा, यह प्रक्रिया अनिवार्यतः समाप्त करनी होगी। यदि मैं हमेशा अपने को किसी संत या किसी शिक्षक या किसी बिजनेसमेन, लेखक, कवि या अन्य लोगों से तुलना में रखूं, तो मेरे साथ क्या होगा? मैं क्या कर रहा हूं? मैं इनसे तुलना कर रहा हूं ... कुछ पाने के अनुक्रम में, किसी उपलब्धि की दिशा में या कुछ होने के चक्कर में और यदि मैं किसी से अपनी तुलना नहीं करता तो... तब मैं यह जानना शुरू करता हूं कि वास्तव में ”मैं क्या हूं“। मैं क्या हूं, यह जानने की शुरूआत अधिक मोहक है, ज्यादा रूचिकर है और अपने को जानना, सभी मूर्खतापूर्ण बेवकूफी भरी तुलनाओं के पार ले जाता है।

29 Dec 2009

हमारा ”स्व“ या “आत्म” कई खण्डों वाली पुस्तक है




अपने आप को जानने-समझने के लिए धैर्य, सहनशीलता, जागरूकता चाहिये क्योंकि हमारा स्व या आत्म अनेक खण्डों वाले महाग्रंथ के समान है जो केवल एक ही दिन में नहीं पढ़ा जा सकता लेकिन यदि आप पढ़ना शुरू करें तो आपको इसका प्रत्येक शब्द, प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक पैराग्राफ अपरिहार्य रूप से पढ़ना चाहिये क्योंकि इसके प्रत्येक शब्द, वाक्य और प्रत्येक पैराग्राफ में आपकी सम्पूर्णता के बारे में इशारे हैं। इसकी शुरूआत ही इसका अंत भी है। यदि आप जानते हैं कि कैसे पढ़ा जाता है तो आप परमज्ञान, परम समझदारी पा सकते हैं।

28 Dec 2009

क्या मैं स्वयं ही जाग्रत हो सकता हूँ ?



वो चाहे खुशगवार हों या पीड़ाजनक, अपने आपको जागृत रखने के लिए हम अनुभवों पर निर्भर रहते हैं; किसी भी प्रकार की चुनौती हो हम अपने आपको जागा हुआ रखना चाहते हैं। जब कोई यह सच जान जाता है कि चुनौतियों और अनुभवों पर निर्भरता, दिमाग को केवल और ज्यादा कुंद या जड़ बनाती है और यह निर्भरता हमें जागे रहने नहीं रहने देती..... जब कोई यह समझ जाता है कि हमने हजारों युद्ध लड़ें हैं और एक बात भी नहीं सीखी कि हम अपने पड़ोसी को कल किसी क्षणिक सी उत्तेजना पर कत्ल कर सकते हैं... तब कोई कह सकता है कि जागे जागृत रहने के लिए यह अनुभव और चुनौतियों पर निर्भरता हम क्यों चाहते हैं? और क्या यह संभव है कि बिना किसी चुनौती के हम होशपूर्ण-जागृत-जागे रह सकें? यह ही मुख्य-असली प्रश्न है। हम चुनौतियों, अनुभवों पर यह सोच कर निर्भर रहते हैं कि ये हमें रोमांच, ज्यादा जिन्दापन, और ज्यादा त्वरितता देंगे, इनसे हमारा दिमाग और तेज होगा, पर इनसे ऐसा नहीं होता। तो यदि संभव हो तो मैं अपने आप से कहूं सम्पूर्ण रूप से जागृत-सचेत-होशपूर्ण के लिए.... आंशिक या टुकड़ों में नहीं या अपने अस्तित्व के कुछ बिन्दुओं पर ही नहीं... पर पूरी तरह जागृति, क्या बिना किसी चुनौती के, बिना किसी अनुभव के द्वारा। इसका मतलब ये भी है कि क्या मैं खुद ही प्रबुद्ध हो सकता हूँ, खुद को ही जगाये रह सकता हूँ बिना किसी बाहरी प्रकाश पर निर्भर हुए? इसका मतलब यह नहीं है कि यदि मैं किसी संवेदना उत्तेजना पर निर्भर नहीं रहकर, निरर्थक हो रहूंगा। क्या मैं कोई ऐसी रोशनी हो सकता हूँ जो बाह्य-उन्मुखी ना हो? यह सब जानने समझने के लिए हमें अपने में ही बहुत गहरे जाना होगा, मुझे खुद को ही पूरी तरह जानना होगा, सम्पूर्णतः.... अपने भीतर का एक-एक कोना मेरा जाना समझा होना चाहिये, कोई भी ऐसा कोना नहीं होना चाहिए जो दबा, ढंका, छिपा या रहस्यपूर्ण हो। सब कुछ खुला होना चाहिए। हमें अपने स्व, अपनत्व के, हमारेपन के सम्पूर्ण क्षेत्र के प्रति जागृत होना चाहिये, जो कि हमारी वैयक्तिता और हमारी सामाजिकता की चेतना है। यह जागरण केवल तब हो सकता है जब हमारा मन, वैयक्तिक और सामाजिक चेतना की परिधि के पार जाये तभी कोई संभावना है कि कोई अस्तित्व स्वतः प्रबुद्ध हो सके और बाह्य-उन्मुखी न हो।

7 Dec 2009

अपने ही बारे में सीखने और जानने के लिए नम्रता की अत्यंत आवश्यकता है



अपने ही बारे में सीखने और जानने के लिए नम्रता की अत्यंत आवश्यकता होती है। अगर आप यह कहते हुए सीखना चाहते हैं ”कि मैं अपने को जानता हूँ“ तो वहीं पर अपने को सीखने जानने की प्रक्रिया का अंत कर रहे हैं। यदि आप यह कहते हैं कि ”मुझ में अपने बारे में सीखने जानने के लिए है ही क्या क्योंकि मैं जानता हूं कि मैं क्या हूं? - मैं यादों, संकल्पनाओं, अनुभवों, पंरपराओं और सशर्त, ढांचों में ढला अस्तित्व हूं जो अनन्त विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं देता है, तो इस तरह भी आप अपने बारे में सीखना जानना रोक रहे हैं। अपने आप के बारे में जानने समझने के लिए भी विचारणीय विनम्रता की जरूरत होती है। तो कभी भी न सोचें कि आप कुछ जानते हैं... यहीं से अपने आपको शुरू से जाना जा सकता है और इस दौरान संग्रह प्रवृत्ति को छोड़ दें। क्योंकि जिस क्षण से आप अपने बारे में ही खोज करते हुए सूचनाओं का संग्रह आरंभ करते हैं उसी क्षण से यही ज्ञान उस खोज का आधार बन जाता है जिसे आप अपनी ही जांच या सीखना कह रहें हैं इसलिए जो भी आप सीखते जानते हैं वो उसी आधार में जुड़ना शुरू हो जाता है जो कि आप पहले से ही जानते हैं। विनम्रता मन की वह अवस्था है जिसमें संग्रह या इकट्ठा करने की प्रवृत्ति नहीं होती, जिसमें यह कभी नहीं कहा जाता कि ”मैं जानता हूं।“

14 Nov 2009



आप अपनी जिन्दगी को ही एक पर्यवेक्षक के दृष्टिकोण से देखते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में जो आपकी जिन्दगी से अलग है। इस प्रकार आप खुद को दो हिस्सों - पर्यवेक्षक यानि देखने वाले और पर्यवेक्षण यानि देखे जाने वाले के बीच बांट लेते हैं। यूं अपने आपको दो हिस्सों में बांट लेना, आपके सभी द्वंद्वों, संघर्षों, दुखों, भयों, निराशाओं की जड़ बन जाता है।
इसी प्रकार आपकी ये बांटने की प्रवृत्ति इंसान इंसान को, राष्ट्रों, धर्मों, समाजिक बंटवारों का कारण बनती है - और जहां भी बंटवारा होगा, वहां संघर्ष भी होगा। यह नियम है, यह कारण है, तर्क है। एक तरफ पाकिस्तान एक तरफ भारत यूं तो ये संघर्ष कभी खत्म नहीं होगा, बाह्रम्ण और अ-ब्राम्ह्रण... इस बंटवारे में नफरत पलती है। इस प्रकार समस्त संघर्षों के साथ बाहरी तौर पर बंटवारे उसी प्रकार के हैं जिस प्रकार आप आन्तरिक रूप से अपने आपको पर्यवेक्षक ओर पर्यवेक्षण में बांट लेते हैं। क्या आप इस बात को समझ रहे हैं? यदि आप इस बात को नहीं समझ रहे हैं तो आप आगे नहीं जा सकते। एक ऐसा मन जो सतत संघर्ष वैषम्य में हो वो वैसे ही एक सताया हुआ मन होता है, संत्रास झेलता हुआ मन होता है, मुड़ा तुड़ा और विक्षिप्त मन होता है वो वैसा ही होता है जैसे कि वर्तमान में हम हैं।

13 Nov 2009



क्या हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में कोई ऐसा तरीका हो सकता है जिसमें हम हर तरह के मनोवैज्ञानिक नियन्त्रण को मात्र अपने होने भर पर ही समाप्त कर दें? क्योंकि नियंत्रण का अर्थ है कोशिश - प्रयास जिसका मतलब है हमारा स्वयं को ही ‘‘नियंत्रक’’ और ‘‘नियंत्रित’’ के बीच में बांट देना। मैं गुस्से में हूं तो मुझे गुस्से पर काबू करना चाहिए, मैं सिगरेट पीता हूं तो मुझे सिगरेट नहीं पीनी चाहिए। हम कुछ और ही कहते हैं जो कि हमारे द्वारा ही गलत समझा जाता है और हमारे ही द्वारा शायद अस्वीकार भी किया जाता है और ये चीजें एकसाथ चलती हैं क्योंकि यह एक सामान्य सी उक्ति हो गया है कि सारी जिन्दगी एक निंयत्रण है- यदि आप नियंत्रण नहीं करते हैं तो आप अपने आप को ही बहुत छूट दे रहे हैं, आप असंवेदनशील हैं, आपके होने का कोई मतलब नहीं है, इसलिए आपको अपने पर काबू करना चाहिए। धर्म, दर्शन, शिक्षक, आपका परिवार, माँ बाप ये सब आपको प्रेरित करते हैं कि आपको अपने पर निंयत्रण करना चाहिए। हम कभी भी ये प्रश्न नहीं करते - कि ये नियंत्रक कौन है?   ................. आप खुद ही तो न।

23 Sept 2009

कोई अपने ही बारे में, छवि क्यों बनाता है?

किसी भी व्यक्ति की अपने बारे में एक संकल्पना, खुद का ही छविचिन्ह या छवि होती है - कि उसे क्या होना चाहिए, क्या है, या यह कि उसे क्या नहीं होना चाहिए।
आईये जाने कोई भी व्यक्ति अपने बारे में छवि क्यों बनाता है? क्योंकि वो इसका अध्ययन कभी नहीं करता कि वह वास्तव में वो क्या है, यथार्थतः क्या है? हम सोचते हैं कि हमें यह होना चाहिए या वह होना चाहिए, आदर्श, नायकों, या कल्पना या इतिहास के उदाहरण पुरूषों की तरह।

हम जब भी जागरूक होते हैं हमारी अपने ही बारे में कल्पना, आदर्श हम पर हमला करते हैं। हमारा अपने ही बारे में जो खयाल है वह, हम जो तथ्यरूप.. वास्तव में हैं उससे.. पलायन बन जाता है। लेकिन जब आप स्वयं को तथ्य रूप में देखतें हैं जो कि आप वास्तव में हैं, तब कोई भी आपको दुख नहीं पहुंचा सकता। तब यदि कोई व्यक्ति झूठा है और उसे कोई झूठा कहता है तो इसका मतलब यह नहीं कि झूठा कहने वाला उसे दुख पहुंचा रहा है, क्योंकि यह तो तथ्य ही है। लेकिन यदि आपका अपने बारे में यह खयाल है कि आप झूठे व्यक्ति नहीं हैं, और कोई कहता है कि आप झूठें हैं तो आप गुस्सा हो जाते हैं, हिंसक हो जाते हैं।

हम लोग हमेशा एक आदर्शलोक में जीते हैं, कल्पनालोक में जीते हैं... मिथकों में जीते हैं उस जगत में नहीं जो यथार्थतः है। जो वास्तव में है उसे देखने के लिए... उसका जांच पूछ परख, यथार्थ से परिचय के लिये - हमें पूर्वाग्रह, पूर्व में ही निर्णय, मूल्यांकन, उसके बारे में भय आदि बिल्कुल नहीं होना चाहिए।

22 Sept 2009

हम अकेले नही रह सकते

अब देखिये: जब आप सुनते हैं, यदि आप सुन रहें हैं, जब आप क्या कहा जा रहा है, यह सुनते हैं और उसमें हाजिर रहते हैं, न कि ये कि आप जो कहा जा रहा है उसे समझने की कोशिश करते हैं, हाजिर होने में मात्र जागरूकता होती है आप नहीं। वह क्षण जब आप जागरूक नहीं होते, आप एक केन्द्र होते हैं, आपका अहं या केन्द्र होता है। यह केन्द्र ही समस्याएं पैदा करता है। आपने जाना? नहीं? महानुभाव यह बहुत ही गंभीर बात है अगर आप इसमें गहरे जाएं। अगर एक ऐसा मन चाहिए जो समस्यारहित हो, और इसलिए अनुभव रहित भी तो यह बहुत ही गंभीर बात है। वह क्षण जब आप कुछ अनुभव करते हैं, और आप अनुभव को संचित करना, सहेजना चाहते हैं तब यह अनुभव एक स्मृति या या याद बन जाता है और आप इसे और अधिक मात्रा में चाहते हैं। तो वह मन जिसको कोई समस्या नहीं होगी, कोई अनुभव भी नहीं होगा। ओह! आप नहीं जानते कि इसमें कितनी सुन्दरता है।
क्या मैं आपसे आदरपूर्वक कह सकता हूं कि आप कृपया किसी के भी अनुयायी न बनें, अनुसरण न करें। लेकिन आप इसमें सहायता नहीं करते।
महोदय, इसका कारण जाने: हम अकेले नही रह सकते, हम सपोर्ट सम्बल चाहते हैं, हम दूसरों की ताकत चाहते हैं, हम चाहते हैं कि हमें एक समूह के रूप में पहचाना जाए, एक संस्थान के साथ। यह संस्थान (अब, कृष्णमूर्ति फाउंडेशन) उस तरह का संस्थान नहीं है, यह केवल पुस्तकें आदि प्रकाशित करने के लिए है। आप इसका अनुसरण नहीं कर सकतेे, क्योंकि आप किताबें नहीं छाप रहे, आप स्कूलों को नहीं चला रहे। पर संकल्पना है कि हम किसी चीज का हिस्सा बनें, ठीक? और किसीसे सम्बद्ध होना या अनुसरण ताकत देता है, ठीक? अगर मैं भारत में हूं और कहता हूं कि मैं हिन्दू नहीं हूं तो लोग मुझे जिस दृष्टि से देखेंगे वह खतरनाक होगी।

एक प्रश्नकर्ता ने कहा है कि जब वह एक चिन्हविशेष पर केन्द्रित होते हैं तो ताकत का अहसास करते हैं। हम सभी चिन्हों से जुड़े हैं। ईसाई जगत चिन्हांे से भरा पड़ा है। ठीक? सारा ईसाईजगत धार्मिक चिन्ह, छवियों, संकल्पनाओं, विश्वास, आदर्शों, रिवाजों से आच्छादित है इसी तरह का माहौल भारत में भी है बस नामकरण अलग है। जब कोई किसी विशाल समूह से सम्बद्ध रहता है जो समूह एक ही चिन्ह में श्रद्धा रखता है, वह एक अनन्य शक्ति प्राप्ति का अहसास करता है, यह प्राकृतिक है या बहुत ही आप्राकृतिक? यह आपमें जोश बनाये रखता है। यह आपमें यह अहसास बनाये रखता है कि आप कम से कम उसे चिन्ह से कुछ ज्यादा ही जानते समझते हैं।

पहले तो आप एक चिन्ह की खोज करते हैं - आप देखिये कि आपका मन कैसे काम करता है? पहले तो हम एक चिन्ह खोजते हैं, चर्च या मन्दिर मंे एक छवि, या यदि आप मस्जिद में हैं तो कोई अक्षर हम सब खोजते गढ़ते हैं और फिर उनकी पूजा शुरू कर देते हैं। हम उस सब की पूजा करते हैं जो हमने ही गढ़ा रचा या बनाया खोजा है यह मानकर कि वो हमारे अपने विचार से परे है.. जो हमें ताकत देता है शक्ति देता है।

तो क्या होता है? अब जबकि चिन्ह या संकेत या छवि जो कि वास्तविक नहीं है। पर चिन्ह या छवि हमें संतुष्टि देते हैं। चिन्हों को देखने, सोचने, उनके साथ रहने से हमें जोश, जीवनी शक्ति मिलती है। निश्चित ही जो विचार से सृजित हैं, मनोवैज्ञानिक रूप से वह संभ्रम और कल्पनाएं ही होंगे, क्या नहीं?

आप मुझे गढ़ सकते हैं, मैं आशा करता हूं कि आप ऐसा न करें, पर आप मुझे अपने गुरू के रूप में गढ़ लेते हैं। मैंने गुरू बनना सदा अस्वीकार किया है, यह एक बहुत ही बेहूदा चीज है क्योंकि मैंने देखा है कि किस तरह अनुयायी या शिष्य गुरू को और गुरू शिष्यों अनुयायियों को बर्बाद करते हैं। आप यह सब समझ रहें हैं न। मैंने यह देखा है। मेरे लिये यह सारी बात एक वीभत्सता है। क्षमा करें में रूक्ष भाषा का प्रयोग कर रहा हूं। पर जैसे आप मेरी एक गुरू की छवि बनाते हैं, वक्ता की छवि बनाते हैं, तो सारा गुरूघंटालों का धंधा अभी यहीं शुरू हो जाता है।
तो सर्वप्रथम यदि मैं कुछ इंगित करना चाहता हूं तो ये कि इन सब बातों में दिग्भ्रमित करने वाले चर्च और मन्दिर हैं, मस्जिदें हैं जो कि सच नहीं हैं, वास्तविक नहीं हैं। यह सब मन्दिर, मस्जिद, चर्च - पुजारियों के द्वारा, विचारों के द्वारा, हमारे डर के द्वारा, हमारी चिंता, भविष्य के प्रति अनिश्चितता से गढ़े गये हैं। आप समझें। हम एक संकेत या छवि बनाते हैं और उसी में फंस जाते, जकड़ जाते हैं। तो सर्वप्रथम हमें यह वास्तविकता जाननी होगी कि विचार वो चीज पैदा करता है जो हमं मनोवैज्ञानिक रूप से संतुष्टि प्रदान करती है, खुशी देती है। ठीक? वो हमें सुविधा देती है। ये संकेत या छवियां हमें अत्यंतिक सुविधा देती है। यह कुलमिलाकर संभ्रम है पर यह मुझे सुविधा देता है इसलिए मैं इससे परे कुछ देखता ही नहीं।

21 Sept 2009

आइये, अपने को ही समझें।

हम दुख को एक द्विअर्थी शब्द की तरह देखें, एक विरोधाभासी शब्द की तरह। आप उसे नकार दें, प्रश्न करें, संदेह करें, कुछ भी करें पर इसका सत्य खोजें। हमें इसका यथार्थ उत्तर खोजना है, सब लोगों द्वारा मिलजुलकर, इसलिए नहीं कि कोई ऐसा कह रहा है। क्या दुख का अंत हो सकता है? हमारा अस्तित्व ही शोकमय हो गया है, कई तरह से हम दुखी होते हैं, किसी अपमान में, किसी की हेय दृष्टि से, किसी की अकड़ से अहंकारपूर्ण मुद्रा से, बचपन में मिले घावों से, हमारे चेतन में गहरे पैठे किसी दुख से, या अचेतन में किसी के दुख से, या किसी को खो देने के दुख से। तो यदि आप गहराई से जाँचें, एक तथ्य की तरह लेकर तो यह है कि हम किसी न किसी तरह...... कभी अभिभावकों से, कभी शिक्षकों से, कभी स्कूल के अन्य छात्रों से, हमेशा ही दुखी होते रहे हैं। ये जख्म गहरे हैं, ढंके हुए हैं, और हम इनके चारों तरफ एक दीवार खड़ी कर देते हैं कि कोई हमें दुख न पहुंचा सके, और यही दीवार भय पैदा करती है।

आप में से कोई यह पूछ सकता है कि क्या हम यह चोटें या जख्म पूरी तरह अपने अस्तित्व से पोंछ सकते हैं? बिना खरोंचों के निशान छोड़े? आइये ये सब हम मिलकर देखें करें! मैं यह आश्वस्त होकर कह सकता हूं कि आप, हम सभी, जरूर कभी न कभी चोट खा चुके हैं, सब अलग-अलग तरह से अलग-अलग प्रकार से। यह दुख जमी बर्फ की तरह जमा हुआ है। इसे हम जीवन भर ढोते रहते हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि हम अधिकाधिक अकेले होने लगते हैं, दुख के प्रति ही सचेत रहने लगते हैं, दुख को गंभीरता से लेने लगते हैं। हम नहीं चाहते कि हमें और दुख मिले तो हम अपनी चारों और एक दीवार खड़ी करते हैं। जैसे-जैसे यह दीवार ऊंची होती जाती है हमारा अकेलापन बढ़ता जाता है। आप सभी यह सब जानते हैं। तो कोई भी यह कह सकता है कि क्या ऐसा हो सकता है कि हम चोट न खाएँ? भविष्य की चोटों से, दुख से ही नहीं, आज के दुखों से बच सकें,, और इसी तरह अतीत के दुखों से जो किसी को बचपन में मिले उन्हें भी अपने व्यक्तित्व से पोंछ सकें, वो दुख जिन्हें हम जिन्दगी भर ढोते आए हैं।

अगर कोई वाकई गंभीर है तो उसे स्वयं इसका कारण खोजना होगा। जानना होगा कि हम दुखी क्यों होते हैं? इसका कारण क्या है? यह दुख क्या है? कौन दुखी हो रहा है और किससे?

कृपया इसे समझें, जानें। क्या यह संभव है कि कोई अपमान करे और हम उसे अपने व्यक्तित्व पर अस्तित्व पर अंकित ही न करें। कोई दुत्कारे, धौंस दिखाए उसे हम लिख कर ही न रख लें। कोई क्रोध दिखाए गाली बके, अधैर्य दिखाये तो इन सब को हम पंजीकृत ही न करें। हमें इसकी गहराई तक जाना होगा। तो क्या आप इसके लिए तैयार हैं?

हमारा मस्तिष्क एक यंत्र है गतिविधियों को अंकित करने वाला। एक कम्प्यूटर की तरह जिसमें डाटा रिकार्ड या अंकित कर जमा रखा जाता है। हमारा मस्तिश्क सारी गतिविधियों को अंकित कर लेता है क्योंकि इससे उसे सुरक्षितता मिलती है, एक तरह की आत्म सुरक्षा। ठीक? क्या आप सब यह चीजें समझ रहे हैं? तब जब कोई कहता है - तुम मूर्ख हो या अन्य कोई अपमान करता है तो हमारे मस्तिष्क की त्वरित प्रतिक्रिया होती है और वह इन सब बातों को अंकित करता जाता है। मौखिक रूप से इसका प्रभाव पड़ता है कि यदि आप दुख ही लेना चाहते हैं तो यह शब्द मस्तिष्क में अंकित हो जाएंगे, ठीक उसी तरह जैसे कोई तारीफ करे और आपका मस्तिष्क उसे एक आनन्ददाय याद की तरह अंकित कर ले। ठीक? तो क्या यह अंकित करने की प्रक्रिया किसी अंत पर आ सकती है?

मस्तिष्क का तो काम ही है सभी तरह की बातों को रजिस्टर मंे अंकित करे चले जाना। एक तरह से यह जरूरी भी है नहीं तो आप कैसे जानेंगे कि आपका घर कौन सा है, आप कार कैसे ड्राइव कर पाएंगे, या कोई भाषा कैसे बोल पांऐगे। लेकिन मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएं, अहसास अंकित न हों, क्या ऐसा हो सकता है? आप यह सब समझ रहे हैं न?

अब कोई पूछ सकता है कैसे? कैसे मैं एक अपमान या एक तारीफ, एक प्रशंसा को अंकित होने से रोक सकता हूं? प्रशंसा का अहसास तो बहुत ही सुखदायक होता है और मैं उसे एक याद की तरह संजोना भी चाहता हूं, पर दुख और अपमान इन सबको तो मैं खत्म कर देना चाहता हूं, बचना चाहता हूं।

लेकिन दोनो घटक, अपमान हो या प्रशंसा, दोनों ही अंकित किये जाते हैं। तो क्या यह संभव है कि मनोवैज्ञानिक रूप से अंकित न किए जाएं? ठीक! अब हम इसे मिलजुलकर एक होकर समझें, आगे बढ़ें।

वह क्या है जो चोटिल होता है, दुखी होता है। आप कह सकते हैं ‘‘मैं चोट खाता हूं, दुखी होता हूं’’, तो प्रश्न उठता है यह कौन सी चीज, यह कौन सा अस्तित्व है या पहचान है जो दुख अनुभव करती है? क्या यह कोई वास्तविक या यथार्थ चीज है? इसका मतलब क्या है? क्या यह कुछ ठोस चीज है, संवेदनशील चीज है, कुछ ऐसी चीज है जिसके बारे में हम आप बात कर सकें या जिसे जान सकें?

या यह कोई ऐसी चीज है जिसे आपने खुद ही अपने लिये गढ़ लिया है!! आप समझ रहे हैं न?
ठीक है, मैंने अपने खुद के बारे में एक छवि गढ़ी है, हममें में बहुत से लोग ऐसा ही करते हैं। यह छवि बचपन से ही गढ़ना शुरू हो जाती है। जैसे कि लोग कहते हैं आपको अपने भाई जैसा होना चाहिए जो कि बहुत ही चतुर और चालाक है, आपको उससे बेहतर और अच्छा होना चाहिए। यह छवि नियमित रूप से बढ़ती है, हमारी शिक्षा में, हमारे संबंधों में और इसी तरह हमारे सभी तरह के व्यवहार में। यह छवि ही ‘मैं’ बन जाती है। यह छवि है जो मैं को धारण किये हुए है, दुखी होती, या चोट खाती है। ठीक।

तो जब तक कि हमारी कोई छवि है तब तक हमेशा ये सभी लोगों द्वारा कुचली जाती है, रौंदी जाती है। इस छवि का हमसे बेहतर बुद्धिमान लोग ही नहीं, साधारण आम लोगों द्वारा भी उसका यही हश्र होता है। तो क्या यह संभव है कि हम अपनी ही एक छद्म छवि का सृजन न करें? अपने ही छवि निर्माण से बचें? आईये हम सब इस विषय में गहरे चलें। आईये साथ चलें और समझें कि यह छवि गढ़ने वाली यांत्रिकता मशीनरी क्या है?समझें कि ये कैसे होती है?

यह ‘मेरे देश’ की छवि, नेताओं की छवि, पूजारियों की छवि, भगवान की छवि - आप समझ रहें हैं न। यह सब छवियों के निर्माण का ही नतीजा हैं। यह छवियां कौन बनाता है? यह छवियाँ क्यों बनाई जाती हैं? आईये समझें कि ये छवियां किसके द्वारा और क्यों बनती हैं?

हम यह आसानी से देख समझ सकते हैं कि यह छवियां सुरक्षा, आत्म सुरक्षितता के कारणों से गढ़ी जाती हैं। क्योंकि यदि मैं एक ऐसे देश में जहां कि कम्युनिस्ट नहीं हैं वहां खुद को कम्युनिस्ट कहलवाऊं मुझे ज्यादा तकलीफों का सामना करना पड़ेगा। या एक ऐसे देश में जो कम्युनिस्टों का है, मैं अपने आपको कम्युनिस्टों से अलग कर लूं तो भी मुझे दैनिक जीवन में कठिनाईयां आएंगी।

लेकिन यदि मैं अपने आपको किसी छवि से जोड़ लेता हूं, या एक छवि के साथ जुड़ा पहचाना जाता हूं तो इससे मुझे एक अत्यंत सुरक्षित अहसास का बोध होता है। इसलिए बस इसलिए, इन्हीं कारणों से हम सब किसी न किसी रूप में छवियाँ गढ़ते या उनसे सम्बद्ध रहते हैं। किसी राजनीतिक दल से जुड़ना या धार्मिक संगठन या संप्रदाय से। किसी विचारधारा से जुड़ना या किसी समूह विषेश से। इससे छवि निर्माण या सम्बद्धता सतत जारी रहते हैं।

आप जानते हैं कि यह छवियां कौन गढ़ता है? इसकी मशीनरी क्या है? इसकी प्रक्रिया क्या है? आइये हम सब मिलजुल कर सोचे विचारें, बिना किसी अन्य कि प्रतीक्षा किये? स्वयं ही समझे बूझें।
तो यहां पर कृपया ध्यान से पढ़ें सुने--- क्या यह मशीनरी यह सारी प्रक्रिया एकसम्पूर्ण जागरूकता या अवधानपूर्णता से खत्म हो सकती है? यह यह सारी प्रक्रिया या मशीनरी तब ही सक्रिय होती है या काम करती है जब हम बेहोश से जीते हैं?
यदि मैं सम्पूर्ण रूप से जागरूक होता हूँ और आप मुझे बेवकूफ कहते हैं....आप मुझे मूर्ख कहते हैं तो यह मौखिक पत्थर मुझ पर चोट का प्रभाव करता है और एक प्रतिक्रिया पैदा होती है कि तुम भी बेवकूफ या मूर्ख हो... मैं यह शब्द ग्रहण करता हूं, इन शब्दों का अर्थ लेता हूं वह अपमान जो आप मुझे इन शब्दों के द्वारा देना या अहसास कराना चाहते है... यदि मैं तत्काल उसी समय इस सारी प्रक्रिया के प्रति जागरूक रहता हूं जब आप इन शब्दों का प्रयोग करते हैं? अगर मैं उस समय सम्पूर्ण रूप से जागरूक रहता हूं और आप इन अपमान पैदा करने वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं तो यह जागरूकता एक ढाल की तरह नहीं या उस यांत्रिक चीज की तरह नहीं जो आप दुख से बचने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं? इस जागरूकता में, सावधानता में कोई स्वीकार करने वाला ग्रहण करने वाला नहीं होता। लेकिन जब आप मुझे मूर्ख या बेवकूफ कहें तो यदि मैं जागरूक नहीं रहता तो मस्तिष्क इसे अपमान की तरह अंकित कर लेगा। आप इसे एक प्रयोग की तरह कर के आजमा सकते हैं।
इस तरह केवल अतीत के घाव ही नहीं, अतीत की चोटें ही नहीं बल्कि इससे आपका मन मस्तिष्क और संवेदनशील होंगे, ग्रहणशील और खुले होंगे, संचलन में ज्यादा सक्षम होंगे, ज्यादा जीवंत होंगे, ज्यादा सक्रिय होंगे।

उस दीवार की ऊंचाई कितनी होगी जो आपने अपने ईर्द गिर्द खड़ी कर रखी है? क्या यह संभव है कि वह हटे, खुले आप संवेदनशील हों, ज्यादा जिंदा हों और तथ्यात्मक रूप से समझें कि इस दीवार की... इसे बनाने की कतई आवश्यकता नहीं है। संपत्ति की सुरक्षा के लिए दीवारें खड़ी की जाती हैं - ध्यान से सुनें। धन संपत्ति के इर्द गिर्द दीवारें खड़ी की जातीं हैं और आपने खुद से ही एक सम्पत्ति की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है।
आप समझ रहें है कि यहां क्या कहा जा रहा है?
तो फिर से समझें - हम सब इस सब तरह की बातें क्यों करते हैं? पहले हम अपने इर्द-गिर्द दीवारें उठाते हैं और फिर उन दीवारों को गिराने की कोशिशें करते हैं और खुद को इन दीवारों को गिराने में असमर्थ पाते हैं, हम इससे बचते हैं, हम इससे दूर भागने की कोशिश करते हैं, या इसी दीवार के पीछे छिप जाते हैं। हम सब इस तरह की बातें क्यों करते हैं? हम अपने ही लिये समस्याएं क्यों गढ़ते हैं? हम क्यों निरे सहज, स्वस्थ और सरल नहीं रह सकते?

अब यह प्रश्न किया जा सकता है- एक समस्या क्या है? कोई समस्या क्या है? आपको क्या समस्या है? किसी की भी क्या समस्या है? वह जो कि कोई सुलझाने में समर्थ नहीं हो रहा हों। ठीक। आप उसको आकलन करते हैं, या एक मनोवैज्ञानिक के पास जाते हैं, या चर्च मंे जाकर स्वीकार कन्फेशन करते हैं, या स्वयं ही उसका आकलन संरचनात्मक अध्ययन करते हैं और फिर भी समस्या ज्यों कि त्यों बनी रहती है, उसके कारण बने रहते हैं। और आप प्रभावों की जाँच करते रहते हैं, प्रभावों का पर्यवेक्षण करते हैं। ठीक? और कारण की विचित्रता देखिये... कारण ही प्रभाव हो जाता है - आप समझ रहे हैं? और प्रभाव ही कारण बन जाता है। क्या यह सब अति बौद्धिक है?

तो हम सब के लिए समस्या क्या है? हमारी समस्या क्या है? और हमें समस्याए क्यों हैं? चलिये एक सामान्य सी समस्या लेते हैं - क्या ईश्वर है? मैं इसे एक तुच्छ उदाहरण के रूप में ले रहा हूं। क्योंकि हम कहते हैं ‘‘यदि ईश्वर है तो उसने इस विशाल दैत्याकार विश्वका निर्माण कैसे किया? ठीक। तो यह सब अधिक से अधिक और अधिक समस्याएं उत्पन्न करता है। सर्वप्रथम तो हम मान लेते हैं कि यह ईश्वर ने बनाया है, यह संसार और उसके बाद हम उसमें शामिल हो जाते हैं। या मैं एक विशेष संकल्पना रखता हूं, और उस संकल्पना या आदर्श के अनुसार जीना चाहता हूं इसलिए यह एक समस्या बन जाती है। मुझे बिल्कुल नहीं दिखता या बिल्कुल समझ नहीं आता कि हम सब को क्यों एक आदर्श के अनुसार होना चाहिए? सर्वप्रथम तो हम एक आदर्श बनाते हैं, फिर उस आदर्श के अनुसार जीने की कोशिश करते हैं जो समस्याएं पैदा होने की जड़ बन जाता है। मैं अच्छा नहीं हूं, .. मुझे अच्छा होना चाहिए तो बताइये कि मुझे क्या करना होगा यह सब प्राप्त करने के लिए आदि आदि। तो देखिये हम कैसे समस्या बनाते हैं, सर्वप्रथम कुछ काल्पनिक छाया सा गढ़ते हैं, जैसे अहिंसा एक काल्पनिक अप्रकट चीज है। तथ्य हिंसा है। हिंसा तथ्य है, और तब मेरी समस्या पैदा हो जाती है। कि कैसे मुझे अहिंसक बनना है? आप समझ रहे हैं न। अगर मैं हिंसक हूं तो मुझे उससे निपटने देना चाहिए न कि अहिंसक बनने से।

तो एक स्तर पर यह सब है जो हम कर रहे हैं? या यह कि मैं अपनी पत्नी के साथ नहीं निभा पा रहा। मैं इस सब के बारे में नर्वस रहता हूं। मैं किसी या अन्य के साथ नहीं चल पाता। इन सब में आप देखिये कि मैं क्या कहना चाह रहा हूं? हम सब कुछ मंे और सब जगह समस्याएं पैदा कर लेते या गढ़ लेते हैं। तो प्रश्न है, समस्या न होने से ज्यादा महत्वपूर्ण समस्या को सुलझाना हो गया है? अगर कोई समस्या नहीं होगी तो आपका मन मस्तिश्क यह, वह या अन्य समस्याओं को सुलझाने के अनन्त संघर्षों से बच जाएंगे। सभी समस्याओं की जड़, यह मूल समस्या क्या है? तकनीकी, गणितीय समस्याओं की नहीं, मनुष्य की मानवीय, आंतरिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं में - इनकी जड़ क्या है? महानुभावो कृपया आईये और खोजिये। क्या इसका मूल कुछ ऐसा है कि उखाड़ फेंका जा सके, या उसे सुखा कर नष्ट किया जा सके, जिससे दिल दिमाग मंे कोई समस्या न रहे?
समस्या क्या है? कुछ जो वर्तमान में सम्मिश्रित है या भविष्य में है। ठीक? एक समस्या केवल समय में रहती है, समय में निहित होती है।

एक समस्या तब तक ही रहती है जब कि हम समय की भाषा मंे सोचते हैं। न केवल भौतिक या वैज्ञानिक समय में बल्कि मनोवैज्ञानिक, मानसिक समय में भी। जब तक हम मनौवैज्ञानिकता में समय की प्रकृति नहीं समझते, हम हमेशा समस्याओं में रहेंगे। हम सब एक साथ इन समस्याओं के पैदा होने, इनके अस्तित्व के बारे में एक साथ बैठकर बात कर रहे हैं, खोजबीन कर रहे हैं।
होता यह है कि हम दुनियादारी में सफल होना चाहते हैं साथ ही साथ आध्यात्मिक मामलात में भी सफल होना चाहते हैं।
ये दोनों बातें समान हैं। यह सफल होने की आकांक्षा समय में होने वाली गतिविधि है। तो हम कह रहे हैं, वह क्या जड़ या मूल है जो समस्याएं पैदा करता है निरंतर समस्याएं, समस्याएं, समस्याएं।

क्या यह विचार है? या यहाँ एक केन्द्र है जो अपनी परिधि में ही गति करता है? क्या समस्याएं तब तक ही नहीं रहती जब मैं खुद के, स्वयं के बारे में ही चिंतित होता हँू? जब तक मैं भला होने की कोशिश करता हूं, यह और वह और जाने क्या क्या चाहता हूं? मैं ही समस्याएं पैदा करूंगा। जिसका मतलब है क्या मैं अपनी एक भी छवि बनाये बिना जिन्दगी जी सकता हूँ?

जब तक मैं अपने सफल होने की छवि, या मुझे बुद्धत्व प्राप्त करना ही है इसकी छवि, या मुझे ईश्वर का साक्षात्कार करना है इसकी छवि, या मुझे भला बनना है, मुझे और प्रेमी की तरह का व्यक्ति बनना है, मुझे महत्वाकांक्षी नहीं बनना है, मुझे किसी को दुख नहीं पहुंचाना है, मुझे शांतिपूर्वक जीना है, मुझे एक मौन मन होना है, मुझे अनिवार्य रूप से जानना है कि ध्यान क्या है..... आदि आदि अपनी ही छवियां बनाते हैं। क्या यह संभव है कि हम मुक्त हो कर जीते रह सकें? जब तक किसी भी प्रकार का केन्द्र है तब तक समस्याएं रहेंगी ही। अब यह समझें, क्या केन्द्र का होना अजागरूक या बेहोश होने का नतीजा या निचोड़ है? अगर जागरूकता होगी तो निश्चित ही कोई केन्द्र नहीं होगा।

20 Aug 2009

क्या आप बिना किसी मजबूरी के स्वयं को भूल सकते हैं?

क्या यह मन के लिए संभव है कि वह प्रेक्षक, दृष्टा, अनुभवकर्ता से बिना किसी उद्देश्य के मुक्त हो जाए। निश्चित ही , अगर कोई उद्देश्य होगा तो यह उद्देश्य ही अनुभवकर्ता और मैं का निचोड़ होगा। क्या आप बिना किसी मजबूरी के स्वयं को भूल सकते हैं? बिना किसी ईनाम या दंड के भय के स्वयं को भूल सकते हैं? केवल अपने को भूलना ही है, मुझे नहीं पता कि आपने कभी ऐसी कोशिश की हो। क्या कभी आपके सामने यह विचार उठा, क्या कभी आपके मन में यह बात आई। और कभी ऐसा खयाल आया भी हो, तो आप तुरन्त कहते हैं ”अगर मैं स्वयं को भूल जाऊं तो मैं इस दुनियां में केसे जिंऊगा, जहाँ हर कोई मुझे एक तरफ धकेलता हुआ आगे बढ़ना चाह रहा है।“ इस प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त करने के लिए आपको सर्वप्रथम यह जानना होगा कि आप बिना किसी ‘मैं’ के कैसे जी सकते हैं। बिना किसी अनुभवकर्ता, बिना किसी आत्मकेन्द्रित गतिविधि के कैसे जी सकते हैं? यही मैं पन, अनुभवकर्ता होना, आत्मकेन्द्रित गतिविधियाँ दुख की सृजक हैं, भ्रम और दुर्गति का मूल हैं। तो क्या यह संभव है इस संसार में जीते हुए इसके सभी जटिल सम्बंधों, घोर दुख में जीते हुए कोई पूरी तरह उस चीज से बाहर हो जाए जो ‘मैं’ को बनाती है।

20 Jul 2009

सजगता द्वारा मैं खुद को देखना शुरू करता हूं, जैसा कि वास्तविकता में मैं हूं, अपने स्वयं का पूर्णत्व। प्रत्येक क्षण की गति को देखते हुए उसके सभी विचारों, उसके अहसासों, उसकी प्रतिक्रियाओं, अचेतन औ चेतन भी मन .... निरंतर अपनी गतिविधियों का अर्थ महत्व खोजता रहता हैं। यदि मेरी समझ मात्र कुछ चीजों का जोड़ है, तो यह जोड़ एक शर्त बन जाता है जो मेरी आगे की समझ को रोकती है। तो क्या मस्तिष्क स्वयं को बिना कुछ जोड़े घटाये जैसा है वैसा का वैसा ही देख सकता है?

एक स्पष्टता जो किसी कारण विशेष से नहीं होती - जब मन और शरीर की प्रत्येक क्रिया के बारे में अंर्तमुखी सजगता रहती है, जब आप अपने विचारों, खुले और दबे ढंके हुए सभी अहसासों, चेतन और अवचेतन के प्रति सजगता रखते हैं तब इस सजगता से एक स्पष्टता आती है जो बिना किसी कारण विशेष के होती है। जिसे बुद्धि के साथ एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस स्पष्टता के बिना आप जो करें, आप स्वर्ग, सारी धरती और कई अतल गहराईया छान लें लेकिन आप बिलकुल ही नहीं जान सकते कि सच क्या है?

यदि आप बाहरी चीजों के प्रति होशवान हैं

कृपया इसे ध्यानपूर्वक सुनें। हम में से बहुत से लोग सोचते हैं कि सजगता, ध्यान कुछ रहस्यमयी चीज है जिसका अभ्यास करना चाहिए और जिसके लिए बार-बार हम इकट्ठे होते और, बातें करते हैं। लेकिन इस तरीके से कभी होशवान नहीं हुआ जाता। लेकिन यदि आप बाहरी चीजों के प्रति होशवान हैं - दूर तक चली गई सड़क के सर्पीले घुमावदार लहराव, वृक्ष का आकार, किसी के पहनावे का रंग, नीले आसमान की पृष्ठ भूमि में किसी पर्वत का रेखाचित्र, किसी फूल का सौन्दर्य, किसी पास से गुजरते व्यक्ति के चेहरे पर दुःखदर्द के चिन्ह, किसी का हमारी परवाह न करना, दूसरों की ईष्र्या, पृथ्वी की सुंदरता..... तब इन सब बाहरी चीजों को बिना किसी आलोचना के, बिना पसंद नापसंद किये, देखना...... इससे आप आंतरिक अंर्तमुखी सजगता की लहर पर भी सवार हो जाते हैं। तब आप अपनी ही प्रतिक्रियाओं, अपनी ही क्षुद्रता, अपने ईष्र्यालुपन के प्रति भी होशवान हो सकते हैं । बाहरी सजगता से आप आंतरिक सजगता की ओर आते हैं। लेकिन यदि आप बाह्य बाहरी के प्रति सजग नहीं होते हैं तो आपका अंातरिक अंर्तमुखी सजगता पर आना असंभवप्राय है।

29 Dec 2008

आपका विश्वास, ईश्वर नहीं है

एक आदमी जो ईश्वर में विश्वास करता है ईश्वर को नहीं खोज सकता। ईश्वर एक अज्ञात अस्तित्व है, और इतना अज्ञात कि हम ये भी नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व है। यदि आप वाकई किसी चीज को जानते हैं, वास्तविकता के प्रति खुलापन रखते हैं तो उस पर विश्वास नहीं करते, जानना ही काफी है। यदि आप अज्ञात के प्रति खुले हैं तो उसमें विश्वास जैसा कुछ होना अनावश्यक है। विश्वास, आत्म प्रक्षेपण का एक ही एक रूप होता है, और केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं। आप अपने हीरो लड़ाकू विमान उड़ाने वालों का विश्वास देखिये, जब वो बम गिरा रहे होते हैं तो कहते हैं कि ईश्वर उनके साथ है। तो आप ईश्वर में विश्वास करते हैं जब लोगों पर बम गिरा रहे होते हैं, लोगों का शोषण कर रहे होते हैं। आप ईश्वर में विश्वास करते हैं और जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि कहीं से भी किसी भी तरह से अनाप शनाप पैसा आ जाये। आपने भ्रष्टाचार, लूट खसोट से कोहराम मचा रखा है। आप अपने देश की सेना पर अरबों-खरबों रूपये खर्च करते हैं और फिर आप कहते हैं कि आप में दया, सद्भाव है, दयालुता है, आप अहिंसा के पुजारी हैं। तो जब तक विश्वास है, अज्ञात के लिए कोई स्थान नहीं। वैसे भी आप अज्ञात के बारे में सोच नहीं सकते, क्योंकि अज्ञात तक विचारों की पहुंच नहीं होती। आपका मन अतीत से जन्मा है, वो कल का परिणाम है - क्या ऐसा बासा मन अज्ञात के प्रति खुला हो सकता है। आपका मन, बासेपन का ही पर्याय है - बासापन ही है। यह केवल एक छवि प्रक्षेपित कर सकता है, लेकिन प्रक्षेपण कभी भी यथार्थ वास्तविकता नहीं होता। इसलिए विश्वास करने वालों का ईश्वर वास्तविक ईश्वर नहीं है बल्कि ये उनके अपने मन का प्रक्षेपण है। उनके मन द्वारा स्वान्तःसुखाय गढ़ी गई एक छवि है, रचना है। यहां वास्तविकता यथार्थ को जानना समझना तभी हो सकता है जब मन खुद की गतिविधियों प्रक्रियाओं के बारे में समझ कर, एक अंत समाप्ति पर आ पहुंचे। जब मन पूर्णतः खाली हो जाता है तभी वह अज्ञात को ग्रहण करने योग्य हो पाता है। मन तब तक खाली नहीं हो सकता जब तक वो संबंधों की सामग्री सबंधों के संजाल को नहीं समझता। जब तक वह धन संपत्ति और लोगों से संबंधों की खुद की प्रकृति नहीं समझ लेता और सारे संसार से यथार्थ वास्तविक संबंध नहीं स्थापित कर लेता। जब तक वो संबंधों की संपूर्ण प्रक्रिया, संबंधों में द्वंद्वात्मकता, रिश्तों के पचड़े नहीं समझ लेता मन मुक्त नहीं हो सकता। केवल तब, जब मन पूर्णतः निस्तब्ध शांत पूर्णतया निष्क्रिय निरूद्यम होता है, प्रक्षेपण करना छोड़ देता है, जब वह कुछ भी खोज नहीं रहा होता और बिल्कुल अचल ठहरा होता है तभी वह पूर्ण आंतरिक और कालातीत अस्तित्व में आता है।