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25 Sept 2012

ध्यान का स्वरूप क्या हो?


लतें या आदतें और ध्यान साथ-साथ नहीं टिके रह सकते।
ध्यान कभी भी एक आदत नहीं बनाया जा सकता, ध्यान कभी भी उस ढर्रे का अनुगमन नहीं करता जो किसी विचार द्वारा गढ़ा गया हो और जो आदत बन जाए। ध्यान है विचार का विध्वंस। 
ध्यान ये बात है कि, विचार अपनी ही उलझनों, कल्पनाओं और अपनी ही निर्थकता का अनुगमन ना करे। 
जब विचार अपनी ही निरर्थकता के विरूद्ध जाकर खुद को ही विखंडित करने लग जाये, चकनाचूर करने लग जाये...तब ध्यान का विस्फोट होता है। इस ध्यान का अपनी ही गति होती है....दिशा रहित और इसलिए कारणरहित भी।
जेकृष्णमूर्ति, नोटबुक, पेज 213


"Habit and meditation can never abide together; meditation can never become a habit; meditation can never follow the pattern laid down by thought which forms habit. Meditation is the destruction of thought and not thought caught in its own intricacies, visions and its own vain pursuits. Thought shattering itself against its own nothingness is the explosion of meditation. This meditation has its own movement, directionless and so is causeless. "
- J. Krishnamurti's Notebook, p.213


28 Mar 2011

मौन तब घटता है... जब आप जानते हैं कि अवलोकन कैसे किया जाता है।


मौन या निःशब्दता अपने आप आती है.... जब आप जानते हैं कि अवलोकन कैसे किया जाता है। मन की शांति सहज ही, अपने आप आती है। यह स्वाभाविक रूप से आती है, सुगमतापूर्वक, बिना किसी कोशिश या प्रयास के, यदि आप जानते हैं कि अवलोकन कैसे किया जाता है? देखा कैसे जाता है?
जब आप किसी बादल को देखते हैं, तो उसकी तरफ शब्दरहित और इसलिए बिना किसी विचार के देखें। उसकी तरफ बिना किसी अवलोकनकर्ता के अलगाव के देखें। तब वहां इस देखने के कर्म में ही, एक अवलोकन और अवधान होगा; ना कि संकल्पपूर्वक अवधानपूर्ण होना, लेकिन बस अवधानपूर्वक देखना, तब यह घटना चाहे क्षण भर सेकेंड भर या मिनिट भर रहे पर्याप्त है। तब लोभ ना करें, या ये ना कहें कि ”मुझे ऐसे ही स्थिति में सारा दिन रहना है।” अवलोकनकर्ता के बिना देखने का मतलब है अवलोक्य वस्तु और अवलोकनकर्ता के बीच बिना किसी अंतराल, स्थान के देखना... इसका यह मतलब भी नहीं है कि हम उस वस्तु के साथ ही खुद को सम्बद्ध/लीन/समायोजित कर लें जिसकी तरफ देख रहे हैं। लेकिन देखना भर हो जाना।
तो जब कोई किसी पेड़ की तरफ या किसी बादल की तरफ देखे, या पानी में पड़ते प्रकाश की तरफ... तो बिना अवलोकनकर्ता बने। और यह भी, जो कि बहुत ही ज्यादा कठिन है, जो कि महान अवधान की मांग करता है ”यदि आप अपने आप को ही देखें -बिना अपनी कोई छवि गढ़े, अपने बारे में कोई निर्णय किये बगैर... क्योंकि छवि, निर्णय, मत या राय , फैसले, अच्छाईयों बुराईयां... ये सब अवलोकनकर्ता के इर्द-गिर्द केन्द्रित हैं... तब आपको पता चलेगा कि मन, मस्तिष्क असामान्य, अप्रत्याशित रूप से शांत है। इस शांति या निस्तब्धता का संवर्धन या इसे विकसित नहीं किया जा सकता... यह बस होती है... यह तब होती है जब आप अवधानपूर्ण होते हैं, यदि आप हर वक्त हर समय देखते रहने... अवलोकन करने में सक्षम होते हैं.. अपने हाव भाव को देखना, अपने शब्दों को देखना, अपने अहसासों अनुभवों को देखना.. अपने चेहरे पर आने जाने वाले भावों को महसूसना और वह सब जो आप हैं...