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10 Jun 2015

ध्यान, ज्ञान-विवेक का प्रारंभ है

जो अज्ञेय है उसे ग्रहण करने, उसे आत्मसात करने के लिए मन को भी ज्ञान रहित, ज्ञात रहित होना होगा। मन विचार प्रक्रिया का परिणाम है, काल का परिणाम है और इस विचार प्रक्रिया का अंत होना चाहिए, अंत पर आना चाहिए। मन उसके बारे में नहीं सोच सकता जो कि अनादि, शाश्वत या कालातीत है इसलिए मन को अपरिहार्यतः काल से मुक्त होना चाहिए, मन में चलने वाली काल प्रक्रिया खत्म होनी चाहिए। केवल तब, जब मन बीते कल से पूरी तरह मुक्त हो, और आज को किसी आने वाले कल के लिए इस्तेमाल ना कर रहा हो, तब ही मन अनादि, अनन्त को ग्रहण करने में सक्षम होता है। वह जो ज्ञात है उसका अज्ञात से कोई संबंध नहीं होता, इसलिए आप अज्ञात अज्ञेय से प्रार्थना नहीं कर सकते, आप अज्ञेय पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकते, अज्ञेय के प्रति समर्पित नहीं हो सकते. इन सब का कोई अर्थ नहीं होता। महत्वपूर्ण और सार्थक है यह देखना जानना कि हमारा मन किस तरह संचालित होता है, और यह ऐसे जाना जा सकता है कि हम अपनी ही गतिविधियों को, कर्मों को देखें।

इसलिए हमारा ध्यान से सरोकार है कि कोई अपने ही बारे में जान समझ सके, मन के ऊपरी सतही तल पर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण आंतरिक अस्तित्व, गुप्त-सुप्त चेतना के स्वरूप को समझना। इस सबको समझे जाने बिना, और मन को ढर्राबद्धता यांत्रिकता से मुक्त किये बिना आप मन की सीमाओं के पार नहीं जा सकते।
बस इसलिए ही जरूरी है कि विचार प्रक्रिया समापन पर आये, रूके ठहरे और इस अंत ठहराव के लिए जरूरी है कि हमें अपने ही स्वरूप का ज्ञान हो। ध्यान, ज्ञान-विवेक का प्रारंभ है, जो कि अपने ही दिल दिमाग को जानना समझना भी है।

The mind itself must become the unknown

    To receive the unknown, the mind itself must become the unknown. The mind is the result of the thought process, the result of time, and this thought process must come to an end. The mind cannot think of that which is eternal, timeless; therefore, the mind must be free of time, the time process of the mind must be dissolved. Only when the mind is completely free from yesterday, and is therefore not using the present as a means to the future, is it capable of receiving the eternal. That which is known has no relationship with the unknown; therefore, you cannot pray to the unknown, you cannot concentrate on the unknown, you cannot be devoted to the unknown. All that has no meaning. What has meaning is to find out how the mind operates, it is to see yourself in action.
    Therefore, our concern in meditation is to know oneself not only superficially, but the whole content of the inner, hidden consciousness. Without knowing all that and being free of its conditioning, you cannot possibly go beyond the mind's limits. That is why the thought process must cease and, for this cessation, there must be knowledge of oneself. Therefore, meditation is the beginning of wisdom, which is the understanding of one's own mind and heart.

Collected Works, Vol. V,165

9 Apr 2012

खुद को जानना और बदलना


बातों, तर्क-वितर्क और व्याख्याओं का कोई अन्त नहीं होता। लेकिन व्याख्याएं, तर्क वितर्क और बातें, हमें किसी सीधी कार्यवाही तक नहीं ले जाते क्योंकि सीधी कार्यवाही, सीधे तुरन्त कर्म तक पहुंचने के लिए हमें मौलिक और आधारभूत रूप से बदलने की आवश्कता होती है। यदि शब्दों की गहराई से सोचें तो इसके लिए किसी भी तर्कवितर्क, लफ्फाजी, ना बहलाने-फुसलाने, ना किसी सूत्र, ना किसी से प्रभावित होने की आवश्यकता होती है.. कि हम मूलभूत रूप से बदल सकें। हममें बदलाव की आवश्कता तो है, लेकिन किसी विशेष संकल्पना या सिद्धांत के अनुसार नहीं, क्योंकि जब हमारे पास किसी कर्म के बारे में कोई विचार या धारणा होती है, तो कर्म चुक जाता है। कर्म और विचार या धारणा के बीच एक समय अन्तराल होता है, एक स्थगन/देरी होती है और इस समय अंतराल में उस विचार/धारणा के प्रति या तो प्रतिरोध होता है, या सुनिश्चितता या किसी विचार या धारणा की नकल/अनुकरण और उसे कर्म में परिणित करने की कोशिश। यही तो वह सब है जो हम में से अधिकतर लोग, हमेशा करते रहते हैं। हम जानते हैं कि हमें बदलना है, न केवल बाहरी तौर पर बल्कि गहरे तक--मनोवैज्ञानिक रूप से।

बाहरी बदलाव तो बहुत से हैं। वे हमें किसी कार्य प्रणाली/किसी तौर तरीके के अनुसार सुनिश्चित होने के लिए या कहें कि एक ढर्रे पर चलने के लिए बाध्य करते हैं, लेकिन रोजमर्रा की जिन्दगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए हममें गहन क्रंाति की आवष्यकता होती है। हममें से अधिकांष लोगों के पास कोई न कोई पूर्वनिर्धारित विचार या धारणा होती है कि हमें क्या होना चाहिए, परंतु हम कभी बुनियादी तौर से नहीं बदल पाते। हमें क्या होना चाहिए-इस संबंध में विचार और मनोभाव हममें कोई परिवर्तन नहीं ला पाते। हम तभी बदलते हैं जब यह नितंात आवष्यक हो जाता है, क्योंकि हम परिवर्तन की आवश्यकता को कभी सीधे-सीधे अपने सामने, साक्षात् नहीं देख पाते। हम कभी बदलना भी चाहते हैं, तो हममें भारी द्वंद्व और प्रतिरोध खड़ा हो जाता है और हम प्रतिरोध करने में, अवरोध खड़े करने में अपनी विपुल ऊर्जा व्यर्थ कर देते हैं ...

एक भला समाज बनाने के लिये मानव जाति को स्वयं में बदलाव लाना होगा। मन के इस आमूल परिवर्तन के लिये आपको और मुझे ऊर्जा, संवेग और जीवन-शक्ति तलाशनी होगी, पर्याप्त ऊर्जा के बिना यह संभव नहीं है। स्वयं में बदलाव लाने के लिये हमें विपुल ऊर्जा चाहिए, परंतु हम अपनी यह ऊर्जा द्वंद्व, प्रतिरोध, अनुकरण, स्वीकरण और अनुपालन में व्यर्थ गवंते हैं, किसी ढर्रे का अनुकरण करना अपनी ऊर्जा व्यर्थ गवांना है। अपनी ऊर्जा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये हमें स्वयं के प्रति सजग रहना होगा, अपनी ऊर्जा का हम कैसे-कैसे अपव्यय करते हैं इसके प्रति सजग रहना होगा।  यह युग-युगांतकारी समस्या है, क्योंकि अधिकांषतः मनुष्य अकर्मण्य होते हैं। वे स्वीकार करने, अनुपालन करने और अनुसरण करने को प्राथमिकता देते हैं। यदि हम इस अकर्मण्यता और गहराई तक अपनी जड़ें जमाये हुए आलस्य को जान लें और अपने मन-मस्तिष्क में प्रयासपूर्वक स्फूर्ति ले आएं तो इसकी प्रबलता पुनः एक द्वंद्व बन जाती है और यह भी ऊर्जा का अपव्यय ही है।

हमारी अनेक समस्याएं हैं और उनमें से एक है कि ऊर्जा का संरक्षण कैसे किया जाए--उस ऊर्जा का संरक्षण जो चेतना के प्रस्फुटन के लिये आवष्यक होती है-वह प्रस्फुटन नहीं जो सुनियोजित होता है या जो विचार द्वारा गढ़ी गई, एक जुगाड़ होता है, बल्कि वह प्रस्फुटन जो इस ऊर्जा का अपव्यय न किये जाने पर स्वमेव घटता है... हम अपनी चेतना में एक आमूल क्रंाति लाने के लिये संपूर्ण ऊर्जा को एकत्र करने की जरूरत पर बात कर रहे हैं, क्योंकि हमारे पास एक नया ताजा मन होना ज़रूरी है; तो, हमें जीवन को एक नितंात भिन्न दृष्टि से देखना होगा।

30 May 2011

अचेतन का बोझ


भीतर, अचेतन में अतीत का जबरदस्त जोर रहता है जो आपको एक विशेष दिशा में धकेलता है। अब, कोई कैसे इस सब को एकबारगी ही पोंछ दे। कैसे अचेतन से अतीत को तुरन्त ही साफ किया जाये? विश्लेषक सोचता है कि विश्लेषण द्वारा, जाँच पड़ताल करके, इसके घटकों को तलाश कर के, स्वीकार करके, या सपनों की व्याख्या इत्यादि करके अचेतन को थोड़ा-थोड़ा करके, टुकड़ों में या, यहां तक कि, पूरी तरह साफ किया जा सकता है ताकि हम कम से कम सामान्य आदमी रहें। ताकि हम अपने आपको निवर्तमान माहौल के हिसाब के अनुकूल बना सकें। लेकिन विश्लेषण में सदैव एक विश्लेषणकर्ता होता है और एक विश्लेषण या परिणाम, एक अवलोकनकर्ता जो कि अवलोकन की जाने वाली चीजों की व्याख्या करता है, यह ही द्वैत है, जो कि द्वंद्व का स्रोत है।
तो अचेतन का विश्लेषणमात्र कहीं नहीं पहुंचााता। हो सकता है कि यह हमारा पागलपन कम करे, अपनी पत्नि या पड़ोसी के प्रति कुछ विनम्र बना दे या इसी तरह की कुछ बातें, लेकिन ये वो चीज नहीं जिस बारे में हम बात कर रहे हैं। हम देखते हैं कि विश्लेषण प्रक्रिया जिसमें की समय, व्याख्या और विचारों की सक्रियता शामिल है, एक अवलोकनकर्ता के रूप में जो कि किसी चीज का विश्लेषण कर देख रहा है... यह सब अचेतन को मुक्त नहीं करता इसलिए मैं विश्लेषण प्रक्रिया को पूरी तरह से अस्वीकार करता हूँ। जिस क्षण, मैं यह तथ्य देखता हूं कि विश्लेषण किन्हीं भी परिस्थितियों में अचेतन का बोझ नहीं हटा सकता, मैं विश्लेषण से बाहर हो जाता हूँ। मैं अब विश्लेषण नहीं करता। तो क्या होता है? क्योंकि अब कोई भी विश्लेषणकर्ता उस चीज से अलग नहीं है जिसका कि विश्लेषण किया जा रहा है, वह वही चीज है। वो उससे (विश्लेषण से) भिन्न कोई अस्तित्व नहीं है। तब कोई भी देख सकता है कि अचेतन बहुत ही कम महत्व का है।

The Burden of the Unconscious

Inwardly, unconsciously, there is the tremendous weight of the past pushing you in a certain direction.
Now, how is one to wipe all that away? How is the unconscious to be cleansed immediately of the past? The analysts think that the unconscious can be partially or even completely cleansed through analysis, through investigation, exploration, confession, the interpretation of dreams, and so on; so that at least you become a 'normal' human being, able to adjust yourself to the present environment. But in analysis there is always the analyzer and the analyzed, an observer who is interpreting the thing observed, which is a duality, a source of conflict.
So I see that mere analysis of the unconscious will not lead anywhere. It may help me to be a little less neurotic, a little kinder to my wife, to my neighbor, or some superficial thing like that; but that is not what we are talking about. I see that the analytical process which involves time, interpretation, the movement of thought as the observer analyzing the thing observed cannot free the unconscious; therefore I reject the analytical process completely. The moment I perceive the fact that analysis cannot under any circumstances clear away the burden of the unconscious, I am out of analysis. I no longer analyze. So what has taken place? Because there is no longer an analyzer separated from the thing that he analyzes, he is that thing. He is not an entity apart from it. Then one finds that the unconscious is of very little importance.
The Book of Life

18 Feb 2010

जीवन का लक्ष्य


अब यह कुछ ऐसी वास्तविकता है जिसे मैं निश्चित होकर कह सकता हूं कि मैंने उपलब्ध किया है। मेरे लिये, यह कोई सैद्धांतिक संकल्पना नहीं है। यह मेरे जीवन का अनुभव है,.... सुनिश्चित, वास्तविक और ठोस। इसलिए मैं इसकी उपलब्धि के लिए क्या आवश्यक है, यह कह सकता हूं। और मैं कहता हूं कि पहली चीज यह है कि हम जो है उसे वैसा का वैसा ही पहचाने यानि अपनी पूर्णता में कोई इच्छा क्या हो जायेगी, और तब प्रत्येक क्षण के अवलोकन में स्वयं को अनुशासित करें, जैसे कोई अपनी इच्छाओं को खुद ही देखे, और उन्हें उस अवैयक्तिक प्रेम की ओर निर्दिष्ट करे, जो कि उसकी स्वयं की निष्पत्ति हो। जब अप निरंतर जागरूकता का अनुशासन स्थापित कर लेते हैं। उन सब चीजों का जो आप सोचते हैं, महसूस करते हैं और करते है (अमल में लाते हैं) का निरंतर अवलोकन हम में से अधिकतर के जीवन में उपस्थित दमन, ऊब, भ्रम से मुक्त कर , अवसरों की श्रंखला ले आता है जो हमें संपूर्णता की ओर प्रशस्त करती है। तो जीवन का लक्ष्य कुछ ऐसा नहीं जो कि बहुत दूर हो, जो कि दूर कहीं भविष्य में उपलब्ध करना है अपितु पल पल की, प्रत्येक क्षण की वास्तविकता, हर पल का यथार्थ जानने में है जो अभी अपनी अनन्तता सहित हमारे सामने साक्षात ही है।

The goal of life

Now this reality is something which I assert that I have attained. For me, it is not a theological concept. It is my own life-experience, definite, real, concrete. I can, therefore, speak of what is necessary for its achievement, and I say that the first thing is the recognizing exactly what desire must become in order to fulfil oneself, and then to discipline oneself so that at every moment, one is watching one's own desires, and guiding them towards that all-inclusiveness of impersonal love which must be their true consummation. When you have established the discipline of this constant awareness, this constant watchfulness upon all that you think and feel and do, then life ceases to be the tyrannical, tedious, confusing thing that it is for most of us, and becomes but a series of opportunities towards that perfect fulfillment. The goal of life is, therefore, not something far off, to be attained in the distant future, but it is to be realised moment by moment in that now which is all eternity.

Early Works, circa 1930

31 Jan 2010

क्या कोई स्वयं की ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है


क्या कोई ऐसा खोजी है, कोई ऐसा प्रश्नकर्ता है जो अपने बारे में अन्य लोगों द्वारा दी गई सारी सूचनाओं, सारे ज्ञान को पूर्णतः त्याग कर, अपने आपको जानने की कोशिश करे? क्या कोई ऐसा करेगा? कोई भी नहीं, क्योंकि यह बहुत ही सुरक्षित और आसान है कि हम प्रभुत्व स्वीकार लें। तब कोई भी अपने आपको सुरक्षित संरक्षित महसूस करता है। लेकिन यदि कोई पूर्णतः अन्य लोगों, किसी के भी प्रभुत्व प्रभाव को त्याग दे, तो कोई कैसे अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है? क्योंकि स्वत्व कोई स्थायी चीज तो है नहीं है, यह निरंतर गतिशील है, जिन्दा है, कार्य कर रहा है। कोई उस चीज के बारे में कैसे देखे जाने... अवलोकन करे जो निरंतर आश्चर्यजनक रूप से अत्यंत गतिशील है, पूरे आग्रह के साथ, आकांक्षाओं, लोभ, रोमांस के साथ? जिसका तात्पर्य है - क्या कोई अपनी ही गतिविधियों का अवलोकन कर सकता है अपनी सभी इच्छाओं और भयों सहित, बिना अन्य लोगों से ज्ञान लिये या बिना उस ज्ञान के जो उसने अपने आप को जानने के लिए स्वयं ही इकट्ठा कर रखा है।

Can one observe the movement of the self?

One is a seeker, one is questioning; therefore one rejects completely all information provided by others about oneself. Will one do that? One will not, because it is much safer to accept authority. Then one feels secure. But if one does completely reject the authority of everybody, how does one observe the movement of the self? - for the self is not static, it is moving, living, acting. How does one observe something that is that is tremendously active, full of urges, ambitions, greed, romaticism? Which means: can one observe the movement of the self with all of its desires and fears, without knowledge acquired from others or which one has acquired in examining oneself?
J. Krishnamurti, Krishnamurti Foundation Trust, Bulletin 40

25 Jan 2010

ज्ञात से मुक्ति



सब तरह से मुक्त होना है, ज्ञात से मुक्ति, मन की वह अवस्था जो कहती है ‘‘मैं नहीं जानता’’ और जो उत्तर की राह भी नहीं तकती। ऐसा मन जो पूर्णतः किसी तलाश में नहीं होता ना ही ऐसी आशा करता है, ऐसे मन की अवस्था में आप कह सकते हैं कि ‘‘मैं समझा’’। केवल यही वह अवस्था होती है जब मन मुक्त होता है, इस अवस्था से आप उन चीजों को भी एक अलग ही तरह से देख सकते जिन्हें आप जानते हैं। ज्ञात से आप अज्ञात को नहीं देख सकते लेकिन जब कभी एक बार आप मन की उस अवस्था को समझ जाते हैं जो मुक्त है - जो मन कहता है कि ‘’’मैं नहीं जानता’’ और अजाना ही रहता है, इसलिए वह अबोध है.... उस अवस्था से एक नागरिक, एक विवाहित या आप जो भी हों वास्तविक कर्म करना शुरू करते हैं। तब आप जो भी करते हैं उसमें एक सुसंगतता होती है, जीवन में महत्व होता है।
लेकिन हम ज्ञात की सीमा में ही रहते हैं उसकी सभी विषमताओं के साथ, जीतोड़ प्रयासों, विवादों और पीड़ाओं के साथ और वहां से हम तलाश करते हैं उसकी, जो अज्ञात है, इसलिए वास्तव में हम मुक्ति नहीं चाह रहे हैं। हम जो चाहते हैं, वह है - जो है उसमें ही निरंतरता, वही पुरानी चीजों को और खींचना या लम्बाना... जो ज्ञात ही हैं।

6 Jan 2010

क्या रूपान्तरण जैसी कोई चीज होती है? क्या है जो बदलता है?



जब आप अवलोकन करते हैं, सड़क पर धूल देखते हैं, यह देखते हैं कि राजनीतिज्ञ कैसा व्यवहार कर रहे हैं, अपनी पत्नि के प्रति... अपने बच्चों के प्रति अपना ही बर्ताव देखते हैं इसी तरह की अन्य बातें, तो यही रूपान्तरण होता है। क्या आप समझे? अपनी दिनचर्या को तरतीब देना, कार्यों में स्वरों को साध लेने-सा सामन्यीकरण ही रूपान्तरण है; कुछ ऐसा नहीं जो बहुत ही असामान्य या जो दुनिया के बाहर की बात हो। जब कोई ”स्पष्ट रूप से कुछ नहीं देख पाता“ और वह तर्क-युक्ति संगत रूप से इसके प्रति जागरूक हो जाता है और इसे बदलता है, अपनी आदत को तोड़ता है, अपनी अस्पष्टता को विराम देता है, यही रूपान्तरण है। यदि आपको ईष्र्या या जलन हो रही है तो इसे देखें, इसे फूलने-फलने का मौका दिये बिना इसे तुरन्त बदलें, यह रूपान्तरण होगा। जब आपको लोभ, हिंसा, महत्वाकांक्षा पकड़ लेते हैं, या जब आप खुद को किसी पवित्र आध्यात्मिक व्यक्ति की तरह बनाना चाहते हैं तो यह देखें कि आपकी ऐसी सोच. आपका ऐसा होना कितनी निरर्थक दुनियां की रचना कर रहा है। मुझे नहीं पता आप इस सब के प्रति जागरूक हैं या नहीं। प्रतियोगिता विश्व का विनाश कर रही है। दुनियां रोज ब रोज अधिकाधिक प्रतियोगी होती जा रही है, अधिकाधिक आक्रामक होती जा रही है और अगर आप अपनी यह प्रवृत्ति तुरन्त बदलते हैं तो यह रूपान्तरण है। यह आप इस समस्या में बहुत गहराई तक जाएं, तो आप स्पष्टतः पाएंगे कि विचार प्रेम को नकारता है। इसलिए किसी को भी यह प्रश्न उठाना चाहिए, तलाश या पता करना चाहिये कि क्या विचार का अन्त हो सकता है?, क्या समय का अन्त हो सकता है? हमें इन प्रश्नों पर दार्शनिक अंदाज में मुद्राएं नहीं बनानी हैं, इस पर चर्चाएं-बहसें नहीं करनी, पर यह ईमानदारी से पता करना है। वास्तव में सच्चे रूप में, यही रूपान्तरण है, जब आप रूपान्तरण की गहराई में जाते हैं तो आप पाएंगे की रूपान्तरण का मतलब है ‘‘किसी भी तरह के कुछ होने’’, ‘‘तुलना’’ के विचार का अभाव। यह है अस्तित्व का पूर्णतया नाकुछ हो रहना।

28 Dec 2009

क्या मैं स्वयं ही जाग्रत हो सकता हूँ ?



वो चाहे खुशगवार हों या पीड़ाजनक, अपने आपको जागृत रखने के लिए हम अनुभवों पर निर्भर रहते हैं; किसी भी प्रकार की चुनौती हो हम अपने आपको जागा हुआ रखना चाहते हैं। जब कोई यह सच जान जाता है कि चुनौतियों और अनुभवों पर निर्भरता, दिमाग को केवल और ज्यादा कुंद या जड़ बनाती है और यह निर्भरता हमें जागे रहने नहीं रहने देती..... जब कोई यह समझ जाता है कि हमने हजारों युद्ध लड़ें हैं और एक बात भी नहीं सीखी कि हम अपने पड़ोसी को कल किसी क्षणिक सी उत्तेजना पर कत्ल कर सकते हैं... तब कोई कह सकता है कि जागे जागृत रहने के लिए यह अनुभव और चुनौतियों पर निर्भरता हम क्यों चाहते हैं? और क्या यह संभव है कि बिना किसी चुनौती के हम होशपूर्ण-जागृत-जागे रह सकें? यह ही मुख्य-असली प्रश्न है। हम चुनौतियों, अनुभवों पर यह सोच कर निर्भर रहते हैं कि ये हमें रोमांच, ज्यादा जिन्दापन, और ज्यादा त्वरितता देंगे, इनसे हमारा दिमाग और तेज होगा, पर इनसे ऐसा नहीं होता। तो यदि संभव हो तो मैं अपने आप से कहूं सम्पूर्ण रूप से जागृत-सचेत-होशपूर्ण के लिए.... आंशिक या टुकड़ों में नहीं या अपने अस्तित्व के कुछ बिन्दुओं पर ही नहीं... पर पूरी तरह जागृति, क्या बिना किसी चुनौती के, बिना किसी अनुभव के द्वारा। इसका मतलब ये भी है कि क्या मैं खुद ही प्रबुद्ध हो सकता हूँ, खुद को ही जगाये रह सकता हूँ बिना किसी बाहरी प्रकाश पर निर्भर हुए? इसका मतलब यह नहीं है कि यदि मैं किसी संवेदना उत्तेजना पर निर्भर नहीं रहकर, निरर्थक हो रहूंगा। क्या मैं कोई ऐसी रोशनी हो सकता हूँ जो बाह्य-उन्मुखी ना हो? यह सब जानने समझने के लिए हमें अपने में ही बहुत गहरे जाना होगा, मुझे खुद को ही पूरी तरह जानना होगा, सम्पूर्णतः.... अपने भीतर का एक-एक कोना मेरा जाना समझा होना चाहिये, कोई भी ऐसा कोना नहीं होना चाहिए जो दबा, ढंका, छिपा या रहस्यपूर्ण हो। सब कुछ खुला होना चाहिए। हमें अपने स्व, अपनत्व के, हमारेपन के सम्पूर्ण क्षेत्र के प्रति जागृत होना चाहिये, जो कि हमारी वैयक्तिता और हमारी सामाजिकता की चेतना है। यह जागरण केवल तब हो सकता है जब हमारा मन, वैयक्तिक और सामाजिक चेतना की परिधि के पार जाये तभी कोई संभावना है कि कोई अस्तित्व स्वतः प्रबुद्ध हो सके और बाह्य-उन्मुखी न हो।

3 Sept 2009

जब कोई चेतन स्तर पर जागरूक होता है, तब वह अपने अवचेतन में गहरे पैठे ईष्र्या, संघर्ष, इच्छाओं, लक्ष्यों, गुस्से की वजहों की खोज की शुरूआत भी कर देता है। जब मन अपने ही बारे में सम्पूर्ण प्रक्रिया की खोज का इरादा
रखता है, तब हर घटना, हर प्रतिक्रिया अपने ही बारे में जानने, अपनी ही खोज के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है।

इस सबके लिए धैर्यपूर्ण अवधान की आवश्यकता होती है। यह अवधान उस मन का पर्यवेक्षण नहीं होता जो निरंतर संघर्ष, द्वंद्व में, और यह सीखना चाहता है कि कैसे जागरूक रहा जाए।

तब आप जानेंगे कि जागरण के घंटों की तरह ही आपके सोने के घंटे भी महत्वपूर्ण हैं कि तब जीवन एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है।

जब तक आप अपने आपको नहीं जानते, भय निरंतर बना रहेगा और अन्य सारे संभ्रम भी जो आपका स्व या ‘मैं’ पैदा करता रहता है।

2 Sept 2009

जब मन निर्णयों-निष्कर्षों, सूत्रबद्धता के बोझ से दबा हुआ होता है, तब जिज्ञासा प्रतिबंधित होती है। यह बहुत जरूरी है कि खोज, जिज्ञासा हो। उस तरह नहीं जैसे एक क्षेत्र के विशेषज्ञ वैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिकों द्वारा कोई खोज की जाती है। पर एक व्यक्ति द्वारा अपने ही बारे में जानने के लिए, अपने जीवन की पूर्णता को जानने के लिए, अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों के दौरान अपने ही चेतन और अचेतन स्तर पर मन की शल्य क्रिया किया जाना नितांत आवश्यक है। कोई कैसे कार्यव्यवहार करता है, किसी की क्या प्रतिक्रिया होती है जब कोई आॅफिस जाता है, या बस पर सवार होता है, जब कोई अपने बच्चे, अपने पति या पत्नि से बातचीत करता है आदि आदि। जब तक मन अपनी संपूर्णता के प्रति जागरूक नहीं होता - वैसा नहीं जैसा कि ‘वो होना चाहता है’ बल्कि जैसा कि ‘वो है।’ जब तक कोई अपने फैसलों, धारणाओं, आदर्शों, अनुपालन की जाने वाली गतिविधियों के प्रति जागरूक नहीं होता यथार्थ की सृजनात्मक धारा के आने की कोई संभावना नहीं होती।

31 Aug 2009

आत्मज्ञान एक प्रक्रिया नहीं जिसके बारे में पढ़ा जाए या कल्पना की जाए। प्रत्येक व्यक्ति को अत्यधिक सजग होकर, खुद की ही क्षण-प्रति-क्षण की गतिविधियों में इसकी खोज करनी पड़ती है।
इस सजगता में एक ‘कुछ होने’ या ‘ना होने’ की इच्छारहित, एक विशेष विश्रांति, एक सकारात्मक जागरूकता होती है जिसमें मुक्ति की एक आश्चर्यजनक भावना चेतना में आती है।
यह अहसास केवल मिनिट भर के लिए, या केवल सेकंड भर के लिये ही हो सकता है पर काफी होता है। यह मुक्ति की भावना स्मृति से नहीं आती, यह एक जीवंत चीज है। लेकिन मन इसका स्वाद लेना चाहता है, इसका स्मृति में संचय करना, और बार-बार अधिक मात्रा में चाहता है।
इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरूकता केवल आत्मज्ञान द्वारा ही संभव है। आत्मज्ञान आता है हमारे जीवन के क्षण-प्रति-क्षण को गहराई से देखने से - कि कैसे हम बोलते हैं, हमारे हावभाव, जिस तरह हम वातार्लाप करते हैं। इन सब चीजों को देखने से, अचानक इनके पीछे छिपे आशयों का ज्ञान होता है।
इसके बाद ही भय से मुक्त हुआ जा सकता है। जब तक भय है तब तक प्रेम नहीं हो सकता। भय हमारे जीवन को कलुषता से भर देता है, यह कलुषता किसी भी प्रार्थना, किसी भी आदर्श या गतिविधि से नहीं मिटाई जा सकती। इस भय का कारण ‘मैं’ ‘अहं’ का होना है। यह ‘मैं’ अपनी इच्छाओं, माँगों, लक्ष्यों सहित बहुत ही जटिल है।
हमारे मन को इस सारी प्रक्रिया को समझना है और यह समझ चुनावरहित चौकन्‍नेपन(जागरूकता) से आती है।

29 Aug 2009

जब हम अपने बारे में जागरूक रहते हैं तो सारा जीवन मैं, अहं, स्व को उघाड़ने का जरिया बन जाता है। यह स्व एक जटिल प्रक्रिया है जो केवल सम्बन्धों में, हमारी रोजमर्रा की गतिविधियों, जिस तरह हम बातचीत करते हैं, जिस तरह हम कोई फैसला लेते हैं, हिसाब-किताब करते हैं, जिस तरह हम अपनी और अन्य लोगों की आलोचना करते हैं - इन सब चीजों के बारे में जागरूकतापूर्वक देखने से मैं का सत्य उद्घाटित-अनावरित होता है।
इस सबसे हमारी अपनी विचारधारा की बंधी-बंधाई दशाएं अनावृत होती हैं, तो क्या यह बहुत जरूरी नहीं है कि हम इस पूरी प्रक्रिया के प्रति जागरूक रहें।
पल-दर-पल सत्य क्या है इसकी जागरूकता से उस समयातीत, आत्म की खोज की जा सकती है। आत्मज्ञान के बिना आपका अंतःकरण, आत्म कुछ भी नहीं। जब हम अपने आपको नहीं जानते तब तक ‘आत्मा’, ‘अन्तःकरण’ शब्दमात्र होते हैं। ये एक इशारा, आश्चर्य, एक पाखण्ड, एक विश्वास और एक भ्रम होता है जिसमें मन पलायन कर सकता है। जब कोई ‘मैं’ को समझना शुरू करता है, जब कोई अपनी दिन-प्रति-दिन की सारी भिन्न-भिन्न गतिविधियों को देखता-समझता है, उनके प्रति जागरूक रहना आरंभ करता है तो इस समझ में अनायास ही उस नामातीत, समयातीत का अभ्युदय होता है, अस्तित्व में आता है। पर इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि वो नामातीत आत्मज्ञान की परिलब्धि होता है। नामातीत आत्मज्ञान की परिलब्धि नहीं है। उसके बाद अंतःकरण में ‘स्व’ नहीं दिखता, मन मस्तिष्क उसे नहीं पा सकते। वह तभी अस्तित्व में होता है जब मन शांत होता है। (कुछ लोग किसी की मृत्यु पर भी कहते हैं कि ‘‘वो शांत हो गया’’ ) मन के शांत, होने पर वह अस्तित्व में होता है। मन जब सहज रहता है, भंडारगृह की तरह अनुभवों, स्मृतियों के संचय, मूल्यांकन करने में नहीं लगा होता, तब वह सहज मन उस पूर्ण यथार्थ को समझ पाता है, वह मन नहीं जो मात्र शब्दों, ज्ञान, सूचनाओं से भरा हुआ हो।