Showing posts with label भय Fear. Show all posts
Showing posts with label भय Fear. Show all posts

24 Feb 2013

डर

Picture with thanks from google..

अंदरूनी और बाहरी डर
हमें डर लगता है, केवल बाहरी कारणों से ही नहीं, अपने अंदर से भी। नौकरी-धंधा छूट जाने का डर, भोजन-पानी से महरूम रहने का डर, किसी पद पर बैठे हैं तो उसे गंवा देने का डर, अपने से ऊँचे पद पर बैठे अफसरों के वजह-बेवजह फटकारे-लताड़े जाने का डर..यानि तरह-तरह के बाहरी डर बने ही रहते हैं।

इसी तरह हम अंदर से भी डरे रहते हैं - हमेशा ना रह पाने..या मर जाने का डर, सफल न हो पाने का डर, मौत का डर, अकेलेपन का डर, कोई प्यार नहीं करता इसका डर, बहुत ही ऊब भरी वही रोजाना की घिसी-पिटी रूटीन जिंदगी का डर आदि।

हमारा शारीरिक डर वैसा ही है जैसे किसी पशु की प्रतिक्रिया
तो सबसे पहले शारीरिक डर आता है जो कि एक दैहिक प्रतिक्रिया है। चूंकि हममें बहुत कुछ पशुओं जैसा ही विरासत में है, हमारी दिमागी संरचना का एक बड़ा हिस्सा किसी पशु के दिमाग जैसा ही है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। यह कोई कपोल कल्पित मत या संकल्पना नहीं वरन तथ्य है। पशु लोलुप होता है, उसे पुचकारा जाना, थपथपाया जाना अच्छा लगता है, ऐसा ही हम मनुष्यों के साथ भी है। पशु समूह में रहना पसंद करते हैं, मनुष्य भी। पशुओं की अपनी एक सामाजिक संरचना होती है, मनुष्य की भी। हम और भी विस्तार में जा सकते हैं पर यह प्राथमिक रूप से जानना पर्याप्त है कि हममे बहुत कुछ अभी भी पशुवत ही है।
अब प्रश्न उठता है कि - क्या हम पशु से विरासत में पाये प्रभाव और मानवीय समाज की सभ्यता-संस्कृति से अपने पर पड़े प्रभावों से, मुक्त हो सकते हैं? क्या यह संभव है कि हम पशु वृत्तियों से ऊपर उठ पाएं एक जुबानी जिज्ञासा के समाधान के रूप में ही नहीं बल्कि यथार्थ में यह खोज पाएं कि क्या हमारा मन उस समाज के प्रभाव से, उस संस्कृति के प्रभाव से परे जा सकता है जिसमें हम पले बढ़े हैं। क्योंकि जो है उससे बिल्कुल भिन्न आयाम किसी स्थिति की संभावना के लिए भयमुक्त होना आवश्यक है।
बुद्धिसंगत डर और काल्पनिक डर
यह बात साफ है कि आत्मरक्षा अपनी देह की रक्षा के लिए की गई प्रतिक्रिया डर नहीं होती। रोटी, कपड़ा और मकान यह हम सभी की जरूरत है, केवल अमीर या बड़े लोगों की ही नहीं। यह धरती पर रहने वाले प्रत्येक मनुष्य की जरूरत है। यह डर तो बुद्धिसंगत हैं... समस्या वो डर हैं जो इनसे इतर होते हैं, दिमागी फितूर होते हैं।

रोटी, कपड़ा और मकान प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता है लेकिन इसका हल राजनेताओं के पास नहीं। राजनेताओं ने सारी दुनियां को देशों में विभाजित कर दिया है। इन देशों की अपनी अपनी प्रभुतासंपन्न सरकारें हैं, अपनी सेना होती है और राष्ट्रवाद जैसी तमाम तरह की जहरीली मूर्खताएं होती हैं। राजनीतिक समस्या केवल एक है और वह है मनुष्य और मनुष्य के बीच में एकता लाना और वह तक नहीं लायी जा सकती जब तक आप अपने राष्ट्रीय या जातीय विभाजन से चिपके हुए हैं। अगर आपका घर जल रहा हो तो आप यह नहीं पूछते कि पानी कौन ला रहा है? जिस व्यक्ति ने घर में आग लगाई उसके बालों का रंग भी नहीं पूछते.. आपको तो बस आग बुझाने के लिए पानी का इंतजाम करना होता है। जैसे धर्मों ने मनुष्यों को विभाजित कर दिया है वैसे ही राष्ट्रीयता ने भी मनुष्यों को बांट दिया है। राष्ट्रीयताओं और धार्मिक विश्वासों ने मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ खड़ा कर दिया है, एक दूसरे का दुश्मन बना दिया है। लेकिन यह कोई भी देख सकता है कि ऐसा क्यों हो पा रहा है वो इसलिए कि हम कूपमंडूक बने रहना चाहते हैं।

इसलिए मनुष्य को इन डरों से मुक्त होना होगा, परंतु यह बहुत ही दुष्कर कार्यों में से एक है। अधिकांशतः तो हम जान ही नहीं पाते कि हम डरे हुए हैं, ना ही यह जानते हैं कि हम किस बात से डरें हैं। यदि हम जान भी जायें कि हम डरें हुए हैं तो यह नहीं जानते कि तब करें क्या? अतः हम जो हैं उससे दूर भागने लगते हैं, पलायन करने लगते हैं.. जबकि डर तो हम खुद ही हैं, भाग कर जहां भी जायेंगे डर और बढ़ा हुआ मिलेगा। और दुर्भाग्यवश हमने पलायनों का एक जाल फैला लिया है।

डर का जन्म
डर पैदा कैसे होता है - आने वाले कल का डर, रोजी-रोटी छूट जाने का डर, रोगग्रस्त हो जाने का डर, दर्द का डर। डर में बीते हुए और आने वाले समय के विषय में विचारों कि एक प्रतिक्रिया समाई रहती है। अतीत का कुल जमा जोड़ ”मैं“ भविष्य में ‘क्या होगा’ इससे डरा रहता है। तो डर आता कैसे है? डर का हमेशा किसी ना किसी चीज से संबंध होता है- वरना डर होता ही नहीं। इसलिए हम आने वाले कल से, जो हो गया है उससे, या जो होने वाला है उससे डरे रहते हैं। इस डर को लाया कौन? क्या डर को लाने वाला -विचार- ही नहीं है?

विचार है डर का मूल
तो विचार है डर का जन्मदाता। मैं अपनी नौकरी-कामधंधा छूट जाने के बारे में या इसकी आशंका के बारे में सोचता हूं और यह सोचना, यह विचार डर को जन्म देता है। इस प्रकार विचार खुद को समय में फैला देता है, क्योंकि विचार समय ही है। मैं कभी किसी समय जिस रोग से ग्रस्त रहा.. मैं उस विषय में सोचता हूं, क्योंकि उस समय का दर्द .. बीमारी का अहसास मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं डर जाता हूं कि मुझे फिर वही बीमारी ना हो जाये। दर्द का एक अनुभव मुझे हो चुका है, उसके विषय में विचारना और उसे ना पसंद करना डर पैदा कर देता है। डर का सुख-विलासिता से करीबी रिश्ता है, निकट का संबंध है। हममें से अधिकांश लोग सुख-विलास से प्रेरित रहते हैं, संचालित रहते हैं। किसी पशु की भांति एैन्द्रिक सुख हमारे लिए सर्वोच्च महत्व रखते हैं। यह सुख विचार का ही एक हिस्सा होता है। जिस चीज से सुख मिला हो उसके बारे में सोचने से सुख मिलता है.. सुख बढ़ जाता है, है ना? क्या आपने इस सब पर ध्यान दिया है? आपको किसी ऐसा सुख का कोई अनुभव हुआ हो- किसी सुंदर सूर्यास्त का या यौन संबंध का... और आप उसके बारे में सोचते हैं। उसके बारे में सोचना, उस सुख को बढ़ा देता है, जैसे आपके द्वारा अनुभूत किसी पीड़ा के बारे में सोचना,, डर पैदा कर देता है.. डरा देता है। अतएव विचार ही मन में पैदा होने वाले सुख का या डर का जनक है, है न? विचार ही सुख की मांग करने और उसकी निरंतरता चाहने के लिए जिम्मेदार है, वह भय को जन्म देने के लिए, डर का कारण बनने के लिए जिम्मेदार है। यह बात एकदम साफ है, प्रयोग करके देखा जा सकता है।

तब मैं खुद से पूछता हूं... जबकि मैं यह सब जानता हूं... तब क्या ऐसा संभव है कि सुख या दुःखदर्द के बारे में मैं सोचूं ही ना? क्या यह संभव है कि जब विचारणा की जरूरत हो तब ही सोचा जाए, अन्यथा बिल्कुल नहीं? महोदय, जब आप किसी दफ्तर में काम करते हैं, आजीविका में लगे होते हैं, तब विचार जरूरी होता है वरना आप कुछ कर नहीं सकेंगे। जब आप बोलते हैं, लिखते हैं, बात करते हैं, कार्यालय जाते हैं तब विचार जरूरी होता है। वहां विचार को ऐन सही ढंग से, निर्वैयक्तिक रूप से काम करना होता है। वहां उसे किसी रूझान या आदत के हिसाब से नहीं चलना होता। वहां विचार सार्थक है। परंतु क्या किसी भी अन्य क्रिया के क्षेत्र में विचार आवश्यक है?

कृपया इसे समझें। हमारे लिए विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे पास यही तो एकमात्र उपकरण है। यह विचार उस स्मृति की प्रतिक्रिया है जो अनुभव, ज्ञान और परंपराओं द्वारा संचित कर ली गयी है। स्मृति होती है समय का परिणाम, पशुता से मिली विरासत। इसी पृष्ठभूमि से हम प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रया विचारगत होती है। विचार कुछ निश्चिित स्तरों पर तो जरूरी होता है परंतु जब यह बीते हुए और आने वाले समय में, अतीत और भविष्य में स्वयं को मानसिक तौर पर फैलाने लगता है तब यह डर पैदा करता है और सुख भी परंतु इस प्रक्रिया में मन मंद हो जाता है और इसी वजह से अपरिहार्यतः अकर्मण्यता आ जाती है। डर ख़याल की पैदाइश है। तो क्या विचार मनोवैज्ञानिक रूप से, आत्मरक्षात्मक रूप से या भविष्य के विषय में सोचना बंद कर सकता है?
चीजों, व्यक्तियों और विचारों पर निर्भरता भय को जन्म देती है। निर्भरता उपजती है अज्ञान से, खुद को ना जानने के कारण, अंदरूनी गरीबी के कारण, खुद के बारे में ही कोई अता-पता ना होने से। डर, दिल दिमाग की अनिश्चितता का कारक बनता है और यह अनिश्चितता संप्रेषण और समझ-बूझ मंे बाधक बनती है। स्व के प्रति सजगता द्वारा हम खोजना शुरू करते हैं और इससे डर की वजह को समझ पाते हैं - केवल सतही डरों को ही नहीं बल्कि गहरे कारणजात और सदियों से इकट्ठे डरांे को भी। डर अंदर से भी पैदा होता है और बाहर से भी आता है। यह अतीत से जुड़ा होता है। अतः अतीत से विचार भावना को मुक्त करने के लिए अतीत को समझा जाना आवश्यक है और वह भी वर्तमान के माध्यम से। अतीत सदैव वर्तमान को जन्म देने को आतुर रहता है जो ‘मुझे’, ‘मेरे’ और ‘मैं’ की तद्रूप स्मृति बन जाता है। यह सारे भय का मूल है।

23 Mar 2011

आदमी के अन्‍दर डर क्‍या है ?


क्या यह संभव है कि हम खुद को डर से पूरी तरह मुक्त कर लें, किसी भी तरह के डर से। क्योंकि भय किसी भी तरह का हो भ्रम पैदा करता है, यह दिमाग को कुंद बनाता है, खोखला करता है। जहां भी डर होगा, निश्चित ही वहां आजादी नहीं हो सकती, मुक्तता नहीं हो सकती और जहां स्वतंत्रता नहीं होगी वहां प्रेम भी नहीं हो सकता। हममें से बहुत से लोग किसी ना किसी तरह के भय से ग्रस्त रहते ही हैं- अंधेरे का भय, ‘लोग क्या कहेंगे’ इस बात का भय, सांप का भय, शारीरिक दुखदर्दों का भय, बुढ़ापे की परेशानियों का भय, मौत का भय और ऐसे ही सैकड़ों की संख्या में कई तरह के भय हैं। तो क्या ऐसा संभव है कि हम भय से पूर्णतः मुक्त रहें?

हम देख सकते हैं कि हम में से हर आदमी के लिए भय क्या-क्या करता है। इसी के कारण कोई झूठ बोलता है, यह आदमी को कई तरह से भ्रष्ट करता है, यह बुद्धि को उथला और खोखला बना देता है। तो हमारे मन में कई अंधेरे कोने होते हैं जिनकी तब तक खोज और उनका उद्घाटन नहीं हो पाता जब तक कि हम डरें। शारीरिक सुरक्षा, एक जहरीले सांप से खुद को दूर रखने की एक स्वाभाविक वृत्ति, किसी ऊंची चट्टान के ऊपर खड़े होने से बचना, या ट्रेन के सामने आने से बचना, एक स्वाभाविक सहज स्वस्थ बचाव है लेकिन हम उस डर की बात कर रहे हैं जो मनोवैज्ञानिक आत्मरक्षण है, जो कि एक आदमी को बीमारियों से, मौत से और दुश्मन से डराता है। हम जब भी किसी भी रूप में पूर्णता की तलाश में रहते हैं वह चाहे चित्रकला हो, संगीत हो, किन्हीं तरह के रिश्ते हों, या आप जो भी होना चाहें, वहां हमेशा भय होता है। तो बहुत ही महत्वपूर्ण क्या है? यह कि हम भय कि इस सारी प्रक्रिया के प्रति खुद को जागरूक रखें। भय का अवलोकन करके, इस के बारे में सीख कर और यह ना कहें कि इसको कैसे दबायें, कुचलें ? जब हम भय को दबाने या कुचलने की बात करते हैं तो हम फिर इससे पलायन के रास्तों पर चलने लगते हैं और भय से पलायन करने से तो भय से मुक्ति नहीं मिलती।