आप ईश्वर में विश्वास करते हैं और दूसरा कोई नहीं करता, तो आपका ईश्वर में विश्वास करना और किसी अन्य का ईश्वर में विश्वास नहीं करना, आप लोगों को एक दूसरे से बांटता है। सारी दुनियां में विश्वास ही हिन्दुत्व, बौद्ध, ईसाईयत, मुस्लिम और अन्य धर्म सम्प्रदायों में संगठित हुवा, हुआ है और आदमी को आदमी से अलग कर रहा है, बांट रहा है। हम भ्रम में हैं और हम सोचते हैं कि विश्वास के द्वारा हम अपने भ्रम को दूर कर लेंगे लेकिन हमारा विश्वास ही भ्रम पर एक और परत बनकर चढ़ जाता है। लेकिन विश्वास भ्रम के तथ्य से पलायन मात्र है, यह हमें भ्रम के तथ्य का सामना करके, उसे समझने में मदद नहीं करता बल्कि हमें उसी भ्रम में ले आता है जिस में हम अभी हैं। भ्रम को समझने के लिए, विश्वास जरूरी नहीं है और विश्वास हमारे और हमारी समस्या के बीच एक झीनी चादर का काम करता है। तो धर्म.. जो कि संगठित विश्वास है, जो हम हैं, हमारे भ्रम के तथ्य से पलायन मात्र बन जाता है। वह आदमी जो भगवान पर विश्वास करता है, या जो भविष्य में भगवान पर विश्वास करने वाला है, या वो जो अन्य किसी तरह का किसी पर विश्वास रखता है, यह सब “जो वो है” उस तथ्य से पलायन करना मात्र है। क्या आप उन लोगों को नहीं जानते जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं, पूजा करते हैं, विशेष तरह के मंत्रों और शब्दों का जप करते हैं और अपनी रोजाना की आम जिन्दगी में दूसरों पर प्रभुत्व जमाते हैं, अत्याचारी हैं, महत्वाकांक्षी हैं, धोखेबाज हैं, बेईमान हैं। क्या ऐसे लोग भगवान को पा सकेंगे? क्या ऐसे लोग वाकई में भगवान को तलाश रहे हैं? क्या भगवान शब्दों के दोहराव, जप और विश्वास से मिल जायेगा? लेकिन कुछ लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं, वो भगवान की पूजा करते हैं, वो रोज मन्दिर जाते हैं, और वो.. वो सब करते हैं जो ”जो वो हैं“ उन्हें इस तथ्य से दूर ले जाता है। ऐसे कुछ लोग, आप सोचते हैं सम्माननीय हैं, क्योंकि खुद आप भी तो यही हैं ना।