जब मैंने अपने बारे में सोचना शुरू किया, तो मैंने खुद मे बागीपन पाया। न तो मैं किन्हीं भी उपदेशों, शिक्षाओं या ज्ञान से संतुष्ट था, न किसी भी तरह की प्रभुता से। मैं अपने लिये जानना चाहता था कि मेरे लिए विश्वगुरू होने का मतलब क्या है, यह विश्वगुरू की पदवी का सृजन करने के पीछे का सच क्या है, किसी को सवार और किसी का वाहक बनने का तात्पर्य क्या है और किसी विधाता के विधान का इस जगत में क्या अर्थ है।
जब मैं छोटा बच्चा था, मैं अक्सर हिन्दुओं में रची गई श्री कृष्ण भगवान की तस्वीर देखता था। मेरी मां बातचीत के दौरान अक्सर कृष्ण भगवान के बारे में बताया करती थीं। तो मेरे मन में बंसीधर बंसी वाले श्री कृष्ण जी की एक छवि बन गई, जिसके प्रति मेरे मन में पूर्ण समर्पण, प्रेम और उससे उपजा आनंद था। बाद में मैं जब मैं थियोसोफिकल सोसायटी के बिशप चार्ल्स लीडबीटर से मिला, तो मैंने के.एच. को उस रूप में देखना शुरू किया जैसा कि मेरे सामने उनका प्रारूप रखा गया, उस यथार्थ को जाना जिस नजरिये से कि गुरू के.एच. ने जाना। बाद में मैंने भगवान मैत्रेय, जो कि भगवान बुद्ध हैं, मैं उनका प्रेमी हो गया।
आप कहेंगे कि प्रेमी होने का मेरे लिए क्या अर्थ है? तो मेरे लिए उसका अर्थ है - सर्वस्व. सब कुछ। मैं उसके प्रेम में हूं जो भगवान कृष्ण है, जो गुरू के.एच. है, जो भगवान मैत्रेय भी है और भगवान बुद्ध भी। जो ये सब होते हुए भी इन रूप आकारों से कहीं परे है। तो मैं उसका प्रेमी हूं वो मेरा आराध्य है - जो खुला आकाश है, एक नन्हा सा फूल है, जो प्रत्येक मनुष्य में है। तो जब तक कि मैं अपने आराध्य प्रेमी प्यारे में ही न समा गया, एकाकार, वही न हो गया, मैं कभी न बोला। हालांकि मैं आम बोलचाल करता रहा, वह सब कहता सुनता रहा जो प्रत्येक आम आदमी कहना सुनना चाहता है। मैंने कभी नहीं कहा कि मैं विश्वगुरू हूं। लेकिन अब जब कि मैं अपने प्रेमी प्यारे से ही एकाकार हूं ... तो मैं ये कह सकता हूं... आपको प्रभावित करने के लिए नहीं, न ही अपनी महानता या विश्वगुरू होने की महानता से आपको फुसलाने के लिए, न ही जीवन के सौन्दर्य को अभिव्यक्त मात्र करने के लिए -- बल्कि बस इसलिए कि आपमें आपके दिलों में - मन में भी अपने ही सत्य को जानने की प्यास जगे, अभीप्सा पैदा हो। अतः मैं कहता हूं कि मैं अपने प्रेमी प्यारे के साथ ही एकाकार हूं - आप उसे बुद्ध हो जाना, बुद्धत्व में हो जाना कहें, भगवान मैत्रेय कहें या श्री कृष्ण कहें या उसे कुछ कोई अन्य नाम दें।
When I began to think for myself, I found myself in revolt. I was not satisfied by any teachings, by any authority; I wanted to find out for myself what the World-Teacher meant to me and what the Truth was behind the form of the World-Teacher, what was meant by the taking of a vehicle, and what was meant by His manifestation in the world. When I was a small boy, I used to see Shri Krishna as pictured by the Hindus. My mother used to talk to me about Shri Krishna; hence I created an image in my mind of Shri Krishna with the flute, with all the devotion, all the love and delight.
When I met bishop Charles
Leadbeater of the Theosophical Society, I began to see the Master K.H.- in the
form put before me, reality from their point of view-- hence Master K.H. was
the end. Later I began to see the Lord Maitreya. Now it is the Buddha, my
Beloved.
Till I was one with my Beloved,
I never spoke. I talked of vague generalities which everybody wanted. I never
said, I am the World-Teacher; but now that I feel I am one with the Beloved, I
say it-- not to impress you, to convince you of my greatness, or the greatness
of the World-Teacher, nor even of the beauty of life -- but merely to awaken
the desire in your own hearts and in your own minds to seek and discover the
Truth for yourself. Hence I say that I am one with the Beloved-- whether you
interpret it as
the Buddha, the Lord Maitreya, Shri Krishna, or any other name.
J. Krishnamurti, Eerde, 2 August 1927