जब हम अन्दर से कंगाल होते हैं तभी हम हर तरह के अमीरी, ताकत और प्रभुत्व जैसे बाहरी दिखावों में संलग्न होते हैं। जब हमारा मन भिखारी सा खाली होता है तभी हम बाहरी चीजें इकट्ठी करते हैं। अगर खरीदने में सक्षम हैं तो हम अपने आपको चारों और से ऐसी जी चीजों से घेर लेते हैं जो हम सोचते हैं कि वो सुन्दर हैं, और चूंकि हम ही इन चीजों से जुड़ते, इन्हें इतना महत्व देते हैं इसलिए हम ही और भी ज्यादा दुर्गति और विध्वंस के जिम्मेदार भी होते हैं।
कब्जे की भावना सुन्दरता के प्रति प्रेम नहीं है, यह सुरक्षा की आकांक्षा से ही उपजती है और सुरक्षित होने में असंवेदनशीलता है, जड़ता है।
कोई भी प्रवृत्ति या प्रतिभा जो अलगाव का कारण बनती है, अपनी पहचान बनाने का कोई भी तरीका, चाहे वह कितना भी उत्तेजक क्यों न हो, संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति को तोड़ता-मरोड़ता है और असंवेदनशीलता में ले जाता है।
”मैं पेंटिंग करता हूं”, ”मैं लिखता हूं”, ”मैंने खोज की है” - वह संवेदनशीलता मरी सी होती है जो वैयक्तिकता की भेंट चढ़ी हो, जहाँ ‘मैं‘ ‘मेरे’ को अहमियत दी गई हो। जब हम लोगों, चीजों और प्रकृति से अपने संबंधों के दौरान अपने हर विचार, हर अहसास के हर गुजरते क्षण में साक्षी होते हैं तब हमारा मन खुला होता है, मृदु होता है, आत्मसुरक्षा की मांग और आशय से संकुचित नहीं होता; और तभी कुरूप और सुन्दर के प्रति संवेदनशीलता, हमारा चेतन निर्बाध रूप से स्वमेव ही प्रकट करता है।
सुन्दरता और कुरूपता के प्रति संवेदनशीलता उनके प्रति लगाव या अलगाव से नहीं आती यह आती है प्रेम से, वहां जहां कोई भी आत्मकेन्द्रित संघर्ष न हो।
कब्जे की भावना सुन्दरता के प्रति प्रेम नहीं है, यह सुरक्षा की आकांक्षा से ही उपजती है और सुरक्षित होने में असंवेदनशीलता है, जड़ता है।
कोई भी प्रवृत्ति या प्रतिभा जो अलगाव का कारण बनती है, अपनी पहचान बनाने का कोई भी तरीका, चाहे वह कितना भी उत्तेजक क्यों न हो, संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति को तोड़ता-मरोड़ता है और असंवेदनशीलता में ले जाता है।
”मैं पेंटिंग करता हूं”, ”मैं लिखता हूं”, ”मैंने खोज की है” - वह संवेदनशीलता मरी सी होती है जो वैयक्तिकता की भेंट चढ़ी हो, जहाँ ‘मैं‘ ‘मेरे’ को अहमियत दी गई हो। जब हम लोगों, चीजों और प्रकृति से अपने संबंधों के दौरान अपने हर विचार, हर अहसास के हर गुजरते क्षण में साक्षी होते हैं तब हमारा मन खुला होता है, मृदु होता है, आत्मसुरक्षा की मांग और आशय से संकुचित नहीं होता; और तभी कुरूप और सुन्दर के प्रति संवेदनशीलता, हमारा चेतन निर्बाध रूप से स्वमेव ही प्रकट करता है।
सुन्दरता और कुरूपता के प्रति संवेदनशीलता उनके प्रति लगाव या अलगाव से नहीं आती यह आती है प्रेम से, वहां जहां कोई भी आत्मकेन्द्रित संघर्ष न हो।