जे. कृष्णमूर्ति का जन्म 11 मई 1895 को आन्ध्रप्रदेश के एक छोटे से कस्बे मदनापल्ली में एक धर्म परायण परिवार में हुआ था। उनका पूरा नाम जिड्डू या जिद्दू कृष्णमूर्ति है।
विभिन्न धर्मग्रंथो में वर्णित इस मान्यता के अनुसार कि मानवता के उद्धार के लिए समय-समय पर परमचेतना मनुष्य रूप में अवतरित होती है, थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य पहले ही किसी विश्वगुरू के आगमन की भविष्यवाणी कर चुके थे। श्रीमती बेसेंट और थिऑस्फ़िकल सोसायटी के प्रमुखों को जे.कृष्णमूर्ति में वह विशिष्ट लक्षण दिखे जो कि एक विश्वगुरू में होते हैं। तो श्रीमती बेसेंट द्वारा किशोरवय में ही जे.कृष्णमूर्ति को गोद लेकर उनकी परवरिश पूर्णतया धर्म और आध्यत्म से ओतप्रोत परिवेश में की गई। उनकी संपूर्ण शिक्षा इंग्लैंड में हुई।
जे कृष्णमूर्ति ने किसी जाति, राष्ट्रयता अथवा धर्म में अपनी निष्ठा व्यक्त नहीं की ना ही वे किसी परंपरा से आबद्ध रहे।
सन् 1922 में श्री कृष्णमूर्ति किन्हीं गहरी आध्यात्मिक अनुभूतियों से होकर गुजरे और उन्हें उस करूणा का स्पर्श हुआ जिसके बारे में उन्होंने स्वयं कहा ”वो करूणा सारे दुख, कष्टों को हर लेती है“।
उन्होंने सत्य के मित्र और प्रेमी की भूमिका निभायी लेकिन स्वयं को कभी भी गुरू के रूप में नहीं रखा। उन्होंने जो भी कहा वह उनकी अन्तर्दृष्टि का संप्रेषण था। उन्होनंे दर्शनशास्त्र की किसी नई पद्धति या प्रणाली की व्याख्या नहीं की, बल्कि मनुष्य की रोज़मर्रा की जिन्दगी से ही - भ्रष्ट और हिंसापूर्ण समाज की चुनौतियों, मनुष्य की सुरक्षा और सुख की खोज, भय, दुख, क्रोध जैसे विषयों पर कहा। बारीकी से मानव मन की गुत्थियों को सुलझा कर लोगों के सामने रखा। दैनिक जीवन में ध्यान के यथार्थ स्वरूप, धार्मिकता की महत्ता के बारे में बताया। उन्होनंे विश्व के प्रत्येक मानव के जीवन में उस आमूलचूल परिवर्तन की बात कही जिससे मानवता की वास्तविक प्रगति की ओर उन्मुख हुआ जा सके।
उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य की वैयक्तिक और सामाजिक चेतना दो भिन्न चीजें नहीं, ”पिण्ड में ही ब्रम्हांड है“ इस को समझाया। उन्होंने बताया कि वास्तव में हमारी भीतर ही पूरी मानव जाति पूरा विश्व प्रतिबिम्बित है। प्रकृति और परिवेश से मनुष्य के गहरे रिश्ते और प्रकृति और परिवेश से अखण्डता की बात की। उनकी दृष्टि मानव निर्मित सारे बंटवारों, दीवारों, विश्वासों, दृष्टिकोणों से परे जाकर सनातन विचार के तल पर, क्षणमात्र में जीने का बोध देती है।
बुदधत्व उपरांत 65 वर्षों तक वे अनथक सारी दुनियां में भ्रमण करते हुए निज अर्न्तदृष्टि से उद्भूत सार्वजनिक वार्ताओं, साक्षात्कार, निजी विवेचनाओं, संवाद, लेखन और व्याख्यानों के माध्यम से सत्य के विभिन्न पहलुओं से लोगों को परिचित कराते रहे। उन्होंने बताया कि किसी भी गुरू, संगठित धर्म, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक उपाय से मनुष्य में भलाई, प्रेम और करूणा नहीं पैदा की जा सकती।
उन्होंने कहा कि मनुष्य को स्वबोध के जरिये, अपने आपसे परिचय करते हुए स्वयं को भय, पूर्वसंस्कारों, सत्ता प्रामाण्य और रूढ़िबद्धता से मुक्त करना होगा, यही मनुष्य में व्यवस्था और आमूलचूल मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों का आधार हो सकता है।
हर तरह की आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक दावेदारी को नकारना और उन्हें भी कोई गुरू या अथॉरिटी ना बना डाले इससे आगाह करना उनके चेतावनी वाक्य थे।
अपने कार्य के बारे में उन्होंने कहा ”यहां किसी विश्वास की कोई मांग या अपेक्षा नहीं है, यहां अनुयायी नहीं है, पंथ संप्रदाय नहीं है, व किसी भी दिशा में उन्मुख करने के लिए किसी तरह का फुसलाना प्रेरित करना नहीं है, और इसलिए हम एक ही तल पर, एक ही आधार पर और एक ही स्तर पर मिल पाते हैं, क्योंकि तभी हम सब एक साथ मिलकर मानव जीवन के अद्भुत घटनाक्रम का अवलोकन कर सकते हैं।”
जे कृष्णमूर्ति ने स्वयं तथा उनकी शिक्षाओं को महिमा मंडित होने से बचाने और उनकी शिक्षाओं की व्याख्या की जाकर विकृत होने से बचाने के लिए लिए अमरीका, भारत, इंग्लैंड, कनाडा और स्पेन में फाउण्डेशन स्थापित किये।
भारत, इंग्लैण्ड और अमरीका में विद्यालय भी स्थापित किये जिनके बारे में उनका दृष्टिबोध था कि शिक्षा में केवल शास्त्रीय बौद्धिक कौशल ही नहीं वरन मन-मस्तिष्क को समझने पर भी जोर दिया जाना चाहिये। जीवन यापन और तकनीकी कुशलता के अतिरिक्त जीने की कला कुशलता भी सिखाई जानी चाहिए।
17 फरवरी 1986 को जे कृष्णमूर्ति जी का देहावसान हुआ।
उन्होंने सत्य के मित्र और प्रेमी की भूमिका निभायी लेकिन स्वयं को कभी भी गुरू के रूप में नहीं रखा। उन्होंने जो भी कहा वह उनकी अन्तर्दृष्टि का संप्रेषण था। उन्होनंे दर्शनशास्त्र की किसी नई पद्धति या प्रणाली की व्याख्या नहीं की, बल्कि मनुष्य की रोज़मर्रा की जिन्दगी से ही - भ्रष्ट और हिंसापूर्ण समाज की चुनौतियों, मनुष्य की सुरक्षा और सुख की खोज, भय, दुख, क्रोध जैसे विषयों पर कहा। बारीकी से मानव मन की गुत्थियों को सुलझा कर लोगों के सामने रखा। दैनिक जीवन में ध्यान के यथार्थ स्वरूप, धार्मिकता की महत्ता के बारे में बताया। उन्होनंे विश्व के प्रत्येक मानव के जीवन में उस आमूलचूल परिवर्तन की बात कही जिससे मानवता की वास्तविक प्रगति की ओर उन्मुख हुआ जा सके।
उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि मनुष्य की वैयक्तिक और सामाजिक चेतना दो भिन्न चीजें नहीं, ”पिण्ड में ही ब्रम्हांड है“ इस को समझाया। उन्होंने बताया कि वास्तव में हमारी भीतर ही पूरी मानव जाति पूरा विश्व प्रतिबिम्बित है। प्रकृति और परिवेश से मनुष्य के गहरे रिश्ते और प्रकृति और परिवेश से अखण्डता की बात की। उनकी दृष्टि मानव निर्मित सारे बंटवारों, दीवारों, विश्वासों, दृष्टिकोणों से परे जाकर सनातन विचार के तल पर, क्षणमात्र में जीने का बोध देती है।
बुदधत्व उपरांत 65 वर्षों तक वे अनथक सारी दुनियां में भ्रमण करते हुए निज अर्न्तदृष्टि से उद्भूत सार्वजनिक वार्ताओं, साक्षात्कार, निजी विवेचनाओं, संवाद, लेखन और व्याख्यानों के माध्यम से सत्य के विभिन्न पहलुओं से लोगों को परिचित कराते रहे। उन्होंने बताया कि किसी भी गुरू, संगठित धर्म, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक उपाय से मनुष्य में भलाई, प्रेम और करूणा नहीं पैदा की जा सकती।
उन्होंने कहा कि मनुष्य को स्वबोध के जरिये, अपने आपसे परिचय करते हुए स्वयं को भय, पूर्वसंस्कारों, सत्ता प्रामाण्य और रूढ़िबद्धता से मुक्त करना होगा, यही मनुष्य में व्यवस्था और आमूलचूल मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों का आधार हो सकता है।
हर तरह की आध्यात्मिक तथा मनोवैज्ञानिक दावेदारी को नकारना और उन्हें भी कोई गुरू या अथॉरिटी ना बना डाले इससे आगाह करना उनके चेतावनी वाक्य थे।
अपने कार्य के बारे में उन्होंने कहा ”यहां किसी विश्वास की कोई मांग या अपेक्षा नहीं है, यहां अनुयायी नहीं है, पंथ संप्रदाय नहीं है, व किसी भी दिशा में उन्मुख करने के लिए किसी तरह का फुसलाना प्रेरित करना नहीं है, और इसलिए हम एक ही तल पर, एक ही आधार पर और एक ही स्तर पर मिल पाते हैं, क्योंकि तभी हम सब एक साथ मिलकर मानव जीवन के अद्भुत घटनाक्रम का अवलोकन कर सकते हैं।”
जे कृष्णमूर्ति ने स्वयं तथा उनकी शिक्षाओं को महिमा मंडित होने से बचाने और उनकी शिक्षाओं की व्याख्या की जाकर विकृत होने से बचाने के लिए लिए अमरीका, भारत, इंग्लैंड, कनाडा और स्पेन में फाउण्डेशन स्थापित किये।
भारत, इंग्लैण्ड और अमरीका में विद्यालय भी स्थापित किये जिनके बारे में उनका दृष्टिबोध था कि शिक्षा में केवल शास्त्रीय बौद्धिक कौशल ही नहीं वरन मन-मस्तिष्क को समझने पर भी जोर दिया जाना चाहिये। जीवन यापन और तकनीकी कुशलता के अतिरिक्त जीने की कला कुशलता भी सिखाई जानी चाहिए।
17 फरवरी 1986 को जे कृष्णमूर्ति जी का देहावसान हुआ।
जे कृष्णमूर्ति के मौलिक दर्शन ने पारंपरिक, गैरपरंपरावादी विचारकों, दार्शनिकों, शीर्ष शासन-संस्थाप्रमुखों, भौतिक और मनोवैज्ञानियों और सभी धर्म, सत्य और यथार्थपरक जीवन में प्रवृत्त सुधिजनों को आर्कर्षित किया और उनकी स्पष्ट दृष्टि से सभी आलोकित हुए हैं।
उनके साहित्य में सार्वजनिक वार्ताएं, प्रश्नोत्तर, परिचर्चाएं, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, डायरी और उनका खुद का लेखन शामिल है जो कि अब तक 75 से अधिक पुस्तकों और 700 से अधिक ऑडियो और 1200 से अधिक वीडियो कैसेट्स सीडी के रूप में उपलब्ध है। उनका मूल साहित्य अंग्रेजी भाषा में है, जिसका कई मुख्य प्रचलित भाषाओं में अनुवाद किया गया है। वार्ताएं, प्रश्नोत्तर, परिचर्चाएं, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, प्रवचनों के ऑडियो और वीडियो टेप भी उपलब्ध हैं।
उनके साहित्य में सार्वजनिक वार्ताएं, प्रश्नोत्तर, परिचर्चाएं, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, डायरी और उनका खुद का लेखन शामिल है जो कि अब तक 75 से अधिक पुस्तकों और 700 से अधिक ऑडियो और 1200 से अधिक वीडियो कैसेट्स सीडी के रूप में उपलब्ध है। उनका मूल साहित्य अंग्रेजी भाषा में है, जिसका कई मुख्य प्रचलित भाषाओं में अनुवाद किया गया है। वार्ताएं, प्रश्नोत्तर, परिचर्चाएं, साक्षात्कार, परस्पर संवाद, प्रवचनों के ऑडियो और वीडियो टेप भी उपलब्ध हैं।
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