यह आश्चर्यजनक रूप से सुन्दर और रूचिकर है कि जब आप में अर्न्तदृष्टि होती है तो विचार किस प्रकार अनुपस्थित हो जाते हैं। विचारों की कोई अर्न्तदृष्टि नहीं होती। केवल तब ही जब आप विचार के ढांचे में, मन को यांत्रिक रूप से इस्तेमाल नहीं करते तब ही अर्न्तदृष्टि होती है। अर्न्तदृष्टि के होने के उपरांत ही विचार उस अर्न्तदृष्टि के आधार पर एक निर्णय या आशय की रूपरेखा बनाता है। और तब विचार कर्म करता है, जो यांत्रिक होता है। तो हमें यह पता लगाना है कि क्या हममें कोई ऐसी अर्न्तदृष्टि हो सकती है, जो दुनियां से सरोकार रखती हो, लेकिन जो निर्णय न देती हो, क्या ऐसा संभव है?
यदि हम एक निर्णय या निष्कर्ष निकाल लेते हैं, तो हम उसकी संकल्पना के आधार पर कर्म करने लगते हैं, हम एक छवि, एक चिन्ह के अनुरूप काम करने लगते हैं, जो कि विचार की संरचना है, तो चीजें जैसी हैं उन्हें यथार्थतः वैसा का वैसा ही समझने से बचने के लिए हम निरंतर अपने आपको अर्न्तदृष्टि सम्पन्न होने से बचाते रहते हैं?
यदि हम एक निर्णय या निष्कर्ष निकाल लेते हैं, तो हम उसकी संकल्पना के आधार पर कर्म करने लगते हैं, हम एक छवि, एक चिन्ह के अनुरूप काम करने लगते हैं, जो कि विचार की संरचना है, तो चीजें जैसी हैं उन्हें यथार्थतः वैसा का वैसा ही समझने से बचने के लिए हम निरंतर अपने आपको अर्न्तदृष्टि सम्पन्न होने से बचाते रहते हैं?