2 Sept 2009
जब मन निर्णयों-निष्कर्षों, सूत्रबद्धता के बोझ से दबा हुआ होता है, तब जिज्ञासा प्रतिबंधित होती है। यह बहुत जरूरी है कि खोज, जिज्ञासा हो। उस तरह नहीं जैसे एक क्षेत्र के विशेषज्ञ वैज्ञानिक या मनोवैज्ञानिकों द्वारा कोई खोज की जाती है। पर एक व्यक्ति द्वारा अपने ही बारे में जानने के लिए, अपने जीवन की पूर्णता को जानने के लिए, अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों के दौरान अपने ही चेतन और अचेतन स्तर पर मन की शल्य क्रिया किया जाना नितांत आवश्यक है। कोई कैसे कार्यव्यवहार करता है, किसी की क्या प्रतिक्रिया होती है जब कोई आॅफिस जाता है, या बस पर सवार होता है, जब कोई अपने बच्चे, अपने पति या पत्नि से बातचीत करता है आदि आदि। जब तक मन अपनी संपूर्णता के प्रति जागरूक नहीं होता - वैसा नहीं जैसा कि ‘वो होना चाहता है’ बल्कि जैसा कि ‘वो है।’ जब तक कोई अपने फैसलों, धारणाओं, आदर्शों, अनुपालन की जाने वाली गतिविधियों के प्रति जागरूक नहीं होता यथार्थ की सृजनात्मक धारा के आने की कोई संभावना नहीं होती।
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