जिन्दगी का मतलब जीने में है। जब हम डरे हुए रहते हैं, या किसी के कहे मुताबिक चलते हैं, या हम किसी की नकल करते हुए जिन्दगी जीते हैं तो क्या इसे जीना कहेंगे? क्या तब जिन्दगी लीने लायक होती है? किसी प्रमाणित व्यक्ति के रूप में स्थापित व्यक्ति का पिछलग्गू बनना, क्या जिन्दगी जीना है? जब हम किसी के पिछलग्गू बने होते हैं, चाहे वे महान संत, राजनेता या विद्वान हो, तब क्या हम जी रहे होते हैं?
यदि आप ध्यानपूर्वक अपने तौर तरीकों को देखें तो आप पाएंगे कि आप किसी ना किसी के पद्चिन्हों पर चलने के अलावा कुछ अन्य नहीं कर रहे हैं। दूसरों के कदमों पर कदम रखते हुए चलने के सिलसिले को हम जीना कह देते हैं और इसके अंत में हम यह सवाल भी करते हैं कि जिन्दगी की अर्थवत्ता क्या है? लेकिन यह सब करते हुए जिन्दगी का कोई मतलब नहीं रह जाता है। जिन्दगी में अर्थवत्ता तब ही हो सकती है जब हम कई तरह की मान्यताओं और प्रमाणिकताओं को एक ओर रख दें, जो कि सरल नहीं है।
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